भाईश्री का साक्षात्कार : इंसान को उसकी इंसानियत वापस लौटा दो, सबकुछ ठीक हो जायेगा

हरिवंश राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ पत्रकार जीवन का आधार ही अध्यात्म है. आत्मा पर आधारित जीवन अर्थात जीवन के मूल में आत्मनिष्ठा. आत्मा चूंकि सबमें समान है, इसलिए आध्यात्मिक जीवन का अर्थ होता है, भेदबुद्धि रहित जीवन. एक इंसान-दूसरे इंसान में भेद नहीं रहना चाहिए. ना जात के नाम पर, ना धर्म के नाम पर, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 22, 2017 7:12 AM

हरिवंश

राज्यसभा सांसद

और वरिष्ठ पत्रकार

जीवन का आधार ही अध्यात्म है. आत्मा पर आधारित जीवन अर्थात जीवन के मूल में आत्मनिष्ठा. आत्मा चूंकि सबमें समान है, इसलिए आध्यात्मिक जीवन का अर्थ होता है, भेदबुद्धि रहित जीवन. एक इंसान-दूसरे इंसान में भेद नहीं रहना चाहिए. ना जात के नाम पर, ना धर्म के नाम पर, ना धन के नाम पर, ना शिक्षा के नाम पर. किसी भी तरह का भेद नहीं होना चाहिए. पढ़िए लंबे साक्षात्कार की पहली कड़ी.

इतने लंबे अनुभव, साधना, तप-त्याग, अध्ययन, मनीषियों के सानिध्य में रहने के बाद आपने चुपचाप एकांत में रहना चुना. अतिमामूली जरूरतों के साथ अपना कुछ भी नहीं बनाया. इतने समृद्ध अनुभव के साथ आप आज जीवन को कैसे देखते हैं? यह क्यों है? इसका मकसद क्या है? बुद्ध से लेकर रमण महर्षि ने अलग-अलग रास्ते बताये. आज के माहौल में कौन-सा रास्ता एक सामान्य व्यक्ति के लिए अनुकूल है?.

पहले हम शुरू करें इस बात से कि कम्युनिस्ट रिवोल्यूशन हुआ, तो लेनिन का पहला अटेंप्ट(प्रयास) फेल कर गया. उस आंदोलन को क्रश(दबा) कर दिया गया. उसने अपने बहुत नजदीकी लोगों को बुलाया. कहा कि वापस अपने घर चले जाओ. चुपचाप पड़े रहो (लाई लो).

फिर जब वक्त आयेगा, तब मैं बुलाऊंगा. आना. फिर 1912 या 13 में, साल भूल रहा हूं, उसने दूसरा अटेंप्ट लिया. सारे लोग आये. तब सफलता मिली. हम इस तरह चुपचाप क्यों हैं, कोने में पड़े हैं, इसलिए नहीं कि हमको पसंद नहीं है या हम रिएक्ट कर रहे हैं, हमको मान-सम्मान नहीं मिल रहा है और इसलिए हम चुपचाप एकांत में ठेल दिये गये हैं. ऐसी कोई बात नहीं है.

मुख्य कारण यह है कि हम समझते हैं कि जिन हथकंडों से या जिन तौर-तरीकों से लाइम-लाइट में रहा जाता है, उन तौर तरीकों को हम अपना नहीं सकते. एक समकालीन घटना का उदाहरण दूं. व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए, डिस्कोर्स ऑफ पॉलिटिक्स (राजनीतिक बहस) को बदलने के लिए अरविंद केजरीवाल आये.

पर वो पॉलिटिक्स नहीं बदल सके. पॉलिटिक्स ने उन्हें बदल दिया. वो डिसकोर्स ऑफ पॉलिटिक्स नहीं चेंज कर सके. वो राजनीति के स्वरूप को, उसके प्राण को नहीं बदल सके, बल्कि राजनीति ने ही अरविंद केजरीवाल के प्राण को ओर उनके स्वरूप को बदल दिया. इसलिए ऐसी बात नहीं है कि मैं समझता नहीं हूं. मैं समझता हूं कि मैं जो कहना चाहता हूं, वह दुनिया या समाज सुनने की स्थिति में नहीं है. इसलिए मैं किसी रिएक्शन में चुपचाप नहीं हूं. मैं अपने वक्त का इंतजार कर रहा हूं.

मेरा वक्त आयेगा. क्योंकि मैं यह अच्छी तरह समझता हूं कि अगर दुनिया को बचना है, तो मेरा वक्त आना है. मेरी शर्तो पर आना है. मैं आपकी शर्तों पर नहीं सुनूंगा. मेरी शर्त यही है कि एक साधारण आदमी कुछ कहना चाहता है. किसी मंच पर खड़े होकर नहीं. करोड़ों रुपये खर्च करके सभा का आयोजन कर नहीं या बहुत झंडा खड़ा कर या बहुत बड़ा संगठन खड़ा कर नहीं.

एक साधारण आदमी की साधारण-सी आवाज ऊपर कानों तक पहुंचती है या नहीं? यह मेरी कसौटी है. मैंने तुमसे कुछ दिनों पहले कहा था कि राजनीतिज्ञों से अपील करो कि इंसान को उसकी इंसानियत वापस लौटा दो. इन राजनीतिज्ञों ने इंसान की इंसानियत छीन ली है.

इंसान अब इंसान रहा ही नहीं, या तो वह अब ब्राह्मण है, या अगड़ा है, या ओबीसी है या शिडूयल्ड कास्ट या शिडूयल्ड ट्राइब है. वो हिंदू है, मुसलमान है, क्रिश्चियन है, बौद्ध है, सिख है. पैसे वाला है, गरीब है या बिलो पॉवर्टी लाइन वाला है. इंसान कैसा है? इस सारे के सारे डिवीजन में इंसान टूट कर बिखर गया है. इंसान है कहां? और यह स्थिति किसने पैदा की है. जिन लोगों ने यह स्थिति पैदा कि उनसे अपील करो कि इंसान को उसकी इंसानियत वापस कर दे. हम वापस इंसान हो जायें, मामला सुलझ जायेगा. सबकुछ ठीक हो जायेगा. इसलिए एक छोटी-सी जगह में अत्यंत ही साधारण जीवन जीते हुए, वो भी बिना किसी शिकायत के, मैं बहुत खुश हूं. मैं संतुष्ट हूं.

ऐसा नहीं कि यह एक-दो दिन की बात है, वर्षो से, दशकों से ऐसा ही हूं. पिता के गुजरने के छब्बीस वर्ष हो गये, मैं ऐसा ही हूं. मैं ऐसे मर भी जाऊं तो बड़ा संतुष्ट मरूंगा. लेकिन अपनी बात कहने के लिए मैं उन हथकंडों का इस्तेमाल नहीं करूंगा, जिन हथकंडों का इस्तेमाल कर लोग गलत हो चुके हैं.

जिस चुनाव के रास्ते चलकर यह व्यवस्था भ्रष्ट हो चुकी है, उस चुनाव के रास्ते पर चलकर अरविंद केजरीवाल कैसे उसे ठीक करना चाहते हैं? यह मूर्खता है, इतनी बुद्धि समझ में नहीं आयी कि जिस रास्ते पर चल कर यह देश बिगड़ा है, यह समाज बिगड़ा है, उसी रास्ते पर चल कर आप कैसे उसको सुधार लेंगे? आप कहते हैं हम व्यवस्था के भीतर प्रवेश करें, व्यवस्था के भीतर प्रवेश करने पर व्यवस्था आपको अपने अनुकूल बना लेगी. आप में इतनी सार्मथ्य नहीं कि व्यवस्था को अपने अनुकूल बना लें. कालिदास के अंहकार की एक घटना सुनिए.

कालिदास को विद्वता का अंहकार हो गया. फिर सरस्वती ने उनके अंहकार को पछाड़ा. किसी भी व्यक्ति को अंहकार हो जाये कि मैं इस व्यवस्था में प्रवेश करके व्यवस्था बदल दूंगा, तो यह अंहकार के सिवा कुछ नहीं है. क्योंकि व्यवस्था बड़ी चीज है. उसको बदलने के लिए जिस तप की, जिस साधना की और जिस डिवाइन सपोर्ट की आवश्यकता है, वह आपके पास अगर नहीं है, तो व्यवस्था आपको बदलेगी, जो अरविंद केजरीवाल के साथ हुआ.

आप व्यवस्था को नहीं बदल सकते, इसलिए हम यहां हैं, चुपचाप हैं. लेकिन बात अगर सुननी है, बात अगर समझनी है, बात अगर एप्रीशिएट करनी है, तो मैं जैसा हूं, वैसी ही हालत में कहूंगा. जिस तरह हूं उसी तरह कहूंगा. बदलूंगा नहीं, क्योंकि मैं उस रास्ते पर नहीं चलूंगा, जिस रास्ते पर चलकर ये साधु लोग टीवी पर आते हैं. साधु लोग खेल दिखलाते हैं, यह करतब मैं नहीं दिखलांउगा. वह ड्रेस मैं नहीं पहनूंगा. वह टीवी इंटरव्यू नहीं दूंगा.

आखिर एक आध्यात्मिक व्यक्ति क्या है? अध्यात्म क्या चीज है? जीवन का आधार ही अध्यात्म है. आत्मा पर आधारित जीवन अर्थात जीवन के मूल में आत्मनिष्ठा. आत्मा चूंकि सबमें समान है, इसलिए आध्यात्मिक जीवन का अर्थ होता है, भेदबुद्धि रहित जीवन. एक इंसान-दूसरे इंसान में भेद नहीं रहना चाहिए.

ना जात के नाम पर, ना धर्म के नाम पर, ना धन के नाम पर, ना शिक्षा के नाम पर. किसी भी तरह का भेद नहीं होना चाहिए. मैं इन लोगों का आचरण देखता हूं, तो इनके जीवन में भेद ही भेद दिखाई देता है. जो लोग हैं, बिना नाम लिये कहता हूं, मैंने उनका इंटरव्यू देखा. वो कहते हैं गरीबी से संतों का क्या सरोकार? अरे भई आज तक जितने भी संत हो गये इस दुनिया में, इस देश में, वो बड़े ही कठिन व्रत का पालन करते रहे.

रमण महर्षि ने लंगोटी पहनी. रामकृष्ण परमहंस ने बहुत ही साधारण जीवन जिया. कलकत्ते में कहीं जाते थे, तो भिक्षा मांग कर घोड़ागाड़ी का भाड़ा लेते थे. जो राजघर में पैदा भी हुए, जैसे मीरा, तो वह निकल कर, छोड़ कर अलग हो गये. मेरे पिताजी ही बहुत बड़े जमींदार के घर पैदा हुए, छोड़ कर अलग हो गये.

संतों का गरीबी से वैसा ही घनिष्ठ रिश्ता है, जैसे आत्मा का परमात्मा के साथ. यहां गरीबी का सवाल नहीं है. सवाल है कि जो सामान्य आदमी है, जो इस धरती पर सबसे नीचे का आदमी है उसके साथ संत की एकात्मता है या नहीं? बड़े लोगों के साथ उसकी एकात्मता नहीं होती है. क्योंकि वह उसी के लिए आता है. भगवान श्रीकृष्ण राजकुल में पैदा हो कर एक सामान्य आदमी का जीवन जीते हैं. हम कोई प्रचार तो करते नहीं, किसी को बोलने नहीं जाते, किसी को कहने नहीं जाते. भई हम जहां हैं, भगवान यदि किसी को भेज देता है, उसे अपनी बात कह देते हैं.

और कहकर निश्चिंत हो जाते हैं. जमाना मेरी बातों के अनुकूल नहीं है यह मुझे मालूम है लेकिन मैं निराश नहीं हूं. मैं भगवान की प्रतिष्ठा करूंगा. भगवान जगन्नाथ की प्रतिष्ठा करूंगा, क्योंकि मेरा लक्ष्य वही है, भगवान प्रतिष्ठित हो जाये. आज भगवान कहीं नहीं है. कहां है भगवान, मन्वंतरों में तो शैतान राज कर रहा है.

वो उसको गलत दिशाओं में ले जा रहा है. वो उन सारे हथकंडों का इस्तेमाल कर रहा है, जिनसे कि एक आदमी शैतान हो जाये, तो मैं कैसे कहूं कि भगवान है? इसलिए वक्त आयेगा और भगवान को प्रतिष्ठित करना होगा. मैं उसका इंतजार कर रहा हूं.

क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष जलन, भय, मैथुन, अपना-पराया से मुक्त हो पाना क्या संभव है या सिर्फ आदर्श की बातें हैं या किताबों की बातें हैं? क्या कुछ ऐसे दृष्टांत हैं, जहां चीजें यथार्थ में, धरातल पर उतरी दिखायी देती हैं?

प्रश्न बहुत स्वाभाविक है. आज जो समाज है, वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, मैथुन इत्यादि से इतना ग्रस्त-त्रस्त है कि इससे मुक्त जीवन भी संभव है, इसकी कल्पना आज मनुष्य को नहीं है. लेकिन जो लोग इससे मुक्त हैं, कैसे दावा करें कि मैं इससे मुक्त हूं? मैं दावा कर नहीं सकता. दावा कर दूंगा, तो वह मेरा अंहकार होगा. इसके लिए तुम्हें मेरे साथ रहना होगा. इतना वक्त तुम्हारे पास नहीं है कि देखो इस आदमी को क्रोध है कि नहीं? इस आदमी को लोभ है कि नहीं? यह आदमी लड़कियों के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ दिन रहना होगा, संगत करनी होगी. तब समझ में आयेगा. जैसे-जैसे नजदीक आओगे, वैसे-वैसे एक साधु की सुंगध मिलेगी. लेकिन एक मौलिक बात है.

इंसान शरीर के स्तर पर पशु है. वह मन वाला है, इसलिए मनुष्य है. और उसके मन में यह क्षमता है कि वह शरीर से अपने मन को अलग कर सके, इसलिए मनुष्य यूनिक भी है. बॉडी आइडेंटीफिकेशन से अपने को अलग कर ले. यह क्षमता मनुष्य में है. किसी भी पशु में यह क्षमता नहीं है.

मनुष्य का शरीर भी पशु ही है, लेकिन मनुष्य होने के कारण मुझमें यह क्षमता है कि मैं अपने शरीर से ऊपर उठ सकूं. शारीरिक वासनाओं, कामनाओं, संवेदनाओं से मैं अपने को मुक्त कर सकूं. आहार, निद्रा, मैथुन और भय, ये पशु के चार मौलिक संस्कार हैं. इन पाशविक संस्कारों से मुक्त होकर ही हम मनुष्य होते हैं. आखिर हम मनुष्य किसको कहेंगे. एक पशु और मुझमें क्या अंतर है? हम किस आधार पर स्वयं को मनुष्य कहेंगे. हम सोचते-समझते हैं. पशु भी सोचते-समझते हैं.

हम थॉट प्रोसेस को इतनी ऊंचाई तक ले जा सकते हैं कि हम इस शरीर से ही अपने को अलग कर ले सकते हैं. इस शरीर पर जो संवेदनशील संवेदनाओं का असर पड़ता है, जैसे काम का, क्रोध का, लोभ का, मोह का, मैथुन का, उससे हम अपने को मुक्त कर सकते हैं. अगर हम नहीं कर सकते हैं, तो हम पशु होकर रहने के लिए अभिशप्त हैं. यह ऑप्शन मनुष्य के पास ही है कि वह मनुष्य बन कर रह सकता हैं. नीचे पशुता, फिर उससे ऊपर मनुष्यता है. सबसे ऊपर भगवत्ता है. हम पहले मनुष्यता को अतिक्रमण करते हैं, तब भगवत्ता हमारे अंदर डिसेंड (अवतरित) करती है. मनुष्यता को लांघ कर भगवत्ता पशुता में नहीं उतर सकती है.

मनुष्यता को बाईपास करके ईश्वरता पशु में नहीं उतर सकती, इसलिए पशु को मनुष्य बनना पड़ता है. ये जो हम देहधारी मनुष्य हैं, इस देह के प्रभाव से मुक्त होकर मनुष्य होते हैं तब ईश्वरता या डिविनिटी हमको स्पर्श करती है. हमको छूती है. हमारे अंदर प्रस्फुटित होती है. हमारे अंदर प्रकट होती है. इसलिए पहले भी जिन्होंने इसकी कोशिश की, वो इस मनुष्यता से उपर उठ सके. आज भी जो कोशिश कर रहे हैं, वह निश्वित रूप से उपर उठ रहे हैं. आज यह कठिन हो गया है, क्योंकि आज वातावरण विषाक्त है. क्योंकि तुम्हारा मन, मेरा मन, उनका मन, इनका मन अलग-अलग नहीं है. मन तो विश्व का एक ही है. ये विश्वचेतना है. यह यूर्निवर्सल कांशसनेस है. इसका एक अंश मेरे अंदर है, एक अंश तुम्हारे अंदर है, सभी के अंदर है.

ये जो चारों तरफ खलबली है, ये जो घृणा देख रहे हैं, हिंसा देख रहे हैं, कामवासना का भद्दा रूप देख रहे हैं, यह सब इसी चेतना में है. इसलिए आज अगर कोई मनुष्य पशुता से उपर ऊठना चाहता है, तो उसकी जो कोशिश है वह कठिन है. उसका अतिक्रमण करने में बहुत परेशानी होगी. सतयुग में बहुत परेशानी नहीं होती है, बहुत आराम से हो जाता है, लेकिन इस कलयुग में एक आदमी एनिमल टेंडेसीज को हटा कर मनुष्य बनना चाहे, तो उसकी समस्याएं बहुत जटिल हैं. आजकल बहुत सारे लोग कहते हैं -“वी ट्राइ टू अंडरस्टैंड आवरसेल्व्स.” हम अपने को समझने की कोशिश करते हैं. हम जैसे हैं, वैसे और जो होना चाहते हैं उसको, हम अपने अंदर जब उन वृत्तियों को हटाते हैं, तो हम अपने को समझने की कोशिश करते हैं. वृत्तियों को हटाते हैं, शांत होते हैं.

बाहर इतनी अशांति है, बाहर इतनी हिंसा है, वह हमारे अंदर की शांति को विचलित करती है. हम कोशिश करते हैं, लेकिन वापस फिर उसके प्रभाव में पड़ते हैं. इसलिए भी हम थोड़ा एकांत छोटी जगह पर आकर रहते हैं. बड़े शहरों में बहुत कोलाहल है. बहुत परेशानी है.

धन और सत्ता ही समाज में आज धुरी हैं. पूज्य हैं. किसी दौर में ऐसा रहा था क्या और इसकी अंतत: नियति क्या दिखती है?

व्यक्तिगत जीवन में भी जब भोग, भोगेच्छा सप्रेस्ड(दबना) हो जाती है, तो बड़ी समस्या उत्पन्न होती है. जैसे मान लिया जाये कि मैं एक युवा लड़का हूं, मेरे पास रुपये नहीं हैं, लेकिन मुझे कुछ अच्छा खाने की इच्छा है.

धन-साधन नहीं हैं, लेकिन कुछ अच्छे कपड़े पहनने की ललक है. मेरे पास साधन नहीं है, लेकिन गाड़ी पर चढ़ने की इच्छा है. फिर हम क्या करते हैं? हम उन कामनाओं-वासनाओं को दबा कर रखते हैं. सप्रेस्ड कर देते हैं. यहां पर बहुत सारे लोगों ने यह भी फिलॉस्फी दी कि सप्रेशन ठीक नहीं है. नहीं, एक हद तक ठीक है. क्योंकि आहार की खोज में इंद्रियां निकली हैं, उनको जब्त करना होगा. जब जैसा आहार चाहिए, तब तैसा आहार देते रहने से सुखभोगी हो जायेंगी. वो और भी अनियंत्रित हो जायेंगी.

इसलिए थोड़ा संयम जरूरी है. लेकिन होता क्या है, कि इसे दबाने पर, हम जब बड़े होते हैं, हम जब तीस-पैंतीस-चालीस साल के होते हैं, और अगर मेरे पास धन आ जाये, तो दबी हुई वासनाएं जग जाती हैं और भोग चाहती हैं. उस समय पैसे नहीं थे. खाने की इच्छा थी, एक गाड़ी पर चढ़ने की इच्छा थी, एक अच्छा मकान बनाने की इच्छा थी, आज पैसे हैं, तो हम खूब भोग करने लगते हैं. छूट कर खाते हैं, छूट कर पहनते हैं. बेहिसाब पहनते हैं. बेहिसाब गाड़ियां खरीद लेते हैं. बेहिसाब घर बना लेते हैं. आप तो दिन में तीन या चार बार ही खा सकते हैं.

एक बार में एक ही जोड़ा जूते पहन सकते हैं. कपड़े भी एक ही पहन सकते हैं. लेकिन यह बुद्धि, यह विचार तब नहीं रहता है. क्योंकि अतिशय भोग से चिंतन प्रभावित हो जाता है. इसलिए धन, भोग, पावर, इसको धारण करने की क्षमता आनी चाहिए. तब ये चीजें जीवन में आनी चाहिए. एक क्षमतावान के पास धन, दौलत, पावर हो, तो वह इसको हैंडल करना जानता है. हमारे यहां एक सिबॉलिकल(प्रतीकात्मक) फोटो है. भगवान विष्णु हैं. लक्ष्मी उनके पैर दबा रहीं हैं.

यह प्रतीक कहता है कि धन का उपयोग भगवान की सेवा में है यानी जनसाधारण की सेवा में ही धन का उपयोग है. लेकिन यह समझदारी कब आती है. यह समझदारी एक भोगी मनुष्य को नहीं आती. यह समझदारी आती है एक साधन-संपन्न मनुष्य को, एक अनुशासित मनुष्य को. एक तरह के मनुष्य धरती पर कभी नहीं रहते. चेतना के भिन्न-भिन्न स्तरों पर मनुष्य इस धरती पर बराबर रहते हैं.

इसलिए जो चेतना के उच्चतम शिखर पर या सूक्ष्मतम स्तर पर जिनका संपर्क है, वैसे लोगों का दायित्व गाइड करने का है. वैसे लोगों का दायित्व लीडरशिप लेने का है. कौन लीडरशिप लेता है, जो त्यागी होता है, जो संयमी होता है, जो सेंसिटिव(संवेदनशील) एंड सेन्सिबल (समझदार) होता है. उनके पास नहीं, जो पाशविक संस्कारों से परेशान हैं. उनके पास यदि सार्मथ्य जायेगा तो और नाश कर देंगे. इसलिए धन और सत्ता उनके पास आनी चाहिए, जो चेतना के उच्चतम शिखर पर विराज रहे हैं.

जिनके लिए पूरी दुनिया एक हो. वे थोड़ी भी भेद-बुद्धि ना करते हों. वह सबमें भगवान को देखते हों. भगवान में सबको देखते हों. ऐसे लोगों पर दायित्व बनता है. ऐसे लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है. सत्ता और धन की जिम्मेदारी आती है, तो ऐसे लोग सही मायने में गाइड कर सकते हैं. पहले भी ऐसे लोग हुए हैं. पुराने जमाने में भी जब मोनार्की थी तब भी, ऐसे राजा हुए हैं जिन्होंने पूरी प्रजा की देखभाल की है. हमारे बाबूजी एक बात कहते थे, इंसान अच्छा होता है तो कोई भी सिस्टम अच्छा होता है.

वो चाहे मोनार्की हो या डेमोक्रेसी हो, या ओलीगार्की हो, कोई व्यवस्था हो. इंसान अच्छा ना हो तो अच्छे से अच्छा सिस्टम भी खत्म हो जाता है. इसलिए इस बात पर ध्यान केंद्रित करो कि इंसान कैसा हो. कैसा मनुष्य हो, वह अंदर से आत्मदर्शी है या नहीं, उसको आत्मज्ञान है या नहीं, जिम्मेदारी लेने के लायक है या नहीं? धनी के रूप में हमारे मन में सहज ही अनाथपिंडक का नाम आता है, जिसने भगवान बुद्ध के चरणों में सारी संपत्ति रख दी. अंत में इतना दरिद्र हो गया कि उसको अपने खाने के लिए भोजन नहीं बचा. यह स्थिति हो गयी कि उसके सारे सेवक उसे छोड़ कर चले गये. एक दो बूढ़े बच गये, जो उसके पास थे.

तब भगवान बुद्ध ने अपने प्रधान शिष्यों को सारिपुत्र और मौद्गल्यायन को कहा कि अब उसका समय आ गया है. ज्ञान प्राप्त होना चाहिए. ऐसे भी धनाढ़्य हो गये हैं. जनक हो गये हैं. पहले ऐसे बड़े-बड़े लोग हो गये हैं. आगे इनसे भी महान लोग हो सकते हैं. क्योंकि हम तो प्रोग्रेस कर रहे हैं ना! ये तो इवोल्यूशन (विकास) है ना. तो जो अनाथपिंडक हैं या जो जनक हैं, ऐसे लोगों से अधिक बड़े लोग भविष्य में आने वाले हैं.

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