टेरर फंडिंग पर अंकुश लगाना, विश्व समुदाय के सामने बड़ी चुनौती

कमर आगा अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार जिस तरह से दुनियाभर में एक भयावह खतरे के रूप में आतंक का विस्तार हो रहा है, उसी तरह से उसे धन मुहैया कराने का तंत्र भी व्यापक होता जा रहा है.स्विट्जरलैंड स्थित एक स्वतंत्र संस्था बाजल इंस्टीट्यूट ऑन गवर्नेंस ने विभिन्न देशों का अध्ययन कर बताया है कि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 10, 2017 8:44 AM
कमर आगा
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
जिस तरह से दुनियाभर में एक भयावह खतरे के रूप में आतंक का विस्तार हो रहा है, उसी तरह से उसे धन मुहैया कराने का तंत्र भी व्यापक होता जा रहा है.स्विट्जरलैंड स्थित एक स्वतंत्र संस्था बाजल इंस्टीट्यूट ऑन गवर्नेंस ने विभिन्न देशों का अध्ययन कर बताया है कि कई देशों में फैले हवाला जैसे तरीकों के जरिये आतंकवाद को आर्थिक मदद मुहैया करायी जा रही है. इस सूची में ईरान, अफगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान जैसे देश शामिल हैं. इसमें पाकिस्तान को 46वें स्थान पर और भारत को 88वें स्थान पर रखा गया है. इस रिपोर्ट के आलोक में आतंक की फंडिंग के मुद्दे पर आधारित है आज का इन दिनों…
आतंकवाद के वित्तपोषण के लिए देशों की सरकारें जिम्मेदार
टेरर फंडिंग को रोकना बहुत ही मुश्किल है. इसकी दो खास वजहें हैं. पहली तो यह कि दुनियाभर में ज्यादातर जगहों पर लिबरल बैंकिंग सिस्टम है, और कुछ ऐसे बैंक भी हैं, जहां जितना चाहे, आप उतना पैसा जमा कर सकते हैं, निकाल सकते हैं. बैंक अपने ग्राहक से यह तक नहीं पूछेगा कि आपके पास इतना पैसा आया कहां से, यह कालाधन है या फिर लूट का माल है. और बैंक का यह काम भी नहीं है. चूंकि इससे बैंकों को फायदा होता है, इसलिए वे अपने ऐसे ग्राहकों के हितों का और निजता का ख्याल भी रखते हैं. वहीं आजकल का बैंकिंग सिस्टम इतना आसान हो गया है कि आप चाहें तो एक मोबाइल से ही लाखों-करोड़ों का लेन-देन कर सकते हैं. इसी तरह से लाखों-करोड़ों का फंड इधर-उधर जाता रहता है. कुछ तो हवाला के जरिये भी पैसा आता-जाता है. इसमें ज्यादातर बैंक यूरोपीय देशों में हैं, जहां पैसा जमा होता है, और फिर वहां से निकलकर दूसरे देशों में जाता है.
दरअसल, टेरर फंडिंग का पता इसलिए नहीं चल पाता, क्योंकि इस बात की भनक तक नहीं होती कि उस पैसे का इस्तेमाल टेररिज्म के लिए होता है. इंटरनेशनल बैंकिंग लॉ के हिसाब से तो कोई भी टेरर फंडिंग कर ही नहीं सकता. लोग कागज पर कुछ कंपनियां खोल लेते हैं और सरकार को यह दिखाते हैं कि वे फलां काम करते हैं, फलां चीजों का व्यापार करते हैं. एक-एक बिजनेसमैन के पास कई-कई कंपनियां हैं, जो कागजों पर लीगल काम को दिखाती हैं कि उनके दुनियाभर में ऑफिस हैं. सारा काम ऑन पेपर हो रहा है, उनके शेयर खरीदे-बेचे जा रहे हैं, और कागज पर सारा सिस्टम एक कॉरपोरेट सिस्टम की तरह ही काम करता है. लेकिन जमीनी तौर पर इसका इस्तेमाल टेररिज्म को बढ़ाने में होता है. यह एक ऐसा जरिया है, जिसके जरिये कालाधन भी सफेद हो जाता है.
दूसरी वजह यह है कि अगर कोई देश ही टेरर फंडिंग में शामिल हो, तो टेरर फंडिंग को रोकना और भी मुश्किल है. देशों के सरकारों के पास ढेर सारे संस्थान और एजेंसियां होती हैं, अगर इन सबकी मिली-भगत हो, तो कोई भी इसको नहीं रोक सकता.
क्योंकि सरकार के पास फंडिंग के सैकड़ों तरीके होते हैं और कोई इसे गलत भी साबित नहीं कर पायेगा. इसकी सबसे अच्छी मिसाल है- पाकिस्तान में सरकार और आइएसआइ का गठजोड़. पांच हजार के सामान को पचाह हजार में या पांच लाख में खरीदा जाता है. सामान के लिए पांच हजार ही दिया गया, लेकिन बाकी पैसे की छिपे तौर पर फंडिंग हो जाती है.
अब टेरर फंडिंग किसलिए की जाती है, इसकी जद में जाते हैं, तो यही समझ में आता है कि इस वक्त वहाबी इस्लाम के प्रचार-प्रसार के नाम पर ज्यादा फंडिंग हो रही है. सऊदी अरब और कुछ दूसरे देशों से वहाबी इस्लाम के नाम पर पैसा इकट्ठा होता है और इसी से ये अपनी गतिविधियां चलाते रहते हैं.
सऊदी अरब का खास तौर से यही मानना रहा है कि दुनियाभर में जहां कहीं भी इस्लाम है, वहां-वहां वहाबी विचारधारा वाला यानि वहाबी-सलफी इस्लाम ही फले-फूले. वहाबी इस्लाम का यह एक तरह से अघोषित युद्ध है हनफी इस्लाम के खिलाफ और मालिकी-अशराफी के खिलाफ भी. वे यही चाहते हैं कि उदारवादी विचारधारा वाले हनफी और मालिकी इस्लाम को खत्म होना चाहिए और सिर्फ कट्टर विचारधारा वाला वहाबी इस्लाम ही कायम रहे. इनके लिए सबसे बड़े दुश्मनों में दो लोग हैं- लोकतांत्रिक सरकारें और सूफी इस्लाम. यही वजह है कि पिछले दिनों पाकिस्तान में सूफियों के मजारों पे आतंकी हमले हुए. दरअसल, जितना ही वहाबी इस्लाम फैलेगा, उतना ही कट्टरता को बढ़ावा मिलेगा. इसीलिए इसके लिए खूब फंडिंग होती है. यह सब जेहाद नहीं है, बल्कि इस फंडिंग से इस्लामी देशों में अपने पसंद की सरकार बनाने की कवायद है, ताकि उनकी विचारधारा का विस्तार हो सके. यह सब उनकी विदेश नीति का एक हिस्सा भी है, जिसके तहत फंडिंग की जाती है. अब अगर उससे आतंकवाद बढ़ता है, तो इसी से उन्हें फायदा होना है.
इस्लामी देश टेरर फंडिंग करते हैं, यह समझ में आता है. लेकिन दूसरे ऐसे देश क्यों फंडिंग करते हैं, जहां इस्लाम नहीं है. यह अचंभेवाली बात नहीं है, बल्कि समझनेवाली बात है. दरअसल, ऐसे देश इस्लामी देशों की सरकारों को बनाने-गिराने के लिए फंडिंग करते हैं. जैसे सीरिया में इस वक्त बशर अल-असद की सरकार है, जिसे गिराने के लिए फंडिंग हुई है. इनको टेररिस्ट नहीं कहा जाता है, बल्कि गुड टेररिस्ट कहा जाता है, जो सीरिया की सरकार गिराने के लिए लड़ते हैं. इसी तरह से लीबिया में इन लोगों ने गद्दाफी को हटाया था, जिसमें बाहर के लोगों को फंड देकर गद्दाफी के खिलाफ इस्तेमाल किया गया. इसकी लिस्ट बहुत लंबी है और यह फंडिंग अभी रुकनेवाली नहीं है.
ये देश एक तरफ दुनिया से आतंकवाद मिटाने की बात करते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ गुड टेररिस्ट की संज्ञा देकर आतंकी गुटों को फंडिंग भी करते हैं. इसलिए टेरर फंडिंग को रोक पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि इसमें देशों की सरकारों का अपना इंटरेस्ट शामिल होता है.
हालांकि, यह एक बड़ा खतरा है, न सिर्फ दूसरे देशों के लिए, बल्कि उन देशों के लिए भी, जो टेरर फंडिंग करते है. क्योंकि सनकी आतंकी कब किस पर हमला कर दें, कोई नहीं जानता. टेरर फंडिंग तभी रुक सकती है, जब इसमें शामिल देशों पर कोई इंटरनेशनल रेगुलेशन सिस्टम बनाया जायेगा. ऐसा सिस्टम विकसित करना होगा कि टेरर फंडिंग करनेवाले देश पर भारी आर्थिक जुर्माने के साथ ही उस पर प्रतिबंध लगाया जाये. यह तभी हो सकता है, जब सारे देश खुद ही ऐसा चाहें और उनकी सरकारें ऐसी फंडिंग पर नकेल कसें. नहीं तो मुश्किल है कि यह मकड़जाल कभी टूट पाये.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
आतंक काे अार्थिक सहायता
आतंकवादियों को आतंक फैलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है. आतंकी समूह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अपराधी संगठनों से जुड़े होते हैं, जो मादक पदार्थ, हथियारों की तस्करी, फिरौती के लिए अपहरण व अवैध वसूली जैसे धंधों में लिप्त रहते हैं और ये अपराधी संगठन ही इन्हें आर्थिक सहायता मुहैया कराते हैं.
यहां सवाल यह भी है कि ये अपराधी संगठन और आतंकी समूह जिस धरती से अपनी गतिविधियां संचालित करते हैं, क्या वहां की सरकार को इस बात की जानकारी नहीं है? दरअसल, आतंकियों को आर्थिक सहायता प्रदान करने में गुप्त रूप से कई देश शामिल हैं.
आतंक के वित्तपोषण में शीर्ष 50 देशों में है पाकिस्तान
स्विट्जरलैंड स्थित संस्था बाजल इंस्टीट्यूट ऑन गवर्नेंस ने कालेधन को सफेद करने और आतंकियों को धन मुहैया कराने को लेकर 146 देशों के अध्ययन के आधार पर हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है.
इस रिपोर्ट के मुताबिक, आतंकियों को आर्थिक सहायता मुहैया करानेव कालेधन को सफेद करनेवाले शीर्ष 50 देशों में पाकिस्तान 46वें स्थान पर है. इस रिपोर्ट में शीर्ष 10 देशों की सूची में ईरान पहले स्थान पर है. ईरान के बाद अफगानिस्तान, गिनी-बिस्साउ, ताजिकिस्तान, लाओस, मोजांबिक, माली, यूगांडा, कंबोडिया और तंजानिया हैं. वहीं दक्षिण एशिया के देशों में अफगानिस्तान दूसरे, नेपाल 14वें और श्रीलंका 25वें स्थान पर है.
क्या कहती है अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट
अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा इस वर्ष जुलाई में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान स्थित आतंकी समूह लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-माेहम्मद इस्लामाबाद सहित पाकिस्तानी सेना और सुरक्षा बलों से आर्थिक सहायता लेती है और तहरीक-ए-तालिबान जैसे आतंक समूह को आर्थिक मदद देती है. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि लश्कर-ए-तैयबा का सहायक संगठन जमात-उद-दावा और फलह-इ-इंसानियत फाउंडेशन इस्लामाबाद में खुलेआम धन की उगाही करते हैं.
ईमानदारी और स्पष्टता मांगती है यह लड़ाई
डॉ अंबरीन अागा
रिसर्च फेलो,
इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स, नयी दिल्ली
पूरे विश्व में बढ़ते सुरक्षा खतरों के मद्देनजर दहशतगर्दी के वित्तपोषण का मुद्दा घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय दोनों रूपों में एक जटिल चुनौती पेश कर रहा है. शासन के मुद्दों के अध्ययन करनेवाले गैरलाभकारी संगठन, बाजल इंस्टीट्यूट ऑफ गवर्नेंस ने अपने धनशोधन विरोधी अध्ययन के हालिया छठे संस्करण (2017) में 146 ऐसे देशों की पहचान की है, जो दहशतगर्दी के वित्तपोषण एवं धनशोधन की ऊंची जोखिम झेल रहे हैं.
0 (कम जोखिम) तथा 10 (सर्वोच्च जोखिम) के पैमाने पर 8.60 अंकों के साथ ईरान और 8.38 अंकों के साथ अफगानिस्तान पहले और दूसरे पायदानों पर हैं, जबकि लिथुआनिया (3.67) तथा फिनलैंड (3.04) सबसे कम जोखिम झेलते हैं. इस पैमाने पर 2017 में इन सभी देशों को प्राप्त औसत अंक 6.15 हैं, जो खासे ऊंचे कहे जायेंगे. बांग्लादेश की स्थिति बेहतर हुई है, जबकि अपने 6.64 अंकों के साथ पाकिस्तान 46वें और 5.58 अंक हासिल कर भारत 88वें स्थान पर है.
यह रिपोर्ट न तो कोई नया खुलासा है, न ही कोई सदमा पहुंचाती है. यह एक ऐसे वक्त में आयी है, जब पूरा विश्व, खासकर अफगानिस्तान, सीरिया, पाकिस्तान तथा इराक जैसे संघर्ष क्षेत्र गैर-राज्य तत्वों द्वारा हिंसा के इस्तेमाल से पैदा ऊंची असुरक्षा महसूस कर रहे हैं.
प्रसंगवश, ‘साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल’ के अनुसार, दहशतगर्दी की वजह से दक्षिण एशिया के अंतर्गत भारत के पड़ोस में ही पाकिस्तान में वर्ष 2012 से अब तक 9,752 नागरिक मौत के मुंह में समा गये, जबकि ‘यूनाइटेड नेशन्स असिस्टेंस मिशन इन अफगानिस्तान’ ने अफगानिस्तान में उसी साल से अब तक 18,343 नागरिकों की मौतें दर्ज कीं.
वैश्विक प्रयासों के परिदृश्य
इससे भी अहम बिंदु यह है कि यह रिपोर्ट ब्रिक्स शीर्ष सम्मेलन (3-5 सितंबर) तथा जी20 शीर्ष सम्मेलन (7-8 जुलाई) सहित अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय सम्मेलनों की एक ऐसी शृंखला की पृष्ठभूमि में आयी है, जिनमें विभिन्न राष्ट्रों ने दहशतगर्दी के विरुद्ध अपने संघर्ष में उसके वित्तपोषण तथा धनशोधन पर अपनी साझी चिंताएं व्यक्त की हैं.
उन्होंने इन अवैध क्रियाकलापों द्वारा प्रस्तुत खतरे को अवैध धन प्रवाह के निवारण समेत कई तरह से संबोधित किया. मगर जैसा यह रिपोर्ट संकेत करती है, वास्तविक स्थिति तो धनशोधन से संबद्ध समस्या की विभीषिका बयान करते हुए दहशतगर्दी के वित्तपोषण करनेवाले माध्यमों के मुकाबले की दिशा में इन देशों द्वारा किये जा रहे प्रयासों के बारे में बहुत कुछ कहती है.
इन देशों के सामने प्रस्तुत चुनौती दो प्राथमिक मोरचों पर है- पहला, मुकाबले की रणनीति और दूसरा, दहशतगर्दी पर सियासी सर्वसम्मति. सबसे पहले, देशों के लिए इसकी आवश्यकता सर्वोच्च है कि अपनी रणनीतियों में वे लचीले तथा अनुकूलन करनेवाले हों, क्योंकि दहशतगर्दी तथा दहशतगर्द संगठनों के लक्षण बदलते रहे हैं, जो पिछले सालों में धन के नकद स्थानांतरण एवं धनशोधन के आधुनिक तौर-तरीके अपना कर पकड़े जाने से बचते रहे हैं.
दूसरे, आतंकवाद तथा प्रति-आतंकवाद पर सियासी सर्वसम्मति हासिल करने में देशों को राजनीतिक औचित्य का त्याग करते हुए उन निहित स्वार्थों की पहचान करनी चाहिए, जो आतंकवाद और उसके कारणों तथा परिणामों की तार्किक और व्यवस्थित समझ विकसित करने को असंभव बना देते हैं. नतीजा यह होता है कि वे आतंकवाद के विरुद्ध वृहत्तर संघर्ष के विरोधी बन कर आतंकवादी संगठनों के वैश्विक विस्तार और सक्रियता को सहायता पहुंचाते हैं.
अस्पष्ट रीति-नीति ने बढ़ायी जोखिम
वैसे तो बाजल रिपोर्ट प्रथमतः दहशतगर्दी के अर्थशास्त्र पर गौर करती है, पर उसमें 9/11 के आतंकी हमले के बाद अक्तूबर 2001 से प्रारंभ हुए दहशतगर्दी के विरुद्ध अमेरिकी युद्ध के संदर्भ में इस मुद्दे के राजनीतिक आयाम के संकेत भी हैं.
हालांकि, दहशतगर्दी के वित्तपोषण के नेटवर्क का खात्मा इस दिशा में अमेरिकी रणनीति का अहम हिस्सा रहा है, यह समस्या न केवल आर्थिक विकास को कमजोर करते हुए, बल्कि राष्ट्रों की वृहत्तर सुरक्षा को खतरे में डालती हुई विश्व व्यवस्था को गंभीर चुनौती दे रही है. दरअसल, यह दहशतगर्दी के वित्तपोषण के विरुद्ध लड़ाई में संबद्ध राष्ट्रों की लापरवाह तथा कमजोर रीति-नीति का नतीजा है, जिन्होंने पहले तो इस लड़ाई के एजेंडे को वृहत्तर भ्रष्टाचार-रोधी कार्यक्रम तक सीमित कर दिया और उपस्थित खतरे तथा उसके तंत्र की उपेक्षा कर दी, जिसने दहशतगर्द संगठनों का पूरे विश्व में विस्तार कर दिया.
इसके अलावा, यह समस्या पूरे विश्व में, और खासकर पश्चिमी एशिया और अफगानिस्तान में फैले युद्धक्षेत्रों में विदेशी सैन्य हस्तक्षेपों में विभिन्न राष्ट्रों के निहित स्वार्थों की वजह से और भी जटिल होती गयी.
अपने स्वार्थ साधने में ये राष्ट्र कुछ चुनिंदा दहशतगर्दों के साथ संलिप्त हो गये, जिसने ‘अच्छे’ दहशतगर्द, ‘बुरे’ दहशतगर्द और ‘विद्रोही’ की नयी त्रुटिपूर्ण श्रेणियां रच डालीं. साल 1980 के दशक में अफगानिस्तान में और वर्तमान में सीरिया में अमेरिकी हस्तक्षेप को मिसाल के तौर पर लिया जा सकता है. इसे विभिन्न देशों द्वारा अपने ‘राष्ट्रीय हितों’ के लिए सैन्य हस्तक्षेपों को जायज बताने हेतु अपनायी रणनीतियों के संदर्भ में समझा जाना चाहिए, जिसने अंतरराष्ट्रीय दहशतगर्दी को परिभाषित करने तथा उसके वित्तपोषण को रोकने में अस्पष्टता और असामंजस्य को बढ़ावा दिया.
रीति-नीति तथा दहशतगर्दी की समझ को लेकर ऐसी संकीर्णता तथा अवसरवादिता ने न केवल तबाही पैदा की है, बल्कि दुर्भाग्यवश यह संकेत भी किया है कि जरूरी स्पष्टता और सामंजस्य के बगैर उसके नियंत्रण की कोई भी नीति संभव, विश्वसनीय तथा स्वीकार्य न हो सकेगी.
(अनुवाद: विजय नंदन)
ये हैं आतंकियों के आर्थिक मददगार
एक रिपोर्ट के अनुसार मध्य एशिया के जितने भी आतंकी समूह हैं, उन सभी को तालिबान द्वारा धन मुहैया कराया जाता है. अफगानिस्तान मादक पदार्थों का सबसे बड़ा उत्पादक है और इससे यह बहुत बड़ी मात्रा में धन कमाता है. इस पैसे का इस्तेमाल तालिबान इस्लामिक देशों व क्षेत्रों में अपना राजनैतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए करता है और उसके बाद वह अवैध तरीकों से और कभी-कभी अनुदान व सहायता के मद में सरकार विरोधी गतिविधियों और आतंक को बढ़ावा देने के लिए धन मुहैया कराता है. वहीं, आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट व सीरिया के अन्य चरमपंथी समूहों काे कतर व कुवैत के प्रभावशाली लोगों सहित अरब के कई देश भी आर्थिक मदद देते हैं.
इस्लामिक स्टेट के शुरुआती दिनों में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने भी इसे मदद की थी. इंडोनेशिया के फाइनेंशियल ट्रांजैक्क्शन रिपोर्ट्स एंड एनालिसिस (पीपीएटीके) की 2016 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2014 व 2015 में इंडोनेशिया में आतंकवादियों को मदद करने के लिए दूसरे देशों से धन भेजा गया.
रिपोर्ट का मानना है कि ये पैसे मलेशिया, सिंगापुर व मध्य-पूर्व के देशों में आप्रवासी कामगारों के हाथों भेजे गये. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ये पैसे ऑस्ट्रेलिया, हांग कांग, मलेशिया, सिंगापुर सहित अन्य देशों से इंडोनेशिया के आतंकी समूहों को भेजे गये. ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट का कहना है कि दक्षिण एशिया के देशों में इस्लामिक स्टेट के द्वारा भी आतंकियों को आर्थिक मदद दी जाती है. अमेरिकी सेना द्वारा हाल ही में जारी खुफिया रिपोर्ट ने इस बात का खुलासा किया है कि अफ्रीकी देशों में आतंक का पर्याय बन चुके बोको हराम को अल-सबाह और अल-कायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन आर्थिक सहायता देते हैं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बोको हराम को बोर्नो और कैमरुन जैसे देश के स्थानीय वित्तपोषक भी धन देते हैं. न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट कहती है कि पेरिस में होनेवाले आतंकवादी हमले के लिए आइएनजी बेल्जियम ने जेहादियों को पैसे दिये थे.
कश्मीर में एनआइए की छापेमारी
कश्मीर घाटी में आतंकियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने और धन के अवैध लेन-देन को लेकर राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने जून से लेकर अब तक कश्मीर, दिल्ली, गुरुग्राम सहित कई स्थानों पर छापेमारी की है. इस छापेमारी के दौरान अनेक अलगावादी नेताओं और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार किया गया है. गिरफ्तारी के दौरान अब तक एजेंसी करोड़ों रुपये, पेन ड्राइव, लैपटॉप, सोने के आभूषण, पाकिस्तान स्थित प्रतिबंधित आतंकी संगठनों के लेटरहेड सहित अनेक आपत्तिजनक सामग्रियां बरामद कर चुकी है. इससे पहले एनआइए ने जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं को पाकिस्तान से मिलनेवाले धन और उनका घाटी में पत्थरबाजी सहित राज्य में होनेवाले प्रदर्शनों में इस्तेमाल को लेकर एफआइआर दर्ज किया था.
कहां से आता है कश्मीर में आतंकियों के पास पैसा
सिक्योरिटी सोर्सेज द्वारा साउथ एशिया इंटेलिजेंस रिव्यू को मुहैया की गयी सूचना के अनुसार, जम्मू व कश्मीर में आतंक फैलाने के लिए पाकिस्तान आतंकी समूहों और अलगाववादियों पर प्रतिमाह लगभग 250 से 300 मिलियन रुपये खर्च करता है. जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के पोषण के लिए निम्न तरीके से पैसों का प्रबंध किया जाता है.
– पाकिस्तान में भारत के जाली नोट छापकर आतंकवादियों को आर्थिक सहायता दी जाती है.
– कुछ मध्य पूर्वी और यूरोपीय देशों से जेहाद फंड के नाम पर अनुदान एकत्रित कर कश्मीर में आतंकियों की मदद की जाती है.
– जम्मू-कश्मीर के व्यापारियों, ठेकदारों और प्रभावशाली लोगों से उगाही कर आतंक फैलाने के लिए धन एकत्रित किया जाता है.
– हवाला और नशे के कारोबारियों के जरिये पाक से आतंकियों और अलगााववादियों की मदद के लिए धन भेजा जाता है.
– दुबई में कालीन और हाथ से बने सामान बेचनेवाले कुछ कश्मीरी व्यापारी भी आतंकी व अलगाववादी संगठनों को पैसे देते हैं.
– मुंबई और दिल्ली में काम करनेवाले हवाला कारोबारी भी आतंक के लिए फंडिंग करते हैं.
– जकात के नाम पर भी पैसा इकट्ठा किया जाता है.
– इसके अलावा कश्मीर में आतंकियों को पैसा मुहैया कराने के लिए वहां के अलगाववादी संगठन स्थानीय लोगों से चंदा भी एकत्रित करते हैं.

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