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पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद, शरीफ के राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिह्न

पनामा पेपर्स मामले में पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित संयुक्त जांच दल की रिपोर्ट के आधार पर नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री या अन्य किसी ऐसे महत्वपूर्ण पद के लिए अयोग्य ठहराया गया है. अब इस मामले की त्वरित सुनवाई की प्रक्रिया शुरू होगी. एक तरफ इस फैसले को भ्रष्टाचार के विरुद्ध अहम कार्रवाई माना जा […]

पनामा पेपर्स मामले में पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित संयुक्त जांच दल की रिपोर्ट के आधार पर नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री या अन्य किसी ऐसे महत्वपूर्ण पद के लिए अयोग्य ठहराया गया है. अब इस मामले की त्वरित सुनवाई की प्रक्रिया शुरू होगी. एक तरफ इस फैसले को भ्रष्टाचार के विरुद्ध अहम कार्रवाई माना जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था को अस्थिर करने का प्रयास भी कहा जा रहा है. वर्ष 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के बाद से आज तक कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका है. नवाज शरीफ और उनके परिवार के राजनीतिक भविष्य को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है, वहीं पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता की आशंकाएं भी जतायी जा रही हैं. इस प्रकरण पर व्यापक विमर्श के साथ प्रस्तुत है संडे-इश्यू…

कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के बीच शक्ति-संघर्ष

पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नवाज शरीफ को पनामागेट घोटाले में दोषी पाये जाने के बाद वहां की राजनीति में एक बार फिर भूचाल सा आ गया है. जो कुछ सवाल इस वक्त सुर्खियों में हैं, वे भारत के लिए भी खासी अहमियत रखते हैं. पहली बात हमारी सामरिक सुरक्षा से जुड़ी है. क्या अब ‘निर्वाचित’ गैरफौजी नेता का ‘अंकुश’ न रहने से पाकिस्तान की फौज अौर खुफिया संगठनों को मनमानी करने की छूट मिल जायेगी?

मोदी के शपथ ग्रहण करने के मौके से ही यह भरम भारत में पाला जाता रहा है कि नवाज शरीफ का रुख भारत के प्रति अपने किसी पूर्ववर्ती के बनिस्बत अधिक नरम, दोस्ताना है. मोदी की विदेश यात्रा से लौटते अप्रत्याशित नाटकीय पाकिस्तान यात्रा ने इस गलतफहमी को बढ़ा दिया. ऐसा उन्होंने नवाज शरीफ के पारिवारिक जलसे की खुशी में शिरकत के लिए किया. परस्पर विश्वास बढ़ानेवाले इस कदम का श्रेय भारतीय प्रधानमंत्री को दिया जाना चाहिए, हालांकि पड़ोसी के साथ हर हालत में संवाद जारी रखने की वकालत करनेवाली कांग्रेस ने तब इस अनावश्यक ‘नरमी’ की आलोचना ही की. बहरहाल, पाकिस्तानी फौज के साथ शरीफ के रिश्ते हमेशा तनावग्रस्त रहे हैं. जनरल मुशर्रफ के साथ मुठभेड़ अौर फिर तख्तापलट तथा देश-निकाले की दास्तान यहां दोहराने की जरूरत नहीं. तब भी अोसामा बिन लादेन के सफाये के वक्त अमेरिका के साथ उनका पत्राचार, जिसमें ‘लाचार’ खुदगर्ज फौज की नाजायज महत्वाकांक्षा अौर दबाव से बचाने की शरीफ की याचना ने फौज के साथ उनके रिश्तों को अौर भी खराब कर दिया था.

यहां यह रेखांकित करना परमावश्यक है कि पाकिस्तान में जनता द्वारा निर्वाचित कोई भी सरकार तभी तक काम कर सकती है, जब तक वहां की फौज किसी मनपसंद जमूरे को जनतंत्र का मुखौटा पहना खुद परदे के पीछे से शासन करती है. शरीफ हों या बेनजीर, वर्दी उतार चुनाव लड़नेवाले मुशर्रफ हों या फिर शरीफ यह बात लगातार देखने को मिलती रही है. यह सोचने का कोई कारण नहीं कि ऐसा कोई व्यक्ति फौजियों पर कभी ‘अंकुश’ लगा सकता है. यह काम कभी अमेरिकी कर सकते थे, आज वह भी नाकामयाब नजर आते हैं. शरीफ की छवि शुरू से ही भ्रष्ट नेता की रही है. यह सच है वह पुश्तैनी अमीर हैं, पर राजनीति में उनकी शोहरत बेनजीर के पति सरीखी ही है. पनामागेट वाली सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा दायर करने के आदेश दिये हैं, बल्कि यह टिप्पणी भी की है कि ‘मियां शरीफ बेईमान इंसान हैं’ किसी संवैधानिक पद के अयोग्य तथा देश के स्वाभिमान के लिए नुकसानदेह हैं.

हमारी समझ में यही टिप्पणी समकालीन भारतीय राजनीति के संदर्भ में सबसे पहले विचारणीय है. हमारे यहां ऐसे नेताअों का अभाव नहीं, जो भ्रष्टाचार के आरोप में दोषी करार दिये जाने के बावजूद चुनावी राजनीति में बरसों से सक्रिय हैं. कोई जमानत पर जेल से बाहर है, तो कोई आखिरी अपील तक निर्दोष होने की दावेदारी करता अपने परिवार के सदस्यों के जरिये राज करता चला जा रहा है. बिहार का हालिया घटनाक्रम हो या तामिलनाडु में जयललिता के देहांत के बाद उनके खिलाफ अदालती फैसले या फिर पश्चिम बंगाल का शारदा प्रकरण, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी की बेनामी संपत्तियों की कहानी हो, या मध्य प्रदेश का व्यापम कांड, अथवा कर्नाटक में बेल्लारी बंधुअों का पराक्रम, ये तमाम प्रसंग हमें यह सवाल पूछने को मजबूर करते हैं कि क्या जनतांत्रिक भारत फौजी तानाशाही वाले पाकिस्तान की तुलना में भ्रष्ट नेताअों को सजा दिलाने में असमर्थ है? हमारी अदालतों में ऐसी देर है, जो इंसाफ को अंधेर में बदल देती है.

कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के बीच शक्ति-संघर्ष के बारे में भी कुछ बुनियादी तुलनात्मक सवाल पूछने का यह वक्त है. पाकिस्तान के जनतंत्र की कोई तुलना भारतीय जनतंत्र से नहीं की जा सकती, फिर भी इसे नकारा नहीं जा सकता कि समय-समय पर वहां की न्यायपालिका ने फौजी तानाशाही के प्रतिरोध का दुस्साहस किया है. मुशर्रफ के शासनकाल में जज इफ्तेखार चौधरी की सख्ती ने वकीलों की जमात को देशव्यापी जनांदोलन के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित किया था. मुशर्रफ को भी अदालत में पेश होकर कटघरे में खड़ा होकर सफाई देनी पड़ी थी. इसे न्यायपालिका की स्वाधीनता का प्रमाण नादान उतावली ही कहा जा सकता है. कुछ अौर पुराने इतिहास के पन्ने पलटने की जरूरत है. जनरल जिया ने जुल्फिकार अली भुट्टो के कांटे को अपने रास्ते से हटाने के लिए अदालतों का ही इस्तेमाल किया था. बेनजीर का ही नहीं, पीपीपी के समर्थकों का मानना था कि उनके नेता की ‘न्यायिक हत्या’ की गयी थी.

पाकिस्तानी अदालतें, सर्वोच्च न्यायालय समेत, फौज की इच्छानुसार ही काम करती हैं, यह अब तक कई बार उजागर हो चुका है. शरीयत कानून के साथ आधुनिक धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक कानून के राज का ताल-मेल बैठाना असंभव है. इस्लामी कट्टरपंथी को बढ़ावा देना सेना द्वारा अपनी जहरीली जड़ें मजबूत करने अौर उन्हें फैलाने की रणनीति का अभिन्न अंग है. यही कारण है कि ईश्वरद्वेष (ईशनिंदा) के दकियानूस आरोप में प्राण दंड से किसी आरोपी का रिहा कराने का फैसला सर्वोच्च न्यायालय नहीं दे सकता. अपनी स्वाधीनता का प्रमाण वह भारत पर दहशतगर्द हमलों के जिम्मेवार हाफिज सईद तथा सैयद सलाहुद्दीन को कानूनी अभय दान देकर करता रहा है. पाकिस्तानी मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी हो या अल्पसंख्यक ईसाइयों के साथ इस्लामी संप्रदायों- शियाअों, इस्माइलियों, अहमदियाओं आदि- के मानवाधिकारों के उल्लंघन के वक्त भी यह कानून अंधा ही नजर आया है. समलैंगिकों, महिलाअों, कबाइलियों आदि के उत्पीड़न को भी सर्वोच्च न्यायालय संरक्षण नहीं दे सका है. यह नतीजा निकालना तर्क संगत है कि पाकिस्तान फौज ‘न्यायिक तख्तापलट’ में माहिर हो चुकी है अौर न्यायपालिका का अपने हित में उपयोग बड़े कौशल से करती रही है.

यह सवाल उठाना बेकार है कि पाकिस्तान में नवाज शरीफ के विस्थापन से कोई शक्ति शून्य उत्पन्न हो जायेगा. शक्ति समीकरण यथावत् बरकरार हैं अौर इस विपदा का पूर्वानुमान शरीफ परिवार को था. उन्होंने निश्चय ही अदालत के फैसले के बाद अपने स्वार्थों की हिफाजत का कुछ-न-कुछ बंदोबस्त किया होगा. इमरान खान हों या बिलाल भुट्टो, ये लोग अतीत में अपनी क्षमता की सीमाएं दर्शा चुके हैं. हां, तात्कालिक अस्थिरता के दौर में भारत को अपेक्षाकृत अधिक सतर्क रहने की जरूरत बनी रहेगी!

पुष्पेश पंत

विदेश मामलों के जानकार

दबावों के बावजूद डटे रहे शरीफ

पाकिस्तान में ऐतिहासिक रूप से निर्वाचित प्रधानमंत्रियों को भ्रष्टाचार और अक्षमता के आरोप में पद से हटाया गया है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अयोग्य करार दिये गये नवाज शरीफ इससे पहले भी 1990 के दशक में दो बार हटाये जा चुके हैं. जब वे चुनाव जीत कर 2013 में तीसरी बार प्रधानमंत्री बने, तो माना जा रहा था कि पिछले अनुभवों से उन्होंने सबक लिया होगा. यही कारण रहा था कि अतीत से उलट वे चार सालों तक विपक्ष और सत्ता प्रतिष्ठानों के जोरदार दबाव के बावजूद पद पर डटे रहे. भ्रष्टाचार और अक्षमता की धारदार आरोपों-आलोचनाओं के सामने भी वे मजबूती से खड़े रहे.

उनके और परिवारजनों के अज्ञात स्रोतों से कमाई करने संबंधी संयुक्त जांच दल की रिपोर्ट में अनेक आरोपों के बावजूद नवाज शरीफ पद नहीं छोड़ने की जिद्द पर कायम थे. ऐसा माना जाता था कि वे अपने प्रमुख विपक्षी पाकिस्तान तहरीके-इंसाफ के नेता इमरान खान के कारण पद से नहीं हट रहे हैं. इसलिए उन्होंने इस्तीफा देने के बजाय लगातार संघर्ष करने का तथा अपनी गलती अस्वीकार करने का रास्ता अपनाया, जो कि बेमतलब साबित हुआ.

इसकी पूरी संभावना है कि इमरान खान और उनकी पार्टी का नेतृत्व यह दावा कर फायदा उठाने की कोशिश करे कि उन्होंने नवाज शरीफ को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया है. इस फैसले का समूचा श्रेय लेकर वे अगला आम चुनाव जीतने का प्रयास करेंगे. फिर भी सामान्य अनुमान यह है कि पाकिस्तान मुसलिम लीग-नवाज फिर से वापसी करेगी और अगले चुनाव में जीत हासिल करेगी. इसका कारण हैः देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य पंजाब में उनका बड़ा वोट बैंक है.

अकबर नोटजई, पत्रकार, पाकिस्तान

पनामागेट, शरीफ और न्यायपलिका

पनामागेट मामले ने पकिस्तान की राजनीति में एक बार फिर उथल-पुथल मचा दी है. करोड़ों रुपयों के इस बहुचर्चित मामले में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने पद से हटना पड़ा. इस स्थिति को देख कर कई विश्लेषक मानते है कि आनेवाले दिन पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए चुनौतीपूर्ण होंगे. प्रचलित अवधारणा है कि पाकिस्तान की शासन व्यवस्था में पाकिस्तानी सेना की सहमति के बिना कुछ नहीं हो सकता. लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय का नवाज शरीफ के संदर्भों में दिया गया निर्णय इसी आशय की पुष्टि करता है कि पाकिस्तान में न्यायपालिका भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है. जहां कुछ विश्लेषक इस घटना को नवाज शरीफ के खिलाफ एक शांतिपूर्ण तख्तापलट का नाम दे रहे हैं, तो वहीं बहुतों का मानना है कि यह कदम न्यायपालिका के लिए मील का पत्थर हो सकता है.

करोड़ों रुपयों के इस मामले में संयुक्त जांच दल (जेआइटी) की रिपोर्ट को आधार बनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने नवाज शरीफ, और उनके वित्त मंत्री इशाक डार को भी अयोग्य ठहराया. नवाज शरीफ के बारे में लिये गये इस निर्णय से यह साफ हो गया है कि आगे आनेवाले समय में पाकिस्तान की न्यायपालिका और ज्यादा मुखर होगी. ध्यान रहे कि सर्वोच्च न्यायालय ने शरीफ और उनके परिवार के सदस्यों पर आपराधिक मामले दर्ज करने के आदेश भी दिये हैं. अगर हम इसे पाकिस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो इसे एक महत्वपूर्ण सकारात्मक कदम माना जा सकता है. एक ऐसा कदम, जिससे निस्संदेह पाकिस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ और सक्षम बनाने का माद्दा है. एक अंतरिम उपाय के तौर पर नवाज शरीफ ने अपने भाई और पंजाब के गवर्नर शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री की गद्दी सौंपने का निर्णय लिया है.

यहां यह बताना महत्वपूर्ण है कि विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शनों के मद्देनजर, पाकिस्तान सर्वोच्च न्यायालय ने पनामागेट की सुनवाई का निर्णय 2016 में लिया था. अप्रैल 2017 में न्यायालय ने पर्याप्त सबूतों के अभाव में 3-2 के बहुमत से शरीफ को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने दिया था. लेकिन, इसके साथ ही न्यायालय ने एक संयुक्त जांच दल का भी गठन कर दिया था. इस दल ने जुलाई में अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें शरीफ और उनके परिवार पर आय से अधिक संपत्ति होने के आरोपों के पर्याप्त प्रमाण उप्लब्ध हैं.

अगर हम पाकिस्तान की न्यायपालिका का इतिहास देखें, तो इसे एक कमजोर संस्था के तौर पर ही देखा जाता रहा है. चाहे जुल्फिकार अली भुट्टो की हत्या का मामला हो या मानवाधिकरों के हनन का मसला हो या फिर 2013 के चुनावों में कथित तौर पर हुई धांधली का, न्यायपालिका को मूकदर्शक के किरदार में ही पाया गया है. ऐसे और कई मौके आये हैं, जब पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने सत्ता का साथ दिया है. मिसाल के तौर पर, साल 1958 का दोस्सो केस देखें, जिसमें न्यायपालिका ने कार्यपालिका के असंवैधानिक कदम को सही ठहराने के लिए ‘क्रांतिकारी वैधता का सिद्धांत’ दिया था. साल 1973 में अंगीकृत नये संविधान के बाद कई ऐसे मौके आये, जब न्यायपालिका से सशक्त निर्णय की दरकार थी. नुसरत भुट्टो केस (1977) में भी सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन सरकार का साथ देना बेहतर समझा.

पाकिस्तान की न्यायपलिका में 2000 के दशक से उल्लेखनीय परिवर्तन हुए और तख्तापलट की घटनाओं पर खुली बहस शुरू हुई. वर्ष 2005 में चीफ जस्टिस इफ्तिखार मुहम्मद चौधरी के आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय न्यायपालिका की सुओ मोटो न्यायिक समीक्षा की तर्ज पर काम करना शुरू किया और इससे पाकिस्तान में न्यायिक सक्रियता का उदय हुआ. बाद में मुशर्रफ ने न्यायपालिका की शक्तियां कम करने की खूब कोशिश की और कुछ हद तक सफल भी हुए. उस दौरान हुई घटनाओं के चलते पाकिस्तान में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच खासा गतिरोध भी बना रहा. पाकिस्तान में न्यायपालिका के मजबूत होने के पीछे पाकिस्तान के तमाम शहरों में एक निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए चले लोकप्रिय आंदोलनों का भी बहुत बड़ा योगदान है.

नवाज शरीफ की पार्टी मुस्लिम लीग नवाज (एमएलएन), जिसका सदन में बहुमत है, से उम्मीद की जा रही है कि वह अगले वर्ष हो रहे चुनावों से पहले तक एक नये प्रधानमंत्री की नियुक्ति करेगा. अगर शहबाज शरीफ प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शमिल होते हैं, तो उन्हें पंजाब के गवर्नर पद से इस्तीफा देना होगा, जिसमें कम-से-कम 45 दिन का समय लगेगा. जो भी हो, नवाज शरीफ के पद्च्युत होने और इसमें पाकिस्तान की न्यायपालिका की सक्रिय और सकारात्मक भूमिका ने पाकिस्तान में कानून का राज (रूल ऑफ लाॅ) और शक्ति संतुलन की अवधारणा को मूर्त रूप दिया है. आगे आनेवाले दिन पाकिस्तानी लोकतंत्र के लिए खासे घटनाप्रद होंगे. यह स्पष्ट तौर पर कहना मुश्किल है कि सत्ता का यह परिवर्तन किस हद तक होगा या किस कदर शांतिपूर्ण होगा.

डाॅ राहुल मिश्र
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

क्या है पनामा पेपर

पनामा पेपर्स वे गोपनीय दस्तावेज हैं, जो पनामा स्थित एक लीगल फर्म मोसैक फोंसेका से लीक हुए हैं. इन पेपर्स में करीब 1.15 करोड़ गोपनीय दस्तावेज हैं, जिसमें 2.15 लाख बैंक अकाउंट की विस्तृत जानकारी है. इस दस्तावेज में 1970 से लेकर 2016 के शुरुआती महीने (स्प्रिंग) तक की जानकारी शामिल है.

मोसैक फोंसेका एक ऑफशोर कंपनी है, जिसके 35 देशों में कार्यालय हैं. यह पैसे लेकर लोगों और कंपनियों को वित्तीय सलाह देती है. यह कंपनी निवेशकों को उन देशों में जहां आमदनी पर टैक्स नहीं देना पड़ता है, में ऑफशोर कंपनी स्थापित करने मे मदद करती है और कंपनी से संबंधित सभी जानकारी गुप्त रखती है. इस प्रकार यह कंपनी टैक्स चोरी और मनी लॉन्ड्रिंग में निवेशकों की मदद करती है.

क्या कहता है पनामा पेपर

इस लीक दस्तावेज के अनुसार, 50 देशों के 140 राजनेता और सैकंडों प्रसिद्ध व्यक्तियों ने पनामा, ब्रिटिश वर्जिन आइसलैंड व बहामास जैसे टैक्स हैवेन देशों में छाया कंपनी, ट्रस्ट और कॉरपोरेशन स्थापित किये. इन राजनेताओं में 12 राष्ट्र प्रमुख (वर्तमान और भूतपूर्व) से लेकर खिलाड़ी, प्रशासक और फोर्स के धनी व्यक्तियों की सूची में शामिल 29 अरबपति हैं. इस दस्तावेज में 500 से अधिक भारतीय नागरिक, कंपनी और ट्रस्ट के नाम शामिल हैं.

जर्मन समाचारपत्र ज्यूडॉयच ट्सायटूंग ने अपने सूत्रों के द्वारा इन दस्तावेजों को हासिल किया और उन्हें इंटरनेशनल कॉन्सोर्टियम ऑफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट (आइसीआइजे) के साथ साझा किया. इस दस्तावेजों को विश्व के 100 से अधिक मीडिया संस्थानों ने अध्ययन किया और उसके बाद इससे जुड़े लोगों के नाम सामने आये.

पनामा पेपर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शामिल कुछ बड़े नाम

< रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन

< चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग

< अर्जेंटीना के राष्ट्रपति मॉरिशियो मैक्री

< सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद

< सउदी अरब के शाह सलमान

< मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब अब्दुल रज्जाक

< संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति व अबू धाबी के अमीर शेख खलीफा बिन जायेद बिन सुलतान अल नयहान

< आइसलैंड के प्रधानमंत्री सिगमंडर गुललॉन्गसॉन

< यूक्रेन के राष्ट्रपति पेट्रो पोरोशेंको

< पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ

< जॉर्जिया के पूर्व प्रधानमंत्री बिदजिना इवानिशविली

< इराक के पूर्व प्रधानमंत्री अयाद अल्लावी

< जॉर्डन के पूर्व प्रधानमंत्री अली अबू अल-राघेब

< कतर के पूर्व अमीर हमद बिन खलीफा अल थानी

< कतर के पूर्व प्रधानमंत्री हमद बिन जास्सीम बिन जाबेर अल थानी

< सूडान के पूर्व राष्ट्रपति अहमद-अल-मीरघानी

< यूक्रेन के पूर्व प्रधानमंत्री पाव्लो लाजारेंको

< अल्जीरिया के उद्योग व खनन मंत्री अब्देसलाम बौचौरेब

< अंगोला के पेट्रोलियम मंत्री जोसे मारिया बोथेलो डे वैस्कॉनसीलॉस

< अर्जेंटीना के लानस के मेयर नेस्टॉर ग्रीनडेट्टी

< बोत्स्वाना के पूर्व अटार्नी जनरल इयान किर्बी

< ब्राजील के चैंबर ऑफ डेप्यूटीज के अध्यक्ष एडवार्डो कुन्हा

< ब्राजील के सुप्रीम फेडरल कोर्ट के पूर्व प्रेसिडेंट जोआक्वीम बार्बोसा

< ब्राजील के चैंबर ऑफ डेप्यूटीज के सदस्य जोआओ लायरा

प्रमुख भारतीय निवेशक व व्यक्तियों के नाम

< डीएलएफ प्रोमोटर केपी सिंह

< इंडिया बुल्स के समीर गहलोत

< विनोद अडानी

< अंडरवर्ल्ड डॉन इकबाल मिर्ची

< गरेवारे फैमिली

< शिशिर बजोरिया

< ओंकार कंवर

< अमिताभ बच्चन

< ऐश्वर्या राय बच्चन

< लोकसत्ता पार्टी के दिल्ली शाखा के पूर्व अध्यक्ष अनुराग केजरीवाल

पनामा पेपर्स मामले में नया मोड़

साल भर पहले पनामा पेपर खुलासे के बाद दुनियाभर में कालेधन को लेकर नयी बहस शुरू हो गयी थी. पनामा पेपर्स मामले में फंसे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आखिरकार इस्तीफा देना पड़ा. विदेशों में खास कर टैक्स हेवेन में जमा कालेधन पर पनामा पेपर पहले पुख्ता प्रमाण के रूप में सामने आया था.

2.5 लाख बैंक खातों के विवरण का खुलासा

पनामा पेपर्स के माध्यम से 1.15 करोड़ फाइलों में दर्ज 2.15 लाख बैंक खातों का विवरण सार्वजनिक किया गया था. पनामा स्थिति मोसैक फोंसेका नाम की लीगल फर्म ने दस्तावेजों को लीक किया था. कंसल्टेंसी से जुड़ी इस फर्म के 35 देशों में कार्यालय हैं.

जांच के लिए टास्क फोर्स का गठन

पनामा पेपर्स में रसूखदार 500 भारतीयों का नाम आने के बाद सरकार ने इस मामले की जांच के लिए एक टास्क फोर्स गठित कर सीबीडीटी को सौंप दी थी. इस मामले 400 से अधिक लोगों को नोटिस भी भेजा गया. जांच कहां तक पहुंची और अब तक क्या कार्रवाई हुई, इसके बारे में ज्यादा पता नहीं चल पाया है. गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ महीने पहले सीबीडीटी से जांच के स्तर की जानकारी बंद लिफाफे में मांगी थी.

ग्लोबल टास्क फोर्स में भारत शामिल

पनामा पेपर्स मामले की जांच के लिए गठित टास्क फोर्स में भारत शामिल हो गया है. ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओइसीडी), काउंसिल ऑफ यूरोप मल्टीलेटरल कन्वेंशन और विभिन्न कर समझौतों के कानूनी प्रावधानों के तहत कई देश कर चोरी रोकने और जरूरी गोपनीय जानकारियों को साझा करने के लिए सहमत हुए हैं.

कालेधन से निपटने में जेआइटीएसआइसी की भूमिका अहम

विदेशों में जमा कालेधन और कर चोरी को रोकने के लिए ज्वाइंट इंटरनेशनल टास्कफोर्स ऑन शेयर्ड इंटेलीजेंस एंड कोलाबोरेशन (जेआइटीएसआइसी) की महत्वपूर्ण भूमिका है. एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले छह महीनों में दस्तावेजों से जुड़ी तमाम जानकारी हासिल करने के लिए 32 देशों से 570 आवेदन आ चुके हैं. इस प्रोजेक्ट में शामिल 30 देश सूचनाओं के आदान-प्रदान, विश्लेषण और सूचनाओं के आधार पर कार्रवाई के लिए संयुक्त रूप से काम करते हैं.

कैसे टैक्स हेवेन में पनपती हैं शेल कंपनियां

( टैक्स हेवेन का मतलब किसी देश में कर की दरों का कम होना ही नहीं है, बल्कि इन देशों में वित्तीय जानकारियों को बेहद गोपनीय रखने का प्रावधान भी होता है.

( इन देशों में किसी व्यापार या व्यक्तिगत वित्तीय जानकारियों को किसी भी दशा में साझा नहीं किये जाने का नियम होता है.

( पनामा में कई ऐसी फर्म्स हैं, जो 48 घंटे की भीतर कंपनी बनाने और डायरेक्टर/ शेयरधारकों को नामित करने की सुविधा प्रदान करती हैं.

( पनामा से कई अंतरराष्ट्रीय बैंक संचालित होते हैं, जो बैंकिंग से जुड़ी तमाम जानकारियों को गोपनीय रखने की गारंटी देते हैं. पनामा में कर नियमों का सख्ती से अनुपालन होता है.

( पनामा में अप्रवासियों की सभी प्रकार की विदेशी आय पर किसी प्रकार का कर नहीं लगता. पनामा में कोई आधिकारिक तौर केंद्रीय बैंक नहीं है.

कैसे काम करती हैं शेल कंपनियां

( शेल कंपनियां ‘खोखले’ तौर पर काम करती हैं, यानी इन कंपनियों का पास निर्धारित और वैधानिक परिसंपत्ति नहीं होती है. अक्सर इनका काम इनमें नाम और पते तक ही सीमित होता है.

( ये कंपनियां कागजों तक सीमित होती हैं, इनके पास न तो कोई कर्मचारी होता है और न ही कोई कार्यालय.

( अक्सर इन कंपनियों का निर्माण परिसंपत्तियों को छिपाने या ठिकाने लगाने के लिए किया जाता है. कागजों पर काम दिखता है, लेकिन वास्तविक स्थिति का पता लगाना कई बार मुश्किल हो जाता है.

( शेल कंपनियों का इस्तेमाल कर चोरी, धोखा देने, हवाला और आतंकियों को फंड देने के लिए किया जाता है.

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