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आजादी के 70 साल : गेंदालाल, पंचम व लक्ष्मणानंद को जानिए

आज भी बरकरार है सौ साल पुरानी किताब का खौफ-2 शाह आलम सांगठनिक दस्‍तावेजों की जब्‍ती को सौ साल पूरा होना भले बाकी हो, लेकिन मातृवेदी दल का इतिहास 100 साल पूरा कर चुका है. चंबल के तत्कालीन दस्युराज पंचम सिंह सहित 30 दुर्दांत दस्युओं के ह्रदय परिवर्तन के बाद अन्य 10 क्रांतिकारियों ने मिलकर […]

आज भी बरकरार है सौ साल पुरानी किताब का खौफ-2
शाह आलम
सांगठनिक दस्‍तावेजों की जब्‍ती को सौ साल पूरा होना भले बाकी हो, लेकिन मातृवेदी दल का इतिहास 100 साल पूरा कर चुका है. चंबल के तत्कालीन दस्युराज पंचम सिंह सहित 30 दुर्दांत दस्युओं के ह्रदय परिवर्तन के बाद अन्य 10 क्रांतिकारियों ने मिलकर 1916 में मातृवेदी का गठन किया था.
दल के कमांडर इन-चीफ जंग-ए-आजादी के महानायक गेंदालाल दीक्षित, अध्यक्ष पंचम सिंह और संगठनकर्ता ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद थे. अभिलेखों के अनुसार मातृवेदी दल में 500 घुड़सवार, 2000 पैदल सैनिक थे और पार्टी कोष में आठ लाख से अधिक की संपत्ति थी. इस संगठन की सिरसागंज के सेठ ज्ञानचंद्र के यहां डकैती डालने की एक योजना बनी. ब्रह्मचारी, गेंदालाल दीक्षित, मन्नू राजा के दल के साथ पंचम सिंह के दल का जमावड़ा हुआ. यह दल बहुत दिनों से थका और कई दिनों का भूखा था.
किसी ने दो-दो रात तक नींद पूरी भी नही की थी. हिंदू सिंह ने मिहोना के घने जंगलों के एकांत में उन्‍हें ठहरा दिया और भारी ईनाम की लालच में भिंड पुलिस को उन्‍होंने सूचना दे दी कि भारी संख्या में पंचम सिंह का गिरोह ठहरा है. मुकाबला भारी होगा. भिंड से तार द्वारा सूचना ग्वालियर गयी. ग्वालियर से बड़ी संख्या में रिजर्व पुलिस तथा ब्रिटिश पुलिस ने चौतरफा से उन्हें घेर लिया.
इससे बेखबर पंचम सिंह का दल भूख से बेचैन था. हिंदू सिंह ने पूड़ी में जहर डाल दिया. ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद की पूड़ी खाते-खाते जबान ऐंठने लगी. इधर हिंदू सिंह ने देखा कि पांच आदमी बेहोश हो चुके हैं तो वह पानी लाने के बहाने जाने लगा. ब्रह्मचारी जी को होश था. उन्होंने अपनी बंदूक उठाकर फायरिंग कर दी.
आवाज होते ही चारों तरफ से गोलियों की बौछार होने लगी. दल में से कुछ जहर से और कुछ गोली के शिकार हो गये. ब्रह्मचारी को चौदह गोली लगी. गेंदालाल दीक्षित की टांग में एक छर्रा लगा था और एक आंख में. कुल 80 में से लगभग 35 क्रांतिकारी मारे गये. बाकी को भिंड की हवालात में बंद कर दिया गया. दूसरे दिन ग्वालियर किले में मिलिट्री नंबर 2 की टुकड़ी का कड़ा पहरा बैठा दिया गया.
सरकारी गवाहों ने कहा कि मैनपुरी षडयंत्र के नेता गेंदालाल दीक्षित हैं. अंग्रेज सरकार ने ग्वालियर किले में कैद दीक्षित को बुलवाकर पूछताछ शुरू की.
गेंदालाल ने सारा दोष अपने सिर पर लेकर पुलिस अधिकारी से कहा कि आपने इन लोगों को व्यर्थ ही पकड़ रखा है, इन सबको आप छोड़ दीजिए. अफसर ने उनका यकीन कर लिया. इसके बाद रामरत उपाध्याय, श्रीकृष्ण पालीवाल, ठाकुर प्रसाद शर्मा आदि क्रांतिकारियों को छोड़ दिया गया. दीक्षित को मैनपुरी जेल से निकालकर पुलिस हवालात में मुखबिर रामनारायण के साथ बंद कर दिया गया. देवनारायण भारतीय ने उनके पास फलों की टोकरी में रिवाल्वर और लोहा काटने की आरी पहुंचा दी थी.
उसी रात ठीक दो बजे रामनारायण को साथ लेकर वे भाग निकले. आधी रात को जब पहरा बदला और अंधेरा देखकर लालटेन जलायी गयी तो पुलिस को सांप सूंघ गया. अखबारों मे मोटे अक्षरों मे छपा- ‘पुलिस की आंखों मे धूल झोंक कर गेंदालाल दीक्षित एक मुखबिर को लेकर फरार’.
क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी के लगभग 10 महीने बाद तक कुख्यात सीआइडी अधीक्षक सैंड्स ने मुकदमा न चलाने में अपनी निर्ममता का परिचय दिया. संयुक्त प्रांत की सरकार ने 5 जनवरी, 12 मार्च और 15 मार्च के आदेशों के अनुसार मैनपुरी षडयंत्र कांड के 37 देशभक्तों पर 120बी व 120ए की ताजीरात-ए-हिंद मुकदमा चलाने का हुक्म दिया.
मुकदमा शुरू होने के तीन दिन बाद शिवकृष्ण ने बड़ी कुशलता से बारिश का फायदा उठाकर लोहे के सींखचों को काट डाला और जेल से निकल भागने में कामयाब हुए. आखिरकार एक सितंबर, 1919 को जज बीएस किश्च ने 10 क्रांतिकारियों को कठोर सजा सुनायी. यह कहानी हमारी इतिहास की किताबों से नदारद है. मातृवेदी के दस्‍तावेज भी मुहैया नहीं करवाये जा रहे. सवाल उठता है कि भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के इस गौरवशाली अध्‍याय से हमें क्यों महरूम रखा जा गया है?
(लेखक भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के जानकार हैं)

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