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भावी राजनीति के सूत्र

-हरिवंश- (राज्यसभा सांसद, जदयू) नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ा या छोड़ने के लिए मजबूर कर दिये गये? इस राजनीतिक पहेली पर बहस, आकलन और समीक्षा का दौर चल रहा है. दरअसल, स्वभाव से नीतीश कुमार अंतर्मुखी हैं, चौतरफा प्रहार के बीच भी उनका धीरज, धैर्य और संयम दूसरों के लिए सीखने की चीज है. उनकी […]

-हरिवंश-
(राज्यसभा सांसद, जदयू)
नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ा या छोड़ने के लिए मजबूर कर दिये गये? इस राजनीतिक पहेली पर बहस, आकलन और समीक्षा का दौर चल रहा है. दरअसल, स्वभाव से नीतीश कुमार अंतर्मुखी हैं, चौतरफा प्रहार के बीच भी उनका धीरज, धैर्य और संयम दूसरों के लिए सीखने की चीज है. उनकी राजनीति और सरोकार में बिहार के प्रति एक भावात्मक लगाव है. पहले भी मौका मिला तो उन्होंने केंद्र में राजनीति की कीमत पर भी बिहार को प्राथमिकता दी. बिहार का प्रश्न उनके लिए ‘पैशन’ है. बिहार के न्याय के साथ विकास और गवर्नेंस उनकी प्राथमिकता और भावात्मक प्रतिबद्धता है, तो कानून-व्यवस्था का सवाल समझौता न करने की चीज. बिहार के विकास का उनके पास एक पुख्ता और जमीनी विजन है.
बिहार के प्रसंग में कुछ वर्षों पहले रामचंद्र गुहा ने कहा था कि नीतीश कुमार और सुशील मोदी की टीम का बिखर जाना बिहार का सबसे बड़ा नुकसान है, क्योंकि नीतीश कुमार के नेतृत्व में पहली बार बिहार ने उल्लेखनीय प्रगति की थी. नीतीश कुमार प्रशासन और गवर्नेंस की अंदरुनी बात पर कतई किसी से चर्चा नहीं करते. स्टेट पावर, कानून और संविधान के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और आदर उनके मन में है.
वर्षों पहले दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार, जो नीतीश जी को नजदीक से जानते थे, ने बताया था कि वाजपेयी जी के कैबिनेट के एक महत्वपूर्ण फैसले के बारे में उन्हें एक केंद्रीय मंत्री ने सूचना दे दी थी. उन वरिष्ठ पत्रकार ने पुष्टि के लिए नीतीश जी को फोन किया. उन्हें भरोसा था कि वह नीतीश जी को वर्षों से जानते हैं, आत्मीय हैं, इसलिए नीतीश जी केंद्रीय मंत्रिमंडल की इस महत्वपूर्ण खबर की पुष्टि कर देंगे. नीतीश जी ने बड़ी विनम्रता और सहजता से कहा कि संविधान की शपथ होती है, मैं कैसे अंदर की बात बता सकता हूं? इस प्रसंग को वह वरिष्ठ पत्रकार आज भी आदर के साथ याद करते हैं और कहते हैं कि संविधान और कानून के प्रति ऐसी सात्विक प्रतिबद्धता रेयर (दुर्लभ) हो गयी है.
इसी तरह पिछले 20 महीनों में हो रही अंदरुनी परेशानियों का नीतीश कुमार ने न तो कभी पार्टी फोरम में उल्लेख किया, न ही सार्वजनिक चरचा की. लेकिन, दल में ऐसी सूचनाएं आ रही थीं कि कैसे सिपाही को फेवर करने के लिए आइजी को फोन जाता है, ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए क्या कुछ हो रहा है, बेहतर और कुशल प्रशासन के रास्ते में क्या नयी-नयी अड़चनें पैदा हो रही हैं.
महागठबंधन धर्म के तहत उन्होंने एक सीमा तक इन चीजों को सहन किया, पूरी कोशिश की कि चीजें पटरी पर लौटें और बिहार के शासन व विकास की धमक पुन: देश-दुनिया में हो. पर उन्हें अंदरुनी सूचना जरूर रही होगी कि गवर्नेंस और कानून-व्यवस्था के मोरचे पर कैसी और क्या चीजें हो रही हैं.
दरअसल, जो उन्हें नजदीक से जानते हैं, उन्हें पता था कि वह तुरत रियेक्ट नहीं करते, पर इन चीजों पर एक सीमा के बाद समझौता भी नहीं करेंगे. कम लोगों को मालूम है कि रेलमंत्री के रूप में वाजपेयी सरकार से उन्होंने सात बार इस्तीफे दिये थे. रेल महकमे में जब भी कुछ गलत होता, वह नैतिक जिम्मेवारी खुद पर लेते और इस्तीफा दे देते. पर उनके कामकाज और ईमानदारी से प्रभावित वाजपेयी जी किसी कीमत पर उन्हें मुक्त न करने की बात कह कर इस्तीफे अस्वीकार कर देते. ऐसा है नीतीश कुमार का मिजाज.
इस बीच बिहार में सीबीआइ-आयकर के छापे, इडी के प्रसंग सामने आये. यह लोकधारणा तेजी से फैली कि बिहार सरकार में शामिल कुछ लोगों को राजसत्ता से अघोषित अपेक्षा है कि वह बेनामी संपत्ति प्रकरण में संरक्षण दे, बचाव करे. लेकिन, मीडिया में यह बात आ गयी है कि नीतीश जी ने सीबीआइ-आयकर छापों के बाद यह साफ कर दिया था कि इन आरोपों के प्रामाणिक उत्तर दिये जाने चाहिए. छापों के बाद उन्हें अपेक्षा थी कि उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव अपने ऊपर लगे आरोपों के उत्तर में खुद पहल कर इस्तीफा दें.
यह श्री यादव के हित में होता, उनका राजनीतिक कद बढ़ता. नीतीश जी ने दिल्ली जाकर राहुल गांधी से मुलाकात की और उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने किस वक्त (जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अमेरिका में थे) और किन सवालों पर ऑर्डिनेंस फाड़ा था? यह प्रश्न और इसका स्मरण कराना ही पर्याप्त था कि चीजें किस दिशा में जा रही हैं. कांग्रेस के समझदार कद्दावर नेताओं का एक समूह यह अपेक्षा कर रहा था और विश्वास के साथ कह भी रहा था कि राहुल गांधी इस प्रसंग में कदम उठायेंगे, लेकिन कांग्रेस ने कोई पहल नहीं की. अंतत: बिहार के विकास के प्रति समर्पण और नीतीश कुमार की साफ-सुथरी छवि का सवाल सामने था.
नीतीश कुमार ने इस्तीफा देने से पहले भी कांग्रेस के प्रभारी सीपी जोशी और लालू प्रसाद को फोन किया. दोनों को अपनी स्थिति स्पष्ट की, अपने मन का द्वंद्व बताया. वह यह पहली बार नहीं कर रहे थे. नोटबंदी के समर्थन और बिहार के राज्यपाल को राष्ट्रपति पद के रूप में अपने समर्थन के बारे में भी कांग्रेस और राजद के वरिष्ठ लोगों को खुद अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी. महागठबंधन में कहीं किसी किस्म की संवादहीनता न रहे, इसका वह एक-एक कदम पर ध्यान रखते थे. इन सबके बीच उनकी बुनियादी राजनीति, न्याय के साथ विकास, की जड़ें बिहार में मजबूती से पसरे और फैले, का सवाल भी था.
नीतीश कुमार के निर्णय के पीछे कांग्रेस के टॉप लोगों का अनिर्णय और राजद द्वारा अपेक्षित भूमिका न निभाना (जनता के बीच जाकर आरोपों के बिंदुवार जवाब न देना) उत्प्रेरक रहे, पर अहम कारण बिहार के विकास के प्रति उनका निजी लगाव रहा है.
27 जुलाई को शपथ ग्रहण के बाद उन्होंने कहा भी कि मेरा निर्णय बिहार के हित में और इसके विकास के लिए है. पर इस निर्णय के पीछे शायद एक और बड़ा कारण रहा. दिल्ली में, इस वर्ष के आरंभ में राजद के शीर्ष नेता दो केंद्रीय मंत्री से मिल कर नीतीश सरकार को अपदस्थ करना चाहते थे, ताकि उनके नेताओं के खिलाफ चल रहे मामलों में रियायत-मदद हो सके. यह खबर दिल्ली के बड़े व प्रतिष्ठित अखबारों में छपी. उन दो केंद्रीय नेताओं से हुई बातचीत का ब्योरा बाहर आ गया. टाइम्स ऑफ इंडिया (दिल्ली, 27 जुलाई) में छपी खबर के अनुसार, नीतीश कुमार ने इसकी पुष्टि करायी तो खबर सही निकली. इन गुजरे 20 महीनों में राजद के बड़े नेता व्यक्तिगत तौर पर नीतीश कुमार के खिलाफ टीका-टिप्पणी करते रहे.
ये चीजें निश्चित रूप से उन्हें असहज बनाती होंगी. आम तौर पर इन चीजों को सार्वजनिक न करने, शेयर न करनेवाले नीतीश कुमार को लगा होगा कि न वह बिहार का मनमाफिक विकास कर पा रहे हैं, न जिस साफ-सुथरी राजनीति के वे पक्षधर हैं उस राजनीति को ताकत मिल रही है. उनकी सरकार गिराने की कोशिशें अलग हो रही हैं. गठबंधन के शीर्ष नेता उन पर प्रहार भी कर रहे थे. संयम और धैर्य की सीमा होती है. पार्टी कार्यकर्ताओं का भी दबाव रहा कि सरकार रहेगी, तभी बिहार का विकास होगा.
1977 में जनता पार्टी बनी. फिर विचारों में टकराव हुआ. सब अलग-अलग हुए. लोकदल बना. बीजू जनता दल बना. जनता दल बना. समाजवादी जनता पार्टी बनी.
बहुगुणा जी ने अलग रास्ता अपनाया. और भाजपा भी अलग हो गयी. उसी तरह साफ हो गया था कि महागठबंधन एक सकारात्मक राजनीति की भूमिका में नहीं है. इसलिए पॉजीटिव ढंग से सोचनेवाले नीतीश कुमार के लिए इसमें रहना नामुमकिन हो गया. हाल में उन्होंने कहा भी था कि देश में अगर विकल्प बनाना है, तो ‘रियेक्टिव’ होने से नहीं होगा. 90 प्रतिशत खुद के एजेंडे पर चलना होगा. वह बार-बार नीतियों और वैकल्पिक नीतियों की बात करते रहे.उन्हें कोई भ्रम नहीं था कि उन्हें कोई प्रधानमंत्री बना रहा है.
पार्टी मीटिंग में वह दर्जनों बार कह चुके थे कि उन्हें पता है कि उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनना है और न कोई बनानेवाला है. इन चीजों पर उनकी राय शुरू से स्पष्ट रही है. वह भ्रम में नहीं जीते. उन्हें चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल का प्रसंग अच्छी तरह पता है. वह अत्यंत समझदार और व्यावहारिक राजनीतिज्ञ हैं. अंतत: बिहार के प्रति उनका समर्पण निर्णायक साबित हुआ.
याद रखें, नीतीश कुमार क्षेत्रीय दल के अकेले ऐसे नेता या मुख्यमंत्री हैं, जिनकी राष्ट्रीय छवि है, बेदाग. इस छवि की पूंजी और ताकत बड़ी है. देशव्यापी है. यह भाजपा अच्छी तरह जान रही है. उधर, केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साफ-सुथरी और ईमानदार छवि है. शायद कई दशकों बाद ऐसा हुआ है कि देश के सत्ता गलियारों और दिल्ली के पांच सितारा होटलों में अब दलालों का बोलबाला नहीं रहा.
यह असाधारण उपलब्धि है. भारत की राजनीति में एक और बड़ी घटना हो चुकी है, जिसे समाजशास्त्री और विश्लेषक नहीं आंक या समझ पा रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा एक नयी भाजपा है. भाजपा के सोशल प्रोफाइल के बारे में पहले कहा जाता था कि वह बनियों-ब्राह्मणों-अगड़ों की पार्टी है, पर भाजपा का वह प्रोफाइल बिल्कुल पलट गया है. नरेंद्र मोदी का यह साहसिक और बड़ा दांव है. अब भाजपा में दलित-पिछड़े-गरीब निर्णायक स्थिति में हैं. केंद्र सरकार आधार जैसे कार्यक्रमों से सीधे जरूरतमंद लोगों को पैसे दे रही है. बिचौलियों का खत्म होना बड़ी बात है. नीतीश कुमार शुरू से इसके पक्षधर रहे हैं. अब भाजपा भी न्याय के साथ विकास के रास्ते पर है.
राजनीति में कोई अनहोनी न हुई तो भविष्य का बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार बनाम सुशासन बननेवाला है. हालात उधर ही जा रहे हैं. देश क्रिटिकल स्थिति में है. पिछले एक महीने से लगातार चीन-पाकिस्तान का समीकरण बड़ी चुनौती है.
1962 के बाद पहली बार भारत चीन के सामने खड़ा है. यह साफ दिख रहा है कि ताकतवर होता भारत चीन को पसंद नहीं है. फिर भी भारत अड़ा-खड़ा है, चीन के सामने. चीन ने पिछले 20-25 वर्षों में भारत की चौतरफा घेराबंदी कर ली है- म्यांमार में बंदरगाह, बांग्लादेश में चीनी बंदरगाह, श्रीलंका के हंबनतोता में चीनी अड्डा, पाकिस्तान के ग्वादर में चीनी जमावड़ा और अफ्रीका के जिबूती में चीनी नौसैनिकों की मौजूदगी. इधर पाकिस्तान से लेकर अरुणाचल तक चीन की चौकसी और ताकत की हुंकार भारत देख रहा है.
भारत का मानस बेचैन है कि हमारे आत्मस्वाभिमान पर यह बार-बार चोट क्यों? इस पृष्ठभूमि में भारत की राजनीति में आत्मनिरीक्षण का दौर शुरू होगा. राजनीतिक भ्रष्टाचार ने कैसे घुन की तरह भारत को खोखला कर दिया है, यह सवाल अब सरकारी फाइलों में दबा नहीं रहनेवाला है. देश की कीमत पर किन-किन राजनेताओं ने निजी जागीरदारी खड़ी की, देश को खोखला किया, यह सवाल सार्वजनिक बहस के केंद्र में होगा. खबर आयी है (टाइम्स ऑफ इंडिया, दिल्ली, 27 जुलाई) कि संसद की लोक लेखा समिति, जिसके नेता बीजू जनता दल के भतृहरि मेहताब हैं, ने सीबीआइ से पूछा है कि क्या बोफोर्स प्रकरण की पुन: जांच हो सकती है? उल्लेखनीय है कि स्वीडन के मुख्य जांच अधिकारी ने इसमें कुछ महत्वपूर्ण और निर्णायक बयान दिये हैं.
ऑगस्टा वेस्टलैंड समेत अनेक रक्षा सौदे हैं, जिन्होंने भारत को कमजोर बनाया, पीछे रखा. चीन की धमकी के संदर्भ में ये सवाल पुन: लोकमानस में उठेंगे और राजनीति में निर्णायक बननेवाले हैं. इस तरह देश के अनेक बड़े राजनीतिक भ्रष्टाचार के प्रकरण आनेवाले दिनों में बड़े सवाल बन कर राजनीति में लौटनेवाले हैं.
खुद नीतीश कुमार की राजनीति भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग की रही है. आइएएस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई का कानून हो या भ्रष्टाचार नियंत्रण के अन्य अनेक ऐसे कानून, जो बिहार ने बनाये, नीतीश कुमार की राजनीतिक प्रतिबद्धता बताते हैं.
इस तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग में नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की खुद की छवि देश स्तर पर निर्णायक बननेवाली है. भारत की नयी राजनीति की धुरी भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग की होगी, जिसके चेहरे नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार होंगे. भ्रष्टाचार और परिवारवाद इस देश के लिए बड़ा संवेदनशील मुद्दा है. जवाहरलाल जी ने कामना की थी कि भ्रष्टाचारी चौराहे पर फांसी पर लटकाये जाएंगे, लेकिन भ्रष्टाचार बढ़ता रहा, अबाध रूप से.
गुजरात आंदोलन और बिहार आंदोलन ने भ्रष्टाचार के ताबूत में कील ठोकने की बड़ी कोशिश की, पर निर्णायक कामयाबी नहीं मिली. अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे को पकड़ लिया है. ऐसे में यह मुद्दा निर्णायक रूप लेता दिख रहा है. ऐसे हालात बने तो भारत की राजनीति में एक नये अध्याय की शुरुआत होगी. (बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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