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शिक्षक दिवस पर विशेष : शिक्षक, जो मेरे आदर्श रहे

अनुज कुमार सिन्हा शिक्षक दिवस की जब बात हाेती है, अनायास ही कुछ नाम-चेहरे तेजी से मेरी आंखाें के सामने से घूम जाते हैं. ये चेहरे हाेते हैं मेरे उन शिक्षकाें की, जिनका स्नेह मुझे मिला. मैं किस्मतवाला हूं क्याेंकि स्कूल हाे या कॉलेज, मुझे ऐसे अनेक शिक्षक मिले, जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा. जिन […]

अनुज कुमार सिन्हा
शिक्षक दिवस की जब बात हाेती है, अनायास ही कुछ नाम-चेहरे तेजी से मेरी आंखाें के सामने से घूम जाते हैं. ये चेहरे हाेते हैं मेरे उन शिक्षकाें की, जिनका स्नेह मुझे मिला. मैं किस्मतवाला हूं क्याेंकि स्कूल हाे या कॉलेज, मुझे ऐसे अनेक शिक्षक मिले, जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा.
जिन शिक्षकाें ने मुझे स्कूल में पढ़ाया, उनमें से अधिकांश अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनका नाम सामने आते ही सिर श्रद्धा से झुक जाता है. आंखें नम हाे जाती हैं. चूंकि पत्रकारिता में हूं, लंबे समय से, इसलिए जब भी माैका मिलता है, शब्दाें के जरिए अपने शिक्षकाें काे याद कर लेता हूं. संतुष्टि मिलती है. इस बार अखबार के जरिये नहीं, फेसबुक, ट्यूटर आैर इंटरनेट के जरिए अपने शिक्षकाें काे याद कर उनका आशीर्वाद मांग रहा हूं. सर, आप जहां भी हाें, वहीं से आशीर्वाद दीजिए. अपनी कृपा बनाये रखें.
कुछ घटनाआें का जिक्र करूंगा. 1987 या 1988 की बात है. तब मैं रांची विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग में पहले बैच का छात्र था. डॉ बीएन त्रिपाठी निदेशक थे. काेई कार्यक्रम हुआ था. कागज के प्लेट में सभी छात्राें-शिक्षकाें ने कक्षा (हॉल) में ही नाश्ता किया था.
जहां तहां जूठा प्लेट बिखरा पड़ा था. दूसरे दिन पहला ही क्लास सर (डॉ त्रिपाठी) का था. वे आये आैर क्लास में घुसते ही जूठा प्लेट खुद उठ कर एक जगह जमा करने लगे. हम सभी छात्र दाैड़े. सर ने सिर्फ इतना ही कहा-अच्छा नहीं लग रहा. गंदा प्लेट काे काेने में रख दे रहा हूं. जाे साफ करनेवाला आयेगा, बाद में साफ कर देगा. हम सभी छात्र प्लेट चुनने में लग गये. क्लास काे साफ किया. ऐसे थे डॉ त्रिपाठी. बगैर कुछ कहे कितना बड़ा संदेश दे गये थे. उसके बाद जब तक हमलाेग वहां पढ़े, किसी ने क्लास काे गंदा नहीं किया. बगैर डंडा चलाये, बगैर डांटे अनुशासन का बड़ा पाठ सर ने हमलाेग काे पढ़ा दिया था. धन्यवाद सर.
1977 की बात है. मैं तब हजारीबाग में हिंदू हाइस्कूल में नाैंवी का छात्र था. अभी भी मैं अपने शिक्षकाें का नाम अंगुली पर गिना सकता हूं. संभव हाे कुछ के टाइटल उलट गया हाे. 40 साल पहले की बात बता रहा हूं.
इसलिए ये गलती मुझसे हाे सकती है. क्षमा करेंगे सर. हमारे स्कूल (हाइस्कूल) के दिनाें के ये शिक्षक थे-श्री बलभद्र सहाय (गणित), श्री लाल माेहन प्रसाद (फिजिक्स), श्री सच्चिदानंद प्रसाद (केमेस्ट्री), श्री भवसागर प्रसाद (हिंदी), श्रीमती मंजूला शर्मा (हिंदी), श्री कन्हैया प्रसाद (अंगरेजी), श्री नारायण पंडित (संस्कृत), श्री नंद किशाेर प्रसाद (एनसीसी), श्री कृष्ण मुरारी प्रसाद (समाज अध्ययन), श्री शंभू प्रसाद (केमेस्ट्री), श्री भगत (फिजिक्स), श्री कांति प्रसाद (अंगरेजी), श्री बद्री प्रसाद (अंगरेजी, ये प्राचार्य थे), श्री सुरेंद्र प्रसाद श्रीवास्तव (हिंदी), श्री तेजनारायण सिंह (हिंदी, ये नाैंवी कक्षा में मेरे क्लास टीचर भी थे).
ऐसी बात नहीं कि मुझे प्राइमरी स्कूल के शिक्षकाें के नाम याद नहीं हैं. मैं धर्मशाला मध्य विद्यालय का छात्र था. उन दिनाें के मेरे टीचर थे-श्री बालमुकुंद सहाय, श्री दुर्गा प्रसाद, श्री नारायण यादव, श्रीमती तारामणि, रेणुका गांगुली, श्री शारदा प्रसाद, नागेश्वर प्रसाद, श्री नवल किशाेर प्रसाद, श्री रामलखन पांडेय (जिन्हाेंने 1970 में मुझे दूसरी कक्षा में पढ़ाया था, क्लास टीचर थे). सभी सर काे याद करते हुए बात काे आगे बढ़ा रहा हूं.
यह घटना 1977 की है. हजारीबाग में नरसिंह स्थान में हर साल कार्तिक पूर्णिमा काे मेला लगता है. शहर से चार-पांच किलाेमीटर दूर है वह स्थान. मैं अपने एक जिगरी दाेस्त अविनाश के साथ मेला देखने गया था. शाम में लाैटते समय बस पकड़ते वक्त मेरा एक्सीडेंट हाे गया था.
खून से लथपथ हाेने के बावजूद मैं अपने साथी के साथ पैदल ही सदर अस्पताल गया था क्याेंकि वह अंतिम बस थी. तब वहां अॉटाे नहीं चलता था. न ही रिक्शा वहां था. एक्सीडेंट इतना जाेरदार था कि मैं लगभग 15 दिनाें तक स्कूल नहीं जा सका था. उन दिनाें श्री बलभद्र सहाय सर गणित (एडवांस्ड मैथेमैटिक्स) पढ़ाते थे. नया चैप्टर शुरू करना था. मुझे बहुत मानते थे. जब उन्हें मालूम हुआ कि मेरा एक्सीडेंट हाे गया है (मैं स्कूल नहीं जा रहा था), उन्हाेंने क्लास में घाेषणा कर दी थी कि जब तक अनुज ठीक हाे कर नहीं आता, नया चैप्टर शुरू नहीं करूंगा. आगे बढ़ जाने से अनुज काे कहीं दिक्कत न हाे जाये.
ऐसे शिक्षक कहां मिलेंगे. सर ने वादा निभाया. जब मैं आया तभी नया चैप्टर शुरू किया. उन दिनाें ऐसा था शिक्षक-छात्र संबंध. यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है. बलभद्र सर, कदमा से हर दिन आठ किलाेमीटर साइकिल चला कर हिंदू स्कूल आते थे. ऐसी बात नहीं थी कि उनके पास पैसे नहीं थे. उनके पुत्र श्री अशाेक कुमार अमेरिका में दुनिया के जाने-माने साइंटिस्ट थे. सर इतने सरल थे कि उन्हें कभी गाड़ी की चिंता नहीं रही. वैसा ही व्यवहार. हर शिक्षक की अलग खासियत. जितने शिक्षकाें का मैंने नाम लिखा है, किसी में मुझे काेई कमी नहीं दिखी. छात्राें काे अपने बच्चाें की तरह मानते थे, प्यार करते थे. न लाेभ न लालच. व्यवहार कुशल. ऐसे शिक्षकाें की कमी किसे नहीं खलेगी.
जब कॉलेज (संत काेलंबस, हजाराबीग) में गया, वहां भी शिक्षक मिले. तब मैं भी कुछ शरारत करने लगा था. मैथेमैटिक्स अॉनर्स का छात्र था. डॉ आरएस प्रसाद हेड अॉफ डिपार्टमेंट थे. बड़े सरल. डॉ रामयतन प्रसाद केमिस्ट्री पढ़ाते थे. एक आैर घटना याद है. आइएससी या बीएससी की बात है (स्पष्ट याद नहीं है). फाइनल परीक्षा थी. फिजिक्स का प्रैक्टिकल था. डॉ एनएन घाेष एक्सटर्नल बन कर आये थे. बड़े विद्वान शिक्षक. आइआइटी की तैयारी के लिए छात्र उन्हीं की किताब पढ़ते थे. मैं फाइनल एक्जाम (प्रैक्टिकल) दे रहा था. लैब में था.
शायद फाेकल लेंथ निकालना था. मैं जब बाेलता हूं, काम करता हूं, मेरे हाथ-पैर चलते रहते हैं. आज भी वही आदत है. मैं झुक कुछ लिख रहा था. मैंने नहीं देखा कि सर यानी डॉ एनएन घाेष मेरे पीछे खड़ा हैं. वे भी झुक कर कुछ देख रहे थे. इसी क्रम में मैं पीछे हाे रहा था आैर मेरे पैर से सिर के चेहरे (चश्मा पर) चाेट लग गयी. पीछे देखा ताे डॉ एनएन घाेष. समझ गया कि मेरी कहानी अब खत्म. मैंने सॉरी कहा. पर सर के चेहरे पर काेई भाव नहीं. पता ही नहीं चला कि उन्हें चाेट लगी है. वह भी मेरे पैर से. पूछा-क्या कर रहे हाे. मैंने बताया कि फाेकल लेंथ निकाल रहा हूं. पूछा कि कैसे. मैंने उत्तर दिया. फिर पूछा कि कहां से सीखा. मैंने कहा-किताब से आैर डिमाेंसट्रेटर (शायद तापस चक्रवर्ती) का जिक्र किया. सर (डॉ घाेष) ने कहा-जिस तरीके से तुम फाेकल लेंथ निकाल रहे हाे, यह ताे काेई भी निकाल लेगा, किताब में पढ़ा ही है.
नया तरीका जानते हाे. मैंने कहा-नहीं सर. उन्हाेंने श्री चक्रवर्ती सर काे बुलाया आैर उनके सामने मुझे एक नया फार्मूला बताया आैर कहा कि इस तरीके से निकालाे. मैंने डॉ घाेष के बताये फार्मूले से फाेकल लेंथ निकाला. सर खुश थे. जब फाइनल का नंबर आया ताे मुझे खासा अच्छा नंबर दिया था. सर काे चेहरे पर मेरे पैर से चाेट लगी थी लेकिन उन्हाेंने इसकी परवाह नहीं की. यह उनका बड़प्पन था. इस घटना काे 33-34 साल ताे हाे ही गये हैं लेकिन मुझे आज भी वह घटना याद है.
अंत में. अब कहां दिखते हैं ऐसे शिक्षक. कुछ-कुछ मिलेंगे. न अब ऐसे शिक्षक हैं न ही छात्र. (अपवाद की बात मत कीजिए). छात्र उदंड हाे गये हैं. शिक्षक जरा से बायें-दायें किये कि उतार दी इज्जत. शिक्षक काे हमलाेग पैर छू कर प्रणाम करते थे. अब ताे एेसा नहीं हाेता. अधिकांश शिक्षक काेचिंग का धंधा चलाते हैं, काम से काम का छात्राें से रिश्ता रखते हैं. यह बदलाव आ चुका है. शिक्षक-शिष्य संबंध टूट चुके हैं. ऐसा इसलिए क्याेंकि दाेनाें आेर से रिश्ताें की पवित्रता में कमी आयी है. यह न ताे छात्राें के हित में है आैर न ही शिक्षकाें के हित में. दाेषी काैन, बताना असंभव. पुराने दिन लाैटे, यही अपेक्षा है ताकि आपसी विश्वास फिर से कायम हाे सके.
लेखक प्रभात खबर (झारखंड) के वरिष्ठ संपादक हैं.

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