सदगुरु स्वामी आनंद जी
सामान्य रूप से पितृपक्ष यानि श्राद्ध के काल को मृत व्यक्तियों व पूर्वजों से जोड़ कर देखा जाता है और कहीं-कहीं इसे अशुभ काल माना जाता है, जो इस पावन कालखंड की बेहद त्रुटिपूर्ण व्याख्या है. समय के इस हिस्से में अपार संभावना छुपी हुई है.
आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार यह तो एक ऐसी अदभुत बेला है, जिसमें मानव सृष्टि अपने अल्पप्रयास मात्र से ही बृहद और अप्रतिम परिणाम साक्षी बनती है. अध्यात्म के नजरिये से पितृपक्ष रूह और रूहानी यानि आत्मा और आत्मिक उत्कर्ष का वो पुण्यकाल है, जिसमें कम से कम प्रयास से अधिकाधिक फलों की प्राप्ति संभव है. अध्यात्म, इस काल को जीवात्मा के कल्याण यानी मोक्ष के लिए सर्वश्रेष्ठ मानता है.
जीवन और मरण के चक्र से परे हो जाने की अवधारणा को मोक्ष कहते हैं.श्रद्धया इदं श्राद्धम्. अर्थात् अपने पूर्वजों की आत्मिक संतुष्टि व शांति और मृत्यु के बाद उनकी निर्बाध अनंत यात्रा के लिए पूर्ण श्रद्धा से अर्पित कामना, प्रार्थना, कर्म और प्रयास को हम श्राद्ध कहते हैं. इस पक्ष को इसके अदभुत गुणों के कारण ही पितृ और पूर्वजों से संबद्ध गतिविधियों से जोड़ा गया है. यह पक्ष सिर्फ मरे हुए लोगों का काल है, यह धारणा सही नहीं है. श्राद्ध दरअसल अपने अस्तित्व से, अपने मूल से रूबरू होने और अपनी जड़ों से जुड़ने, उसे पहचानने और सम्मान देने की एक सामाजिक मिशन, मुहिम या प्रक्रिया का हिस्सा थी, जिसने प्राणायाम, योग, व्रत, उपवास, यज्ञ और असहायों की सहायता जैसे अन्य कल्याणकारी सकारात्मक कर्मों और उपक्रमों की तरह कालांतर में आध्यात्मिक और धार्मिक चादर ओढ़ ली.
वक्त के इस पाक टुकड़े को अशुभ काल मानना नादानी है. इस पखवाड़े में स्थूल गतिविधियों को महत्व नहीं दिया गया, क्योंकि आध्यात्मिक दृष्टिकोण स्थूल समृद्धि और भौतिक सफलता को क्षणभंगुर यानी शीघ्र ही मिट जाने वाला मानता है और भारतीय दर्शन इतने कीमती कालखंड का इतना सस्ता उपयोग नहीं करना चाहता. पर सनद रहे कि ऐश्वर्य की कामना रखकर महालक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली समृद्धि की साधना भी इस पक्ष के बिना पूर्ण नहीं होती.
महालक्ष्मी आराधना का द्वितीय खंड में इस पक्ष के प्रथम सप्ताह का प्रयोग होता है. संदर्भ के लिए लक्ष्मी उपासना का काल भाद्रपद के शुक्ल की अष्टमी यानी राधा अष्टमी से आरंभ होकर कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक होता है. परंपराओं के अनुसार इस काल में श्राद्ध, तर्पण, उपासना, प्रार्थना से पितृशांति के साथ जीवन के पूर्व कर्म जनित संघर्ष से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है.
धर्मसिंधु में श्राद्ध के लिए सिर्फ पितृपक्ष ही 96 कालखंड का विवरण प्राप्त होता है, जो इस प्रकार है-
वर्ष की 12 अमावास्याएं, 4 पुणादितिथियां, 14 मन्वादि तिथियां, 12 संक्रांतियां, 12 वैधृति योग, 12 व्यतिपात योग, 15 पितृपक्ष, 5 अष्टका, 5 अन्वष्टका और 5 पूर्वेद्यु:.
मत्स्य पुराण में त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते यानि तीन प्रकार के श्राद्ध नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य का उल्लेख मिलता है. यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है. पर भविष्य पुराण और विश्वामित्र स्मृति द्वादश श्राद्धों यदा, नित्य, नैमित्तिक, काम्यम, वृद्धि, सपिंड, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धयर्थ, कर्मांग, तीर्थ, यात्रार्थ और पुष्टि का उल्लेख करती है.
अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए करें पिंडदान
सनातन हिंदू धर्मावलबियों के लिए गया पितृपक्ष का बड़ा महत्व है. हिंदू धर्म में तीन प्रकार के ऋण के बारे में बताया गया है, देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण. इन तीनों ऋण में पितृ पक्ष या श्राद्ध का महत्व इसलिए है क्योंकि पितृ ऋण सबसे बड़ा ऋण माना गया है. शास्त्रों में पितृ ऋण से मुक्ति के लिए यानि श्राद्ध कर्म का वर्णन किया गया है.
हर साल भद्रपद शुक्लपक्ष पूर्णिमा से लेकर अश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष या श्राद्ध पक्ष कहा जाता है. जिन लोगों को अपने पूर्वजों का सही पुण्यतिथि पता नहीं रहता है, वो इस दिन उन्हें श्रद्धांजलि और पिंडदान करते हैं. पितरों की तृप्ति के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण या पिंडदान यानि पिंड के रूप में पितरों को दिया गया भोजन और जल आदि को ही श्राद्ध कहा जाता है.
शास्त्रों के अनुसार पितृ पक्ष में तर्पण और श्राद्ध करने से व्यक्ति को अपने पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त होता है. जिससे घर में सुख शांति और समृद्धि बनी रहती है. मान्यता है कि अगर पितर रुष्ट हो जाता है तो व्यक्ति को जीवन में बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. शास्त्रों के अनुसार पितर ही अपने कुल की रक्षा करते हैं पितृ पक्ष या श्राद्ध को तीन पीढ़ियों तक करने का विधान बताया गया है.
पितरों को पिंडदान के लिए गया जैसा पवित्र एवं धार्मिक स्थान दूसरा नहीं है. पितर कामना करते हैं कि उनके वंश में कोई ऐसा पुत्र जन्म ले, जो गया जाकर वहां उनका पिंडदान व श्राद्ध करे.
गया में 15 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध पितृपक्ष मेले में देश-विदेश के लाखों लोग अपनी वेश-भूषा, बोल-चाल तथा रहन-सहन के साथ उपस्थित रहते हैं. वायुपुराण में कहा गया है कि गया में ऐसी कोई जगह नहीं, जहां तीर्थ विद्यमान न हो, भारत के समस्त तीर्थों का जमघट है गया में. सनातन हिंदू धर्मावलंबी अनादिकाल से आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर आश्विन अमावस्या तक विशेषकर पितरों की पुनः मुक्ति के लिए पिंडदान, तर्पण तथा कर्मकांडानुसार श्राद्धकर्म करने गया आते हैं.
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, आश्विन माह के कृष्ण-पक्ष यानी पितृपक्ष में पितरों का वास गया में होता है. इस बात का उल्लेख महाभारत में भी किया गया है. यह सर्वविदित है कि जिस प्रकार काशी में व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसे सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति होती है, ठीक उसी प्रकार गया में मृतात्मा को पिंडदान आदि कर देने से उन्हें ऊर्ध्वगति की प्राप्ति होती है.कहा जाता है कि अक्षयवट वृक्ष के नीचे जो कुछ दान किया जाता है वह अक्षय होता है.
गया पूर्वजों के उद्धार के लिए बहुत पवित्र तीर्थ है. यहां यदि व्यक्ति पवित्र मन से जाता है, तो उसे अश्वमेध-यज्ञ करने का फल मिलता है, जो श्राद्धादि कार्य करता है उसके पितृगण स्वर्ग को जाते हैं तथा संक्रांति के दिन श्राद्धकर्म करने से महान फल मिलता है.