ट्रंप की अफगानिस्तान नीति, दक्षिणी एशिया के समीकरणों में बदलाव!
पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान पर अपनी नीति की घोषणा में सैनिकों की संख्या बढ़ाने और सक्रियता को सघन करने के स्पष्ट संकेत दिये हैं. उन्होंने आतंकवाद को प्रश्रय देने के लिए पाकिस्तान को सख्त चेतावनी भी दी है और भारत से अफगानिस्तान में अधिक प्रभावी भूमिका निभाने का निवेदन किया है. […]
पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अफगानिस्तान पर अपनी नीति की घोषणा में सैनिकों की संख्या बढ़ाने और सक्रियता को सघन करने के स्पष्ट संकेत दिये हैं. उन्होंने आतंकवाद को प्रश्रय देने के लिए पाकिस्तान को सख्त चेतावनी भी दी है और भारत से अफगानिस्तान में अधिक प्रभावी भूमिका निभाने का निवेदन किया है. ट्रंप की यह नीति उनके चुनावी वादे से उलट है, जिसमें उन्होंने सेना वापसी और युद्ध को समाप्त करने की बात कही थी. इस घोषणा से दक्षिणी एशिया की भू-राजनीतिक स्थिति में बदलाव की उम्मीद की जा रही है.
दो माह पहले अमेरिकी रक्षा सचिव जिम मैटिस ने कह दिया था कि अमेरिका डेढ़ दशक से अधिक समय से चल रहे अफगानिस्तान युद्ध को नहीं जीत पा रहा है. ऐसे में अमेरिका के तेवर आक्रामक होने का अंदेशा बेबुनियाद नहीं है. ट्रंप की नीति और इस इलाके की सुरक्षा के खास पहलुओं पर विश्लेषण के साथ इन-डेप्थ की प्रस्तुति…
पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक
‘ग्रेट गेम’ में भारत क्यों हो शामिल?
चीन, ट्रंप के बयान से चिढ़ा हुआ है. चीन के स्टेट कांैसिलर यांग चिशी ने कहा कि अमेरिका को पाकिस्तान की संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए. अमेरिकी विदेश मंत्री रैक्स टिलरसन ने बुधवार को कहा था कि पाकिस्तान अमेरिका से पैसे लेता है, और नाटो फोर्स व अफगानों को मारनेवाले अतिवादियों को ‘सेफ पैसेज’ भी देता है.
हम खैरात देना बंद करेंगे, और 16 ‘नाॅन नाटो सहयोगियों’ के ग्रुप से भी पाकिस्तान को बाहर कर देंगे. ट्रंप और टिलरसन के बयानों से बौखलाये पाकिस्तान ने कहा कि आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में हमने, आपसे कई गुना ज्यादा खोया है, इसलिए हमें चेताने की जरूरत नहीं. लगभग इसी बात को चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने भी कहा था कि पाकिस्तान ने आतंक के खिलाफ कार्रवाई में बहुत बड़ी कुर्बानी दी है.
पाकिस्तान के समर्थन में चीन जिस तरह से खुलकर बोलने लगा है, उसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि अब इस्लामाबाद उस खेल का प्यादा बन चुका है, जिसे इस इलाके में ‘ग्रेट गेम की वापसी’ के रूप में कूटनीतिक समुदाय निरूपित करता है.
सवाल यह है कि अफगान नीति को लेकर नौ महीने बाद अमेरिकी राष्ट्रपति क्यों जगे? डोनाल्ड ट्रंप ने 20 जनवरी 2017 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी. उसके कोई एक माह बाद, फरवरी में सीनेट की ‘आर्म्ड कांग्रेसनल कमेटी’ को जनरल जाॅन निकोलसन ने सूचित किया था कि अफगानिस्तान मंें इस समय जो आॅपरेशंस चलाये जा रहे हैं, उसके वास्ते अमेरिकी सैनिकों की संख्या नाकाफी है, वहां सैनिकों की संख्या तुरंत बढ़ानी होगी. फरवरी में जिस पर तुरंत फैसला लेना था, ट्रंप प्रशासन को तय करने में नौ माह लग गये.
ट्रंप अब ‘टोपी’ अफगानिस्तान को पहना रहे हैं. उन्होंने दो टूक कह दिया कि अपने ऊपर हो रहे खर्च का भार काबुल को स्वयं वहन करना पड़ेगा. यानि, अब मुफ्त की मलाई खाने के दिन लदनेवाले हैं. अमेरिका, प्रत्यक्ष रूप से अफगानिस्तान में भारत की हिस्सेदारी इसलिए चाहता है, ताकि इस इलाके में चीन, पाकिस्तान और रूस का ‘ग्रेट गेम’ बिगाड़ा जा सके. पड़ोस के ईरान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान किस भूमिका में होंगे? यह भी एक बड़ा सवाल है.
यह सोचनेवाली बात है कि क्या सिर्फ चार हजार अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढ़ा भर देने से इस इलाके से आइसिस, अल कायदा की जड़ें समाप्त हो जायेंगी? इस समय अफगानिस्तान में 8, 400 अमेरिकी सैनिक हैं.
ये सैनिक ‘आइसिस-खुरासान’, अल कायदा के सफाये के लिए नाकाफी साबित हो रहे हैं. खुरासान प्रभाव वाले इलाके में पूर्व सोवियत संघ से आकर यहां अड्डा जमाये उजबेक, ताजिक, तुर्कमन अतिवादियों की संख्या 25 हजार तक बतायी गयी है, इतने ही पाकिस्तान की सरहदों को पार कर आये जिहादी, नये गुट में शामिल बताये जाते हैं.
ट्रंप का दबाव भारत पर है कि वह अफगानिस्तान को संवारने में पैसे खर्च करे. कुतर्क यह कि भारत, अमेरिका से अरबों कमा रहा है. अमेरिका यहां से कितना लाभ ले रहा, उसका हिसाब नहीं देंगे. भारत अपने देश को संवारे, या अफगानिस्तान में जमा-पूंजी बांट दे? क्या यह सच नहीं कि इस पूरे इलाके में आतंकवाद को खाद-पानी देनेवाले अमेरिका और रूस हैं, और पाकिस्तान ने खैरात में मिले पैसे का इस्तेमाल भारत के विरुद्ध किया?
‘खुरासान आइसिस’ के जिस नये अड्डे की हम बात कर रहे हैं, वह अफगानिस्तान का पूर्वी प्रांत नंगरहार है, जिसकी राजधानी जलालाबाद है. यह सितंबर 2014 के आसपास की बात है, जब आइसिस ने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के स्थानीय प्रतिनिधियों से संपर्क किया, और यह तय किया कि कश्मीर समेत दक्षिण एशिया को अपने निशाने पर लेने के लिए इस इलाके को आतंक का एक नया एपीसेंटर बनायें. अक्तूबर 2014 में तालिबान कमांडर अब्दुल रऊफ खादिम इराक गया, और वहीं इसका ब्लू प्रिंट तैयार हुआ कि करना क्या है.
खुर्रम, खैबर, पेशावर और हांगू जिलों के कमांडर ‘टीटीपी’ से तोड़ लिये गये, और इस नये गुट से जोड़े गये. 26 जनवरी, 2015 को ‘आइसिस-खुरासान’ की स्थापना की घोषणा की गयी. ‘26 जनवरी’ को स्थापना दिवस महज संयोग नहीं हो सकता. इस अतिवादी गुट के दिमाग में भारत कहीं न कहीं है. हाफिज सईद खान को ‘आइसिस-खुरासान’ का नेता घोषित किया गया. अब्दुल रऊफ अलीजा इस अतिवादी समूह का डेपुटी कमांडर था, जिसे फरवरी 2015 में मार गिराया गया. हाफिज सईद खान को जुलाई 2016 में अमेरिकी फोर्स ने ढेर कर दिया.
यों, चीन जिस अतिमहत्वाकांक्षा के घोड़े पर सवार होकर ग्वादर को विकसित कर रहा था, उस पर ग्रहण लगनेवाला है. चीन और पाकिस्तान दोनों चाहते हैं कि भारत को अफगानिस्तान से दूर रखा जाये. उसकी मुख्य वजह बलूचिस्तान में भारत को निष्क्रिय करना है. अफगान फोर्स और उसकी खुफिया को भारत ने जिस तरह से समय-समय पर प्रशिक्षित किया है, उससे जमीनी स्तर पर खुफिया सूचनाओं तक भारत की पकड़ ज्यादा बढ़ गयी है. ट्रंप इसी का फायदा तो उठाना चाहते हैं!
चीन
चीन के साथ भी अफगानिस्तान की सीमा लगती है और ये दोनों देश अपने संबंधों को मजबूती प्रदान करना चाहते हैंं. वर्ष 2014 में अफगानी राष्ट्रपति अब्दुल गनी द्वारा अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए चीन का चुनाव करने के बाद से ही इन दोनों के बीच के संबंध बेहतर हुए हैं. आज की तारीख में चीन अफगानिस्तान का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है.
अफगानिस्तान के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, वर्ष 2015 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार एक अरब डॉलर से अधिक पर पहुंच गया. इतना ही नहीं, चीन ने माना है कि 46 अरब डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में अफगानिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है और उसकी यह महत्वाकांक्षी परियोजना तभी सफल होगी जब अफगानिस्तान में निरंतर स्थिरता बनी रहेगी. इसी वजह से इस वर्ष जून में चीनी विदेश मंत्री ने अफगानिस्तान के साथ आतंकवाद से निपटने और सुरक्षा के क्षेत्र में द्विपक्षीय सहयोग को मजबूत बनाने की बात कही.
रूस
अफगानिस्तान में रूस (पहले सोवियत संघ) की उपस्थिति लंबे समय तक रही है. अपना प्रभाव जमाने के लिए वर्ष 1979 में ही इस देश में सोवियत संघ ने घुसपैठ की थी.
तालिबान जैसे इस्लामी चरमपंथियों के साथ उसकी लड़ाई दशकों लंबी चली, जिस कारण इस देश को काफी अस्थिरता का सामना करना पड़ा. बाद में इस लड़ाई में अमेरिका भी कूद पड़ा और उसने सोवियत संघ के खिलाफ तालिबान जैसे आतंकी समूहों की मदद की. सोवियत संघ के इस देश से बाहर जाने के बाद यहां तालिबान का शासन हो गया. सीएनएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, तालिबान को हथियार उपलब्ध कराकर एक बार फिर रूस अफगानिस्तान में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है. हालांकि इसके पहले भी वह गाहे-बगाहे तालिबान को समर्थन देता रहा है.
अफगानिस्तान में विभिन्न देशों की भूमिका
बीती दो सदियों से प्रमुख विश्व शक्तियों की आपसी आजमाइश का केंद्र रहा अफगानिस्तान आज क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय शक्तियों की विदेश नीति और सुरक्षा हितों के बीच पिस रहा है. अफगानिस्तान में जो कुछ प्रमुख देश सक्रिय हैं, उन पर एक नजरः
अमेरिका
अमेरिका ने अफगानिस्तान पर 7 अक्तूबर, 2001 को हमला किया था. इसका मकसद आेसामा बिन लादेन को पकड़ना था. बुश प्रशासन का मानना था कि अफगानिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को पनाह दिया है.
तालिबान द्वारा ओसामा बिन लादेन को सीधे अमेरिका को नहीं सौंपे जाने के बाद क्रोधित अमेरिका ने अफगानिस्तान पर आक्रमण करना शुरू कर दिया. तब से अब तक अमेरिकी सैनिक इस देश में मौजूद हैं.
इन सैनिकों की संख्या अगस्त 2010 में बढ़कर 100,000 पहुंच गयी थी, लेकिन बाद में इनकी संख्या में कमी आयी. वर्तमान में इस देश में लगभग 9,000 अमेरिकी सैनिकाें की मौजूदगी है. इनके अलावा अनेक नाटो देशों के सैनिक अमेरिकी अभियान को सहयोग दे रहे हैं. अफगानिस्तान में युद्ध और पुनर्निर्माण के प्रयासाें पर अब तक अमेरिका 841 अरब डॉलर से अधिक की राशि खर्च कर चुका है. ट्रंप ने अपनी नीति में यह स्पष्ट कह दिया है कि वे अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ायेंगे.
पाकिस्तान
पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान की सीमा लगती है. अमेरिकी और अफगान अधिकारियों की मानें, तो इसी सीमा के जरिये पाकिस्तान से हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकी समूह अफगानिस्तान में प्रवेश करते हैं और उनको आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है.
यही वजह है कि पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान के संबंध पटरी पर नहीं हैं. असल में पाकिस्तान इस देश में एक ऐसी सरकार चाहता है, जो कमजाेर होने के साथ ही तालिबान समर्थक हो, ताकि इस देश में भारत की उपस्थिति को लेकर वह अपनी रणनीतिक बढ़त बना सके, इस्लामिक चरमपंथियों को यहां पनाह दे सके और दक्षिण एशिया में भारत की शक्ति को कम कर सके. दोनों देशाें के बीच मधुर संबंध न होने के बावजूद पाकिस्तान अफगानिस्तान का बड़ा व्यापारिक साझीदार है. एमआइटी आकंड़ों के अनुसार, 2015 में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान से 3,920 लाख डॉलर के सामान का आयात किया था.
भारत
भारत और अफगानिस्तान के बीच लंबे समय से मैत्रीपूर्ण संबंध रहे हैं. यही कारण है कि भारत प्रमुख व्यापारिक साझीदार होने के साथ ही अफगानिस्तान के लिए सबसे बड़ा दानकर्ता भी है. भारत में अफगानिस्तान के पूर्व राजनयिक शाएदा मोहम्मद अब्दाली के अनुसार, 2001 से लेकर अब तक भारत सहायता राशि के तौर पर अफगानिस्तान को तीन अरब डॉलर दे चुका है, और विकास कार्यों हेतु आज भी इसे सहायता दे रहा है.
विकास कार्यों में मदद के साथ ही भारत अफगानिस्तान को हथियार भी मुहैया कराता रहा है. इतना ही नहीं, वर्ष 2011 तक इसने अफगानी सेना और इसके सुरक्षाकर्मियों को प्रशिक्षण भी मुहैया कराया है. अफगानिस्तान के हितों को लेकर भारत की इस बड़ी भागीदारी की आलोचना भी होती है और कहा जाता है कि भारत की इस भूमिका से पाकिस्तान के साथ तनाव और विवाद बढ़ सकते हैं.