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जयंती पर विशेष : प्रकाश झा को जब मना कर दिया था लोहा सिंह ने

आज भी जिंदा हैं उनके कालजयी डायलॉग सुनील बादल बिहार के सासाराम जैसे छोटे कस्बे से निकले रामेश्वर सिंह ‘कश्यप’ ने अपने रेडियो श्रृंखला नाटक की लगभग 350-400 कड़ियों में लोहा सिंह को जीवंत कर दिया. हिंदी पट्टी के लोगों के मन में उनकी यादें भले धुंधली हो गयी हों, पर उनके कालजयी डायलॉग आज […]

आज भी जिंदा हैं उनके कालजयी डायलॉग
सुनील बादल
बिहार के सासाराम जैसे छोटे कस्बे से निकले रामेश्वर सिंह ‘कश्यप’ ने अपने रेडियो श्रृंखला नाटक की लगभग 350-400 कड़ियों में लोहा सिंह को जीवंत कर दिया. हिंदी पट्टी के लोगों के मन में उनकी यादें भले धुंधली हो गयी हों, पर उनके कालजयी डायलॉग आज भी जिंदा हैं.
लोहा सिंह सिर्फ हास्य नाटक नहीं था, वरन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य भी था. 1962 की लड़ाई से लौटे फौजी लोहा सिंह (प्रोफेसर रामेश्वर सिंह ‘कश्यप’) जब फौजी और भोजपुरी मिश्रित हिंदी में अपनी पत्नी ‘खदेरन को मदर’ और मित्र ‘फाटक बाबा’ (पाठक बाबा) को काबुल के मोर्चा की कहानी सुनाते थे, तो श्रोता कभी हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते, तो कभी गंभीर और सावधान कि कहीं बाल विवाह, छूआछूत व धार्मिक विकृतियों पर किया जानेवाला व्यंग्य उन्हीं पर तो नहीं. सासाराम के एक कॉलेज के प्राध्यापक मनन बाबू (डॉक्टर विजय शंकर सिन्हा) कश्यप जी के करीबियों में रहे हैं.
उनके अनुसार कश्यप जी, निराला जी का बहुत सम्मान करते थे और उनके तथा निराला जी के बीच का पत्राचार ‘नीलकंठ निराला’ और बाद में ‘अपराजेय निराला’ के नाम से प्रकाशित हुआ. यह मगध विश्वविद्यालय के कोर्स में भी शामिल था. वह बताते हैं कि यह कश्यप जी का ही प्रभाव था कि 1982 में महादेवी वर्मा, जानकी बल्लभ शास्त्री जैसे साहित्यकार सासाराम जैसे छोटे शहर आये थे.
वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉक्टर नंदकिशोर तिवारी के अनुसार, पटना का कोई भी नाटक बिना कश्यप के रंगमंच पर नहीं आ सकता था. उन पर शोध करनेवाले डॉक्टर गुरुचरण सिंह बताते हैं कि तब यह नाटक देशवासियों के भीतर देशप्रेम और राष्ट्रीय चेतना का भाव भरता था. उस समय रेडियो सेट भी कम हुआ करते थे, इसलिए पान दुकानवाले रेडियो के सामने लाउडस्पीकर लगा कर लोगों को नाटक सुनाते थे.
उस दौरान आवागमन थम जाता था. हिंदी के आलोचक डॉक्टर जीतेंद्र सहाय ने तब एक आलोचनात्मक निबंध ‘हास्य की आढ़ती’ में लिखा था : चीन युद्ध के समय श्री कश्यप ने चीनियों की निंदा इस नाटक के माध्यम से करनी शुरू की, तो रेडियो पीकिंग की यह टिप्पणी आयी कि जवाहरलाल ने आकाशवाणी के पटना केंद्र में एक ऐसा भैंसा पाल रखा है, जो चीन की दीवार में सींग मारता है.
कश्यप जी इप्टा से जुड़े नाटककार, निर्देशक और अभिनेता तीनों थे. उनके पिता राय बहादुर जानकी सिंह ब्रिटिश काल में पुलिस अधिकारी थे, पर उन्होंने क्रांतिकारियों की मदद की और एक बार तो उनको पटना छोड़ कर उनको भागना पड़ा.
लोहा सिंह की शिक्षा-दीक्षा मुंगेर, नवगछिया और इलाहाबाद में हुई. 1948 में आकाशवाणी, पटना की शुरुआत हुई, तो चौपाल कार्यक्रम में ‘तपेश्वर भाई’ के रूप में वह भाग लेने लगे. वार्ताकार, नाटककार, कहानीकार और कवि के रूप में सैकड़ों विविध रचनाओं में भी उनकी सहभागिता रही. साहित्य, ज्योत्सना, नयी धारा, दृष्टिकोण, प्रपंच, भारती, आर्यावर्त, धर्मयुग, इलस्ट्रेट वीकली, रंग, कहानी अभिव्यक्ति, नवभारत टाइम्स जैसी पत्रिकाओं में उनके कई निबंध, कहानियां, कविताएं, आलोचनाएं और एकांकी प्रकाशित हुए.
दरअसल इनके डीएसपी पिता के एक नौकर के भाई रिटायर्ड फौजी थे, जो गलत-सलत अंग्रेजी, हिंदी और भोजपुरी मिला कर एक नयी भाषा बोलते थे और गांववालों पर इसका बड़ा रोब पड़ता था. वही भाषा वह नौकर भी बोलता था.
उसे सुन कर कश्यप जी ने अपना टोन और चरित्र ही वैसा ही बना लिया. खदेरन बनती थीं प्रसिद्ध लोक गायिका प्रो विंध्वासिनी देवी. उन्होंने 1950 में बिहार नेशनल कॉलेज, पटना के हिंदी विभाग में व्याख्याता के रूप करियर शुरू किया. उन्हें पद्मश्री, बिहार गौरव, बिहार रत्न आदि से सम्मानित किया गया. उनके नौ उपन्यास, काव्य रूपक, नाटक, एकांकी संग्रह जैसी पुस्तकों को छोड़ कर अधिकांश प्रकाशित ही नहीं हो पायीं. बहुत सी नष्ट हो गयीं.
एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था : “मेरी बहुत सी रचनाएं खो गयीं. काफी संख्या में अप्रकाशित रचनाएं भी हैं. मुझे किताब छपाने की विद्या नहीं आयी.” एक बात का मलाल उन्हें हमेशा रहा कि लोहा सिंह की लोकप्रियता के चलते उनका गंभीर साहित्य दब गया.
कश्यप जी को अपनी रचनाओं से बच्चों के समान प्यार था और हर रचना एक नयी कलम से लिखते और उसको बक्से में रख देते. बाद में उसमें कांट-छांट करते थे.
लगभग 20 हजार पेन उनके घर में सजा कर रखे हुए थे. उनकी लोकप्रियता मायानगरी मुंबई तक पहुंच गयी थी. लोहा सिंह नामक फिल्म भी बनी, पर वहां के रीति-रिवाज में वह खुद को ढाल नहीं पाये. अक्तूबर, 1992 में प्रकाश झा सासाराम आये थे. उन्होंने फिल्म के लिए उनकी स्क्रिप्ट पर लंबी बातचीत की. प्रकाश झा कहानी में फिल्म के अनुरूप परिवर्तन करना चाह रहे थे, पर मुद्दे पर बात अटक गयी.
डॉक्टर विजय शंकर सिन्हा (मनन बाबू) बताते हैं कि एक दिन उन्होंने अपने लोगों से बात की कि प्रकाश झा को सहमति दे दी जाये, कि वह फिल्म या सीरियल में आवश्यक परिवर्तन कर लें. पर नियति को शायद यह मंजूर नहीं था और 24 अक्तूबर, 1992 को उनकी मृत्यु हो गयी. इसके साथ ही एक अध्याय का अंत हो गया.
(लेखक इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से जुड़े हैं और लेख उन पर किये शोध पर आधारित है)

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