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भाईश्री का साक्षात्कार : एकदम नये सिरे से इस दुनिया को खड़ा करना पड़ेगा

हरिवंश राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ पत्रकार दुनिया के स्तर पर कभी लिंकन, गांधी थे. माओ, लेनिन, चर्चिल, आइजनहावर जैसे बड़े व्यक्तित्व दिखते थे. थॉट प्रोसेस में ही कहते हैं कि तीन यहूदी ऐसे हुए, जिन्होंने दुनिया को ही बदल दिया. मार्क्स, फ्रायड और आइंस्टीन. भारत में स्वयं एक दौर था, जब भारत बड़ा गरीब माना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 24, 2017 6:21 AM
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हरिवंश
राज्यसभा सांसद
और वरिष्ठ पत्रकार
दुनिया के स्तर पर कभी लिंकन, गांधी थे. माओ, लेनिन, चर्चिल, आइजनहावर जैसे बड़े व्यक्तित्व दिखते थे. थॉट प्रोसेस में ही कहते हैं कि तीन यहूदी ऐसे हुए, जिन्होंने दुनिया को ही बदल दिया. मार्क्स, फ्रायड और आइंस्टीन. भारत में स्वयं एक दौर था, जब भारत बड़ा गरीब माना जाता था. उसके पास संपदा नहीं थी, निरक्षरता थी. तब सीवी रमण, एससी बोस, चंद्रशेखर जैसे वैज्ञानिक या ऐसी अनेक प्रतिभाएं आयीं. आज पूरी दुनिया संपदा की दृष्टि से, टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट की दृष्टि से, खुद भारत, जहां हम थे, उससे तो कई गुणा प्रगति के साथ आगे आये हैं. फख्र है कि मंगल तक हम अपने यान भेज रहे हैं. पर, वह राजनीति, जो दुनिया को प्रेरित कर सके, कहां है? ये क्यों हुआ?
ऐसा शायद इसलिए हुआ कि ये जो नाम हैं, चाहे वे आइजनहावर हों, आइंस्टीन हों, फ्रायड हों या माओ हों, इन लोगों के जीवन में कांस्टेंटली त्याग नहीं रहा. तपस्या नहीं रही. ये लोग पावर के नजदीक आते गये. आफ्टर ऑल आइंस्टीन को तो एटम बम का अफसोस हुआ. फ्रायड को इस बात का अफसोस हुआ था कि साइकोएनालिसिस का जो काम उन्होंने किया, उसमें कमियां रह गयीं.
हालांकि मरने से पहले वो इस पर काम कर रहे थे. दुर्भाग्यवश उसे पूरा नहीं कर सके. जिन लोगों ने अप्रभावित रहकर सत्ता से, पावर से अपनी आवाज रखी, उनको कुचल दिया. लोगों ने उनको समाप्त कर दिया. ऐसे लोगों से इतिहास भरा पड़ा है. स्वाभाविक है कि चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह या सुखदेव, राजगुरु एक उद्देश्य के लिए, भारत की आजादी के लिए शहीद हो गये. एक दिन होता है कि इनलोगों को हमलोग याद भी कर लेते हैं. लेकिन कितने लोग शहीद होना चाहते हैं आज? नहीं होना चाहते हैं. वह पौध झुलस गयी. वह बीज मर गया. इसका कारण यह है कि स्टीम इंजन के विकास के बाद औद्योगिक क्रांति हुई.
इसने मनुष्य को, इंडस्ट्री के रिसोर्स के रूप में खड़ा कर दिया. इंडस्ट्री चलायेगा कौन, काम कौन करेगा? आदमी धीरे-धीरे इंडस्ट्री का एक पार्ट-पुर्जा बन गया. फिर कंप्यूटर के विकास के बाद 1940 के दशक में मनुष्य कंप्यूटर के विकास के साथ ही, धीरे-धीरे एक ऑपरेटिंग सिस्टम का बंदी हो गया. एक इंटेलीजेंस का कैदी हो गया. आज स्टीफन हॉकिंग कहते हैं- आर्टिफशियल इंटेलीजेंस का काम आगे मत बढ़ाओ. ध्वस्त हो जाओगे. समाप्त हो जाओगे. हम मौलिक रूप से आज कहां खड़े हैं? जो अर्थव्यवस्था, शासन व्यवस्था, समाज व्यवस्था हम अपने चारों तरफ देख रहे हैं, वह इंसानियत नहीं पनपने देती. वह कंड्यूसिव(अनुकूल ) नहीं है. मनुष्य आइसोलेशन(अकेलापन) में नहीं जीता है.
वह समूह में जीता है. उसके लिए एक आबोहवा, एक परिवेश चाहिए. मान लीजिए मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री हुए तो हमको बड़ा अच्छा लगा कि एक टीचर आदमी प्रधानमंत्री हुआ. लेकिन, टीचर का मतलब सत्यनिष्ठा होता है. टीचर का मतलब क्या होता है, जो एक विषय पढ़ाये, वही टीचर है. ऐसा तो हमलोगों ने नहीं समझा. हमलोगों ने समझा कि एक टीचर यानी सत्यनिष्ठा, एक टीचर यानी थोड़ी तपस्या, थोड़ी साधना, विद्यार्थियों से प्रेम व स्नेह रखना, लेकिन एक टीचर के नाक के नीचे भ्रष्टाचार कितना पला? ये उनका दोष नहीं है. दोष है आबोहवा का. यह दोष इन्वायरमेंट का है.
ये जो समाज और परिस्थिति है, इस परिस्थिति में जो चीजें आप चाह रहे हैं कि वो बढ़े, वह ग्रो नहीं करेगी. इसके लिए पूरे खेत को ताम(पलट) देना होगा. दो साल छोड़ देना होगा. जब जमीन की उर्वरा शक्ति घट जाती है, तो खोद कर उसे कुछ दिनों के लिए छोड़ा जाता है परती. फिर उसमें खाद मिला कर साल-दो साल के बाद खेती होती है. तब, उसमें नये बीज होते हैं. आज जो समाज की धरती है, उसमें जो फसल आप चाह रहे हैं, अपने प्रश्न में, तो ऐसे लोग कहां पनपेंगे? धरती सूनी क्यों हो गयी है? इसके लिए क्लाइमेट लाना है. अच्छाई, ईमानदारी, त्याग-तपस्या को एप्रीशियेट (बढ़ावा) तो नहीं किया जा रहा है.
कैसे ऐसे लोग खड़े होंगे? हमारे बाबूजी के पर्सनल फिजिशियन थे, डॉ बीएन सिन्हा. उन्होंने अपने पोते से पूछा, जो उस समय सात-आठ साल का था कि तुम पढ़ कर क्या बनोगे? उसने बिना किसी संकोच के कहा- जूनियर इंजीनियर. वह अवाक हो गये. जूनियर इंजीनियर भी बनना कोई लक्ष्य होता है. बाद में उन्होंने समझा कि उनके मकान के ठीक सामने एक जूनियर इंजीनियर बहुत आलीशान कोठी बना रहा था. रुपये-पैसे का बच्चे के मन के उपर कितना असर पड़ा. जूनियर इंजीनियर बनेंगे, आलीशान मकान बनवायेंगे, मां को रखेंगे. तो जब एक खास परिस्थिति बनती है, तो उसमें उस तरह की चीजें हीं ग्रो (बढती) हैं.
आज की जो परिस्थिति है, उसमें जो लोग पनप रहे हैं, वह आपके सामने है.मैं नाम नहीं लूंगा. लेकिन, जो चीज आप चाहते हैं उसकी परिस्थिति बनानी पड़ेगी. वो बनाने का काम हम कर रहे हैं. हम चुपचाप बैठे नहीं हैं. बच्चों को हम बता रहे हैं कि किस तरह से उनके जीवन में साधना होनी चाहिए. क्यों साधना होनी चाहिए. साधना का मतलब क्या है? आप अपने जीवन के इंपरफेक्शन(कमियों) को कैसे दूर कर सकते हैं? आप अपने जीवन के दोषों को कैसे दूर कर सकते हैं? आप एक अच्छे इंसान कैसे बन सकते हैं? ये बातें, यहां बैठे हम बच्चों से कहते हैं.
Iआपने स्टीफन हॉकिंग का सही उल्लेख किया. आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रति दुनिया को चेता रहे हैं. मनुष्य और मशीन का रिश्ता नाजुक स्थति में है. गांधी ने बहुत तरीके से कहा कि मशीन कैसे मनुष्य के नियंत्रण में रहना चाहिए. अभी एक खबर आयी कि जर्मनी में एक रोबोट ने एक आदमी की हत्या कर दी. आज मशीन मनुष्य को ओवरटेक कर रही है.
उससे भी आगे जायें, फेसबुक, इंटरनेट सोशल मीडिया, कंप्यूटर गेम्स आदि. अभी एक खबर छपी थी कि दिल्ली में दो बच्चे कंप्यूटर गेम्स में इतने मशगूल हुए कि वह खाना-पीना, नेचुरल क्रिया सब भूल गये. घर में दो बार चोरी हो गयी. वो भी छत्तीस घंटे तक नहीं पता चला. उसी खबर में एक किताब का उल्लेख मिला, जिसमें स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि आज जो ये नयी जेनेरेशन है, यह मशीन हो गयी है. जिस स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में आधुनिक टेक्नोलॉजी का जन्म हुआ, आइपैड से लेकर मोबाइल तक, वहीं के यह प्रोफेसर हैं. इन सब चीजों को कैसे देखते हैं?
जिस तरह से हमारा जीवन मेकैनाइज्ड हुआ है, हम स्विच दबाते हैं बत्ती जल जाती है, सुबह से रात तक के जीवन में मशीन का प्रवेश है. कंप्यूटर है, गूगल है, हम इन विरोधाभासों को कैसे करेक्ट करें? आपने कहा कि हम मंगल पर पहुंच रहे हैं, लेकिन हम अपने पड़ोसी के बारे में नहीं जान रहे हैं.
बहुत संकीर्ण हो गये हैं. हमको फिर से इस इक्वेशन को री-एस्टैब्लिश्ड करना होगा. फिर से सोचनाहोगा. थोड़ा-सा मशीन और ज्ञान की जो भूमिका है, उसे घटाना होगा. और थोड़ा-सा हमारा जो अपना कंट्रोल है, उसको बढ़ाना होगा.
हम मशीनों के सामने आत्मसमर्पण कर गये हैं. इसने हमारे दिमाग को मेकैनाइज्ड कर दिया है. जैसा कि आपने उदाहरण दिया कि वीडियो गेम में दो बच्चे इतना मशगूल हो गये कि उनको अपना ही होश-हवास नहीं रहा.
एप्पल के संस्थापक स्टीव जॉब्स वो अपने घर में बच्चों को 21 साल की उम्र तक, आईपैड के इस्तेमाल नहीं करने देते थे. उस आदमी ने एक इंटरव्यू में कहा कि नीम-करोली बाबा ने इस दुनिया को क्या दिया? हमने इस दुनिया को कुछ दिया है. मैं पूछता हूं स्टीव जॉब्स से कि तुम नीम करोली के चरणों की धूल के बराबर नहीं हो, क्योंकि तुम दोहरे मापदंड अपनाये हुए हो. उस चीज को घर में नहीं दे रहे हो, क्योंकि तुम समझते हो कि वह नुकसानदेह है, लेकिन उसी को बेच कर तुम करोड़पति-अरबपति हो गये. दूसरे के बच्चे का नुकसान हो, लेकिन तुम्हारे बच्चे का नुकसान ना हो. यह क्या है?
इसलिए मैं कहता हूं कि एक नये सिरे से हमें देखना होगा कि मशीन को जीवन में कहां तक इजाजत है? ये कंप्यूटर, टीवी हमारे जीवन में हमला है. विजुअल मीडिया ने त्रस्त कर रखा है. गंदी भाषाओं का इस्तेमाल किया जाता है. हमने अपनी कानों से वह क्लिप सुना. अपने फोन में ‘टाइम्स नाउ’ का वह क्लिप देखा. होम मिनिस्ट्री के अफसर मिस्टर पिल्लई वगैरह थे. इशरत जहां के कंटेक्स्ट में बहस थी. उसमें एक साहब कह रहे हैं कि एक अफसर से पूछताछ में रेक्टम में लोहे का रड घुसा दिया गया. अर्नब गोस्वामी साहब नाराज हो गये कि किस तरह की भाषा का इस्तेमाल हो रहा है? अरे साहब, आप तो इस तरह की भाषा को इनवाइट (निमंत्रित) कर रहे हैं.
घर-घर में वह टीवी पर सुनाई पड़ रहा होगा. लोग देख रहे होंगे. ये मनुष्य जरा चेते. जरा सावधान हो. कैसा मान्स्टर (राक्षस) हमने क्रिऐट(जन्म) कर दिया है, जो हमको खा रहा है. ये भस्मासुर है. ये शिव का आशीर्वाद प्राप्त कर शिव को ही जलाने चला है. शिव भाग रहे हैं. इसलिए हमें निश्चित रूप से बैठना होगा, पुनर्मूल्यांकन करना होगा, पूछना होगा कि हमारा रिश्ता मशीन के साथ यानी टीवी, कंप्यूटर आदि के साथ कैसा हो. जो भी सत्य है, शिव है, सुंदर है, वह समाप्त कर दिया है.
कुछ नहीं बचा है. भगवान ने कहा था- अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते, लेकिन अब एलआइसी वाले कहते हैं- योगक्षेमं वहाम्यहम. भगवान के कहने का अर्थ था कि अगर तुम मुझे अनन्य भाव से भजोगे, उपासना करोगे, तो मैं तुम्हारा योगक्षेम देखूंगा. तुम्हारी सांसारिक क्षेम-कुशलता और तुम्हारा योग भी देखूंगा. अब एलआईसी वाले यह जिम्मा ले लेते हैं. हम इस परिस्थिति में ऐसे नहीं पहुंचे हैं. सैकड़ों वर्षो से धीरे-धीरे गिरते-गिरते आज यहां पहुंचे हैं. पूरी बात को समेटते हुए हम इस तरह कहेंगे. हमें आधुनिकतम तरीके से, एकदम नये सिरे से इस दुनिया को खड़ा करना पड़ेगा.
कल आप टीएस इलियट की कविता जूली के बारे में कह रहे थे. देश में ऐसी और अन्य कौन-सी चीजें हैं, जो मनुष्य को अंधेरे में प्रेरित करती हैं ?
भारतवर्ष का जहां तक संदर्भ है, उसे दुनिया ने भी सराहा है. संगठन से मुक्त कर देखिए, तो मुझे रमण महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, विनोबा, ये लोग ऐसे महापुरुष लगते हैं, जिनका अभी तक सही-सही मूल्याकंन नहीं हुआ है. रमण महर्षि विश्वगुरु हैं. धर्म, जाति, राष्ट्रीयता से अलग उन्होंने जो साधना की पद्धति है, कोई भी उस साधना पद्धति को अपना सकता है.
अच्छा इंसान बन सकता है. या रामकृष्ण परमहंस ने जो दृष्टि दी है, उस दृष्टि पर चल के, रामकृष्ण मिशन वालों की संगठन से हम मुक्त होकर बात कर रहे हैं, या विनोबा ने जो बातें कहीं हैं, खासकर के कर्मक्षेत्र में, समाज सेवा के क्षेत्र में, जो बातें कहीं हैं, उनका अभी तक सही-सही मूल्यांकन नहीं हुआ है. जैसे मेरे पिता जी. मेरे बाबूजी के बारे में तो कोई जानता ही नहीं है, उन्होंने खुद के जीवन को पोछ ही दिया. एक साधु को ऐसा करना चाहिए. मुझे मना कर दिया कि मैं उनकी चर्चा ना करूं. मैं यह परिचय भी ना दूं कि मैं उनका पुत्र हूं. कहा कि अपना परिचय अपने गुरु से देना, किसके बेटे हो, इससे परिचय नहीं देना. पता नहीं उनको कैसी आंशका थी, क्यों ऐसा कहा? नहीं जानते. लेकिन हम समझते हैं कि ऐसे बहुत सारे लोग हैं. मेरे पिताजी त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति थे.
उनसे एक आदमी ने यह पूछा? उन्होंने यही कहा कि कब त्याग हो गया, मैंने समझा ही नहीं. यह सहज ही त्याग हो गया. उनका खून सोशलिज्म था, मार्क्सवाद था. इसलिए ऐसे लोग इस धरती पर थे, हो गये, उन्होंने काम किया, देश के लिए, देश के लोगों के लिए, दुनिया के लिए, समाज के लिए काम किया. इसकी परवाह नहीं की कि उनको सराहा नहीं गया, उनको मान-सम्मान नहीं दिया गया. इस बात की थोड़ी भी परवाह नहीं की. एकदम एकनिष्ठ होकर सेवा करते रहे. लेकिन, अभी तक उनका एसेसमेंट नहीं हुआ है. बाबूजी ने एक बार एक मीटिंग में कहा कि यह देश न तो जवाहरलाल को याद रखेगा, न ही जयप्रकाश को याद रखेगा. एक दिन फिर से गांधी को सुनने बैठेगा. क्योंकि गांधी अभी भी एक्शन में नहीं उतरा है. अभी भी रेलिवेंट नहीं हुआ है. तुमने एक प्रश्न में कहा कि गांधी मशीन के खिलाफ थे. नहीं, गांधी मशीन के खिलाफ नहीं थे.
गांधी, मशीन पर आदमी को देखना चाहते थे. आदमी पर मशीन को नहीं देखना चाहते थे. इसलिए बाबूजी ने कहा विज्ञानारूढ़ अध्यात्म. एक विज्ञान, जिसके माथे पर अध्यात्म बैठा हो, वह इस संसार का उपाय है. वह रास्ता इसका उपाय है. टीएस इलियट गीता से काफी प्रभावित थे. टीएस इलियट ने उपनिषद् पढ़ा था. उससे बहुत प्रभावित थे. दयध्वम नामक प्रसिद्ध कहानी है, जिसमें देवता, मनुष्य और राक्षस तीनों ब्रह्मा के पास जाते हैं. तीनों को ब्रह्मा दयध्वम बोलते हैं. तीनों दयध्वम का अर्थ अपने अनुसार लगाते हैं. देवता सोचते हैं कि हम बड़े भोगी हैं, इसलिए ब्रह्मा दमन करने के लिए बोल रहे हैं.
उन्होंने इसका अर्थ दमन लगाया़, राक्षस सोचते हैं कि हम बड़े हिंसक हैं, इसलिए ब्रह्मा हमसे दया करने के लिए कह रहे हैं. तो दयध्वम का अर्थ उन्होंने दया लगाया. मनुष्य ने सोचा कि हम बड़े लोभी है, संग्रही हैं, हमें ब्रह्मा दान करने के लिए कह रहे हैं. तो इस दयध्वम का तीनों ने अपने-अपने ढ़ग से तीन अर्थ लगाया. इस कहानी से टीएस इलियट बहुत प्रभावित थे कि किस तरह एक शब्द, बोलने वाला एक ही शब्द बोल रहा है लेकिन श्रोता के अंतर में तीन शब्द पड़ रहा है. तीन श्रोता, तीन अर्थ. टीएस इलियट काफी बुद्धिमान थे. उनको सराहना भी मिली. वो हार्वड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भी रहे, नोबेल से सम्मानित भी किये गये. जीवन बड़ा कष्टप्रद रहा. महापुरुष के जीवन में कष्ट रहा है.
रवींद्रनाथ के जीवन में कष्ट रहा. परिवार के कई सदस्यों का निधन हो गया. जितने भी खासकर सृजन के क्षेत्र में विशिष्ट लोग हुए,उनके जीवन में बड़ा कष्ट रहा है.
आपने उपनिषदों और वेदों की चर्चा की. उपनिषद और वेद के कौन रचयिता रहे हैं, कोई नहीं जानता, पर ज्ञान के बारे में कहते हैं, आध्यात्मिक ज्ञान उससे आगे नहीं बढ़ पाया . जैसे नचिकेता यम से जो सवाल करता है, वह काल अभी प्रासंगिक है. आज की रचनाएं वह भाव पैदा करती हैं ?
इसका बहुत साधारण कारण है. किताबें बहुत हैं, लेकिन ज्ञान नहीं है. हम ज्ञान शब्द का अर्थ यह लगाते हैं जो आपके अनुभव में उतर जाये. पहले किताबें नहीं थी, लेकिन ज्ञान था. आज भी गांव में ऐसे लोग मिल जायेंगे, जिन्होंने किताबें न पढ़ी हो, लेकिन उनके पास बहुत कुछ बैठ कर सीख सकते हैं.
विनोबा जी ने एक अच्छी बात कही थी कि यदि आप किसी से मिलने जायें और उसके कमरे में बहुत-सी दवा की बोतलें देखें, तो आप क्या समझेंगे? उस कमरे में रहने वाला व्यक्ति बीमार रहता है. आप किसी ऐसे ‍व्यक्ति के पास जायें, जिसके कमरे में बहुत सारी किताबें दिखें, तो आप यही निष्कर्ष निकालेंगे कि इस कमरे में रहनेवाला व्यक्ति ज्ञानवान है? पर, किताबें ज्ञान नहीं देती, किताबें जानकारी देती हैं. एक इंडिकेशन देती हैं.
इंफॉर्म करती हैं. इनलाइटेन नहीं कर सकतीं. आप एक शहर में जा रहे हैं. आप उस व्यक्ति के बारे में, एक आदमी से पूछते हैं, जिनके घर आपको जाना है. रास्ते में जा रहा व्यक्ति यह बताता है कि ऐसे जायें, इस जगह उनका घर है. रास्ता बताने वाले व्यक्ति को छोड़ कर आप आगे बढ़ जाते हैं. उसे पकड़ कर नहीं लाते. इसी तरह किताबें आपको इशारा देती हैं. आपको जानकारी देती हैं, आप इधर जायें. इसलिए थोरो ने वाल्डन में कहा कि मैं एक ऐसे आदमी से मिलूंगा, जो शब्दों को भूल चुका हो, अर्थ को रख चुका हो. मैं अपनी आपबीती सुनाता हूं. मैं छत्तीस वर्षों (1959) के बाद 1995 में कोलकाता गुरु महाराज के पास गया. कोलकाता बदल चुका था. एक दिन लाउडस्पीकर से आवाज आ रही थी. मैंने अपने मित्र से पूछा कि यह क्या है?
उसने कहा कि आज प्रवचन है. उसने वाइसप्रेसिडेंट महाराज का नाम लिया कि वो रामकृष्ण वचनामृत पर आज प्रवचन देंगे. यह बहुत साधारण-सी किताब है. उस पर प्रवचन या व्याख्या क्या होगी. अपने अंहकार की संतुष्टि के लिए लोग किताबें लिखते हैं. अपना नाम-यश फैलाने के लिए किताबें लिखते हैं. किताबों का कोई प्रयोजन नहीं है. जिस तरह हमने कहा कि मशीन और कंप्यूटर हम पर हावी है, किताब भी हमारे ऊपर हावी हैं.
हमारी पुरानी मान्यता है कि अच्छाई या सुगंध स्वत: फैलते हैं. उन्हें प्रचार-प्रसार की जरूरत नहीं पड़ती. महात्मा गांधी का मूल मंत्र था- आपका काम बोले, आप नहीं. जेपी ने इसे बिहार आंदोलन मंंे बताया. अध्यात्म में इस मान्यता के अनेक उदाहरण हैं.मसलन महर्षि रमण, मामूली, अज्ञात जगह चुपचाप अपनी साधना में एकलीन रहे. कोई आज जैसा प्रचार-प्रसार नहीं. पर, दुनिया के कोने-कोने से विशिष्ट लोग अाये, ऑसवर्न, पॉल ब्रंटन वगैरह. क्योंकि उनकी निष्ठा-तप में सात्विक गंध, ताप और ताकत थी. आप इसी रास्ते पर चलते दिखते हैं. क्या कहेंगे?
हां, बात सही है. उस सुगंध की कमी का कारण है, तपस्या का अभाव. यह रचनावृति जिनके पास है, वो भी भोगी हो गये हैं. आज के बड़े-बड़े लेखकों को देखो, कितने ऐशोआराम में रहते हैं. कितनी आरामदेह जीवनशैली है उनकी. रचनाधर्मिता तपस्या खोजती है. कष्ट खोजती है. थोड़ा अभाव खोजती है. अभाव का जीवन में बड़ी भूमिका है.
इच्छाएं सारी पूरी नहीं होनी चाहिए. रवींद्रनाथ की एक कविता है कि हे भगवान, तुमने मेरी बहुत सारी इच्छाएं पूरी की. मैं शुक्रगुजार हूं तुम्हारा कि तुमने मेरी सारी इच्छाएं पूरी नहीं की. मैं शुक्रगुजार हूं कि मुझे थोड़ा अभाव में रखा. आप समझें कि उनके स्तर का आदमी नाच कर, नाटक कर, गाना गा कर भिक्षा मांग रहा है कि विश्वभारती स्थापित करना है. बहुत कम लोग उनकी कठिनाई को जानते हैं, जिनसे वो गुजरे. गांधी को शर्म महसूस हुई. कष्ट हुआ, रोने लगे. उन्होंने पूछा कि आपको कितने पैसों की जरूरत है. मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि यह काम आप ना कीजिए. और, घनश्याम दास जी को उन्होंने कहा. उन्होंने रुपये वहां पहुंचाये. यह रचनाधर्मिता या ये जो क्रियेटिविटी है, वह थोड़ा अभाव खोजता है. वो थोड़ा कष्ट खोजती है.
अंतिम जिज्ञासा थी. आज मौत को समझने की विश्व में नये सिरे से जरूरत महसूस की जा रही है. नियर डेथ एक्सपियरेंस या ऐसे बहुत सारे साहित्य या अनुभव लिखे जा रहे हैं?
वही इंसान सुखी है, जो मृत्यु से प्यार करता है, उसे विलेन के रूप में नहीं देखता. हम हर क्षण मरते हैं. हर क्षण जीवित होते हैं. ये जो मेरा ‘मैं’ है, वो हर क्षण डूबता है, हर क्षण पैदा होता है. विज्ञान का ध्यान इस पर गया है. करीब पिछले पंद्रह वर्षो में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, हार्वर्ड विश्वविद्यालय, मांट्रियल विश्वविद्यालय के बहुत सारे लोगों ने मांइड एंड मैटर डिपार्टमेंट खोला है. धर्मशाला में, तिब्बत में, कई जगहों पर उन्होंने रिसर्च सेंटर बनाया है. वह चेतना को समझने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि मैटर में अब समझने की बहुत जगह नहीं रह गयी है.
मैटर के अंत तक गॉड पार्टिकल तक लोग पहुंच चुके हैं. जब चेतना को समझने की कोशिश कर रहे हैं, तब इतनी बात तय है कि एक न एक दिन विज्ञान यह समझ जायेगा कि मृत्यु इस शरीर की होती है, चेतना की नहीं. हम मृत्यु के पार जाते हैं. इसलिए यह बात एक सही दिशा में एक प्रयत्न है, जो मृत्यु को समझने की कोशिश कर रही है.
यह समझदारी अगर आ जाये कि शरीर मरता है, मैं नहीं मरता, तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. इस शरीर को तृप्त करने की जो आग हमारे भीतर लगी है, वह शायद थोड़ा शांत हो जाये. इस शरीर को इतना सजाने की जो एक इच्छा हमारी होती है, वह शायद थोड़ा शांत हो जाये. मृत्यु को समझने की कोशिश होनी चाहिए.
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