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रेडियो पर फरमाइशी गीत सुनने के लिए रास्ते में परचे थमाते थे लोग
ज्वाना मिंज (अब ज्वाना मित्रा, रेडियाे कार्यक्रम घरनी सभा की ज्वाना बहिन) अगस्त के उपलक्ष्य में 14 अगस्त 1963 को आड्रे हाऊस में हुए क्षेत्रीय भाषा कवि सम्मेलन में मैंने उरांव (कुडुख) भाषा में देशप्रेम पर पहली स्वरचित कविता प्रस्तुत की थी़ कार्यक्रम में मौजूद तत्कालीन राज्यपाल एमएएस आयंगर ने सभी कवियों को खादी का […]
ज्वाना मिंज
(अब ज्वाना मित्रा, रेडियाे कार्यक्रम घरनी सभा की ज्वाना बहिन)
अगस्त के उपलक्ष्य में 14 अगस्त 1963 को आड्रे हाऊस में हुए क्षेत्रीय भाषा कवि सम्मेलन में मैंने उरांव (कुडुख) भाषा में देशप्रेम पर पहली स्वरचित कविता प्रस्तुत की थी़ कार्यक्रम में मौजूद तत्कालीन राज्यपाल एमएएस आयंगर ने सभी कवियों को खादी का गुलाबी शॉल देकर सम्मानित किया़ उस दिन मैंने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के साथ मंच साझा की़, जिसमें उन्होंने भी एक कविता सुनायी थी़ आकाशवाणी ने इस कार्यक्रम का रिकॉर्डिंग कर बाद में प्रसारित किया़ इसके बाद आकाशवाणी से मेरा जुड़ाव हुआ़
नवंबर 1963 को लोक साहित्य गोष्ठी में मेरी पहली कविता ‘अयंग राजी’ अर्थात मातृभूमि प्रसारित हुई़ उन दिनों आकाशवाणी में स्टूडियो कम थे़ सीधे प्रसारण के दौरान रातू रोड में चलने वाले वाहनों की आवाजें सम्मिलित हो जाती थी़ं लोक साहित्य गोष्ठी में उरांव कविताओं का प्रसारण होता था़ नागपुरी नाटक व हिंदी नाटक के काफी श्रोता थे़
नागपुरी नाटक ‘आम, कोयल और राजकुमारी’ व ‘कमल और केतकी’ काफी लोकप्रिय थे़ इनके लिए श्रोता बार- बार फरमाइश करते थे़ ग्रामीण महिलाओं का कार्यक्रम ‘घरनी सभा’ का नागपुरी में शाम साढ़े छह से साढ़े सात बजे तक सीधा प्रसारण होता था़ इस कार्यक्रम में श्रोताओं की पसंद के फिल्मी गीत भी सुनाये जाते थे़
फरमाइश देने के लिए कई श्रोता रास्ते में रिक्शा रोक लेते थे और कागज के टुकड़ों पर गीत, नाम और अपना पता लिख कर इस अनुरोध के साथ थमा देते थे कि मैं उनका नाम कार्यक्रम में जरूर बोलू़ं यदि किसी कार्यक्रम में किसी ने आकाशवाणी कलाकार के रूप में परिचय करा दिया, तो श्रोता नाम सुनते ही बता देते थे कि आप तो ‘घरनी सभा’ कार्यक्रम की है़ं ऑटोग्राफ की मांग करते थे़ रांची से प्रकाशित होने वाला एकमात्र अखबार ‘रांची एक्सप्रेस’ में फिल्म की तरह रेडियो कार्यक्रम प्रस्तुत करने वालों का नाम प्रकाशित किया जाता था़
अपने चहेते कलाकारों की एक झलक पाने के लिए खूंटी, तोरपा, बुंडू, गुमला के ग्रामीण इलाकों से लोग आकाशवाणी के मुख्यद्वार तक चले आते थे़ अगर मुलाकात हो गयी, तो उनके चेहरे की रौनक देखते बनती थी़
कुछ ऐसे श्रोता थे, जिन्हें आज तक नहीं भूल पायी़ एक श्रोता बेला ने मुझसे कहा था कि मेरे उरांव गीत, कविताएं सुनने क लिए कडरू नदी के टीले पर एक ही रेडियो के इर्दगिर्द 30- 35 लोग बैठ जाते थे़ एक और श्रोता ने, जो कुसई कॉलोनी स्थित विद्युत विभाग में कार्यरत थे, मुझसे कहा कि दीदी, आपका उरांव गीत सुनने के लिए हमने अपनी नौकरी की पहली तनख्वाह से सबसे पहले एक रेडियो खरीदी़
डेली मार्केट के पास गिने-चुने ऑटोरिक्शा रहते थे़ अाकाशवाणी द्वारा आकस्मिक उदघोषिकाओं को गाड़ी उपलब्ध नहीं कराया जाता था़ परिवार में पुरुष सदस्य नहीं होने के कारण मेरे लिए शाम साढ़े सात बजे स्टूडियो से निकल कर वापस घर आना बड़ी समस्या थी़ शाम साढ़े सात के बाद कोई रिक्शा नहीं मिलता था़ मुझे वह दिन अच्छी तरह याद है, जब एक हिंदी नाटक की रिकॉर्डिंग के बाद शाम पांच बजे स्टूडियो से बाहर निकली, तब शहर सरहुल शोभायात्रा की भीड़ से पटा था़
कोई रिक्शा या ऑटोरिक्शा नहीं चल रहे थे़ मैं पैदल चलते हुए किसी तरह शाम आठ बजे अपने घर कडरू पहुंची़ दशहरे के समय रोड पर पंडाल लगते थे इसलिए समय पर स्टूडियाे पहुंचने के लिए अरगोड़ा, हरमू का लंबा रास्ता लेती थी़
कार्यक्रम अधिशासी अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थे़ डाक द्वारा भेजने पर यदि कलाकार की स्वीकृति न मिले, तो कलाकरों के घर चले आते थे़ अपनी जिम्मेवारियां बखूबी निभाते थे़ मार्च 1966 में मेकन में नौकरी लगी़ आकाशवाणी के कार्यक्रम करने के लिए प्रबंधन ने मुझे विशेष अनुमति दी थी़
1981 में एक घंटे के घरनी सभा के पांच दिनों के कार्यक्रम के लिए 175 रुपये मिलते थे़ 1986 से मैं हिंदी नाटकों के साथ रांची दूरदर्शन से जुड़ गयी़ 2003 तक उरांव पत्रिका कार्यक्रम में उरांव गीत व भेंटवार्ताएं प्रस्तुत की़ अब ये सब खुशनुमा अतीत की बातें है़ं
(जैसा प्रभात खबर के संवाददाता मनोज लकड़ा को बताया)
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