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ज्ञान का खजाना है डॉ कामिल बुल्के शोध संस्थान

अनुप्रिया तिर्की न चारदीवारियों के भीतर डॉ कामिल बुल्के की अत्मा बसती है- ये वक्तव्य थे डॉ कामिल बुल्के शोध संस्थान के निदेशक फादर एम्मानुएल बाखला के. उम्र होगी 70-75 के आस पास.. चेहरे पर मासूमियत भरी मुस्कान… घनी दाढ़ी के बीच जैसे खिल कर फूट बाहर आ रही थी. एक महान व्यक्तित्व के कार्यों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 11, 2017 6:36 AM

अनुप्रिया तिर्की

न चारदीवारियों के भीतर डॉ कामिल बुल्के की अत्मा बसती है- ये वक्तव्य थे डॉ कामिल बुल्के शोध संस्थान के निदेशक फादर एम्मानुएल बाखला के. उम्र होगी 70-75 के आस पास.. चेहरे पर मासूमियत भरी मुस्कान… घनी दाढ़ी के बीच जैसे खिल कर फूट बाहर आ रही थी. एक महान व्यक्तित्व के कार्यों पर व्याख्यान देते हुए श्रद्धा और आत्मीयता शब्दों के जरिये अभिव्यक्त हो रही थी.

डॉ कामिल बुल्के हिंदी के धर्मयोद्धा और संत साहित्यकार थे इंग्लिश-हिंदी शब्दकोष के रचयिता थे. बाइबिल का हिंदी में अनुवाद उनके महान कार्यों का बखान करती है.

एक ईसाई धर्मसंघी, वो भी मूल रूप से बेल्जियम का व्यक्तित्व और तुलसीदास के प्रति प्रेम और उनको समझने के लिए हिंदी, संस्कृत, अवधी भाषाओं का अध्ययन कर जाना एक अनूठा वाकया है.

इस महान स्मृति के जीवन के अंश समेटे है रांची स्थित मनरेसा हाउस, जहां काम करने के लिए उन्हें नियुक्त किया गया. उन्होंने हिंदी बाइबल का अनुवाद अारंभ किया. इसकी विशेषता थी कि यह हाथों से लिखी गयी. ग्रीक, लैटिन जैसी तीन-चार भाषाओं के पुस्तक से एक एक शब्दों का मिलान करते हुए लिखी गयी. यह सर्वसाधारण के समझ की पुस्तक थी.

1982 में जब उनका देहांत हुआ. 12 हजार के करीब अच्छी पुस्तकें उनके यहां थी. जो भी नयी पुस्तक आती वे लेते और इस तरह इन कमरों में एक अलग दुनिया बसी थी.

यह एक ऐसा संस्थान बन गया था जिसे दिल खोल कर उन्होंने लोगों के शोध में मदद के लिए खोल रखा था. आज पुस्तकों की संख्या लगभग 14 हजार है. जेसुइट पुरोहितों ने उनके पुस्तकालय को शोध संस्थान में परिणत करने का निर्णय लिया और उसका पदभार जेसुइट धर्मसमाज के ही किसी इच्छुक पुरोहित के हाथों सौपा जाने लगा.

अब तक डॉ कामिल बुल्के शोध संस्थान के निदेशक स्वरूप फादर पोलेट, फादर बिल्डवायर (कबीर के अध्ययनरथी), फादर मथियस डुंगडुंग (हिंदी के प्रोफेसर, संत जेवियर कॉलेज) काम कर चुके हैं. वर्तमान समय में संस्थान के निदेशक हैं फादर इम्मानुएल बाखला.

फा. इम्मानुएल कहते हैं कि किसी भी कॉलेज में इस संस्थान से लाभान्वित प्रतिष्ठित प्रोफेसर मिल जाएंगे. कई ऐसे प्रतिष्ठित लोग हैं जो बुल्के के करीबी रहे और इस संस्थान से लाभ उठा कर अपने-अपने कार्यक्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया.

यूजीसी के तत्वावधान में जेसुइट पुरोहितों ने इन पुस्तकों को संत जेवियर कॉलेज में रिसर्च सेंटर के रूप में दे देने का निर्णय लिया. अब तक वहां सुविधा शुरू नहीं हुई है.

वजह चाहे जो भी रही हो. रिसर्च की जरूरत मुख्यतः पीएचडी के विद्यार्थियों को होती है और कॉलेज में इसकी सुविधा नहीं है. अन्य कॉलेजों के प्रोफेसर और विद्यार्थी को शोध संस्थान में मिलने वाली सहजता कॉलेज में मिल पाना भी एक चुनौती है.

अब पुस्तक घर ले जाने की सुविधा पर भी प्रतिबंध की उम्मीद है.

अब प्रश्न ये भी है कि मनरेसा हाउस के बिल्डिंग का वह भाग जहां ज्ञान का खजाना लिए एक महान आत्मा का वास है. खजाना क्यों…. ? इसका एक उदाहरण है नेपाली रामायण.. यह एक ऐसी दुर्लभ पुस्तक है, जो शायद कहीं नहीं रह गयी है अब. सिर्फ कामना ही तो कर सकते हैं हम कि इंग्लिश-हिंदी शब्दकोष के निर्माता की स्मृति इन दीवारों में.. इन सजी पुस्तकों की दुनिया में यहीं रहने दी जाए…..!!!

सादरी गीतों के रसिया गायक सुदर्शन कुजूर

नेह अर्जुन इंदवार

विराट सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में जब बदलाव की बयार चलती है तो यह छोटे-बड़े समाजों के सोच,विचार और व्यवहार में भी परिवर्तन लाता है.

डुवार्स-तराई के झारखंडी समाज में युगों पुराने पारंपारिक लोकगीतों की जगह आधुनिक सादरी गीतों का प्रचलन भी समाज के लोक व्यवहार में नये बदलाव, रूचि और सांस्कृतिक सोच में आए बदलाव को रेखांकित करता है.

बंगला, हिंदी और नेपाली फिल्मी और आधुनिक गीतों के बीच डुवार्स-तराई के मिश्रित समाज में रहने वाला आदिवासी समाज में आधुनिक गीत-संगीत का आगाज होना शुरू हो गया था और इस सांस्कृतिक बदलाव के आकाश में 1980 के दशक में सुदर्शन कुजूर एक नया सितारा की तरह चमक रहा था.

“ऊंचा-नीचा, पहाड़-परबत नदी-नाला, हायरे हमर छोटानागपुर……….”

“तोर माय-बाप देलंय बिहा रे, इसन सुंदर घर छोईड़ न जाबे रे……….. ”

“दार्जिलिंग शहर की अनैते सुंदर……….. ”

“नदिया कर नारे तीरे सुनसुनिया साग रे, अंगना केर बीचे रे फूलय गेंदा फूल……….. ”

“आखड़ा में बाजे लागल झांईंज मंदेरा, ठुमुक-ठुमुक नाचे किरे कोन गोया……….. ”

“हे मनवा माटी रे, कहिया धरबे डहर, सब कुछ आहंय तोहर……….. ”

ऐसे ही करीबन तीन दर्जन गीतों से सुदर्शन कुजूर डुवार्स तराई अंचल में छा गए थे. वे खुद गीत और कविता लिखते थे, उसे संगीतबद्ध करते थे और स्टेजों में स्वयं गाते थे. उनकी गीतों और आवाज में अजीब-सी मीठास, कशक, ठिठोली और मस्ती शामिल था.

9 मार्च 1958 को दक्षिण सताली, नकाडला बस्ती, कालचिनी थाना, जिला अलिपुरद्वार में जन्मे सुदर्शन कुजूर रेलवे में ट्रैफिक डिपार्टमेंट में पोर्टर के रूप में नियुक्त हुए थे, लेकिन परिश्रम को अपना साथी कहने वाला कुजूर का प्रोमोशन हुआ और उसे रेल्वे फाटक में फाटक कीपर के रूप में तैनाती मिली. निर्जन, जंगलों के बीच रेलवे फाटक में वे अकेले कभी कभार आने वाले ट्रेन के लिए फाटक बंद करते और खोलते थे.

रेल फाटक में ही उन्हें असम के विभिन्न जगहों में काम करना पड़ा और यहीं एकाकीपन को काटने के लिए वे कविता और गीत लिखने लगे और फिर उसे खुद ही गुनगुनाने लगे. असम में उन्हें असमिया लोकगीत और आधुनिक गीतों से रूबरू होने का मौका मिला और वे अपने लिखे गानों को असमिया धुन पर गाने लगे. छुट्टियो में वे डुवार्स आते और विभिन्न कार्यक्रमों में अपनी गीतों को प्रस्तुत करते. उनके गाने के स्टाईल और आवाज की कशीश जल्द ही लोगों के आंखों में चढ़ गया और स्टेज कार्यक्रमों में उनकी मांग बढ़ने लगी.

1989में चालसा के कुछ नौजवानों ने मिल कर एक सादरी वीडियो फिल्म ‘सांझ-बिहान’ बनाने का निर्णय किया और सुदर्शन को उस फिल्म के लिए गीत-संगीत तथा गीत गाने की जिम्मेदारी दी गयी.

उस फिल्म में सुदर्शन कुजूर ने न सिर्फ गीत-संगीत और अपनी आवाज दी, बल्कि उन्होंने एक अभिनय भी किया. कालचीनी में बनी फिल्म ‘मोर प्यार’ में भी सुदर्शन बाबू ने अभिनय किया था. उन्होंने संगीत की शिक्षा नहीं ली थी, लेकिन वे क्लासिकल हिंदी गानों के माध्यम से रियाज करके अपनी आवाज को मांजते थे. वर्ष 2012 मातृभाषा दिवस पर सुदर्शन कुजूर जी को जादवपुर विश्वविद्यालय की ओर से विशेष सम्मान दिया गया.

डुवार्स असम के कई जगहों में उन्हें सम्मानित किया जाता रहा था. सादरी साहित्य के रचना में अधिक समय देने के लिए उन्होंने नौकरी से पदत्याग कर दिया था और गांव की उन्नति के लिए सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगे. उन्होंने पंचायत का चुनाव भी लड़ा और दो बार पंचायत भी बना.

डुवार्स तराई में आधुनिक सादरी गीतों को हर झारखंडी के दिलों में पहुंचाने वाला गीतवार और गायक सुदर्शन कुजूर 10 मई 2012 के दिन इस संसार से विदा लेकर सदा के लिए अंतरिक्ष के एक अनजाने देश में चले गये.

सुदर्शन कुजूर ने डुवार्स तराई की भूमि, जहां छोटानागपुर से आये झारखंडियों ने नया घर बसाया था, का एक उम्दा कवि, गीतकार और गायक थे, अस्सी नब्बे के दशक में उनके सादरी गीत डुवार्स-तराई, असम और छोटानागपुर के वादियों में गूंजते रहे. आज नागपुरी और सादरी गीतों के दर्जनों कलाकार हैं और समाज में अपने कला से समाज में हर कार्यक्रम में पांव थिरकाते हैं, लेकिन जब लोकगीतों के बीच समाज के युवा कुछ नये के आकांक्षा में नये प्रयोग कर रहे थे, तब सुदर्शन कुजूर ने अपने गीतों से एक नयी डहर बनायी थी.

खुद गीत लिखते, धुन बनाते और गाते थे

सुदर्शन कुजूर

तत्कालीन भोंटांग राईज अर्थात् वर्तमान के जलपाईगुड़ी, अलिपुरद्वार और दार्जिलिंग जिलों के डुवार्स और तराई में छोटानागपुर के आदिवासियों का आना और हमेशा के लिए बस जाना कमोबेश 1850 से शुरू हुआ था. 1840 में अपर असम के चाबुआ में प्रथम चाय बागान की स्थापना हुई थी, लेकिन तब वहाँ स्थानीय मजदूर काम करते थे, लेकिन 1850 आते-आते असम में अनेक चाय बागान बनने शुरू हो गये थे और तब छोटानागपुर, संताल परगाना के मजदूरों को चाय बागानों में लिए जाने लगे. डुवार्स में प्रथम चाय बागान 1974 में गजलडुबा नामक गांव में बना और असम के साथ भोटांग में भी आदिवासी दल-बदल के साथ बसने लगे.

करीबन सौ, सवा सौ वर्षों तक चाय बागानों के आदिवासी अपनी सांस्कृतिक विरासत को संभाले रखे और दिन भर काम करने के बाद शाम को खा-पीकर आखरा में मांदर की धुन पर थिरकते रहे. लेकिन 1970-80 के दशक में आधुनिक गीत संगीत हिंदी सिनेमा के माध्यम से आदिवासी इलाकों में प्रवेश करने लगे और नयी पीढ़ी हिंदी गीत-संगीत के दीवाने होने लगे.

लेकिन रिकार्ड करने की नयी तकनीकी के आगमन से स्थानीय सांस्कृतिक सोच में बदलाव आने लगा और वे आधुनिक फिल्मी गानों के तर्ज पर अपनी भाषा में भी गीत-संगीत की रचना करने लगे. हिंदी, बंगला, नेपाली आधुनिक गीत-संगीत से प्रेरणा लेकर आदिवासी युवा भी सादरी में आधुनिक गीत-संगीत को समाज में स्थापित करने का प्रयास करने लगे.

डुवार्स तराई के सादरी समाज में उन्हीं दिनों सुदर्शन कुजूर नामक एक युवक अपने स्वरचित गीत, संगीत और आवाज से डुवार्स के सामाजिक जीवन में हलचल मचाने लगा.

असमिया और बंगला धुनों पर आधारित कुजूर के गानों की गुंज डुवार्स के हरियाली चादर-सी बिछी डुवार्स और तराई के आदिवासी गांवों में गूंजने लगी और आदिवासी युवाओं में अपने सामाजिक लोकगीतों के साथ आधुनिक गीतों के माध्यम से सामाजिक पहचान गढ़ने की ललक बढ़ने लगी. बंगला, हिंदी और नये-नये आगत नेपाली आधुनिक गीतों के बीच अपनी भाषा में आधुनिक गीतों को सुनकर आदिवासी युवाओं में नये गर्वीले भावना का विकास होने लगा और डुवार्स और तराई के मिश्रित सांस्कृतिक बियावन में अपनी खोते हुए पहचान को पुनः प्राप्त करने लगे.

एक ऐसा समाज, जहां हर मौसम और पर्व त्यौहारों के लिए अलग-अलग लोकगीत और नृत्य थे.

लेकिन अधिकतर सदियों पुराने गीत थे, जिसमें सामाजिक सांस्कृतिक ऐतिहासिक तत्व विद्यामान तो थे लेकिन पैरों को तेज घुन में थिरकाने वाले तत्व मौजूद नहीं थे और आधुनिक रंग ढंग से सराबोर मन को आनंदित करने में असफल सिद्ध हो रहे थे. तभी सुदर्शन कुजूर के गीत समाज में एक नयी बयार बने. झारखंडी समाज में गीत संगीत का एक नये इतिहास की शुरूआत हुई.

सुदर्शन के गीत अजीब मिठास, दिल्लगी और मस्ती भरे होते थे. वह खुद गीत लिखते थे, धुन बनाते और गाते थे. हर आदिवासी या सर्वभाषी गीत संगीत कार्यक्रम में लोग-बाग उन्हें ही सुनना पसंद करते थे.

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