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विश्वकर्मा पूजा पर विशेष : ये है बिहार के हुनरबाज, न कोई डिग्री, न डिप्लोमा, लेकिन बनायी अपनी पहचान

इन्होंने न तो किसी विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री ली है. न ही कोई डिप्लोमा किया है. लेकिन हुनर ऐसा कि बड़े-बड़े संस्थानों से डिग्री लेने वाले इंजीनियर भी इनके आगे फेल हैं. विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर पढ़िए बिहार के कुछ ऐसे ही लोगों के बारे में. सफलता किसी डिग्री की मोहताज नहीं होती, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 17, 2017 10:00 AM
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इन्होंने न तो किसी विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री ली है. न ही कोई डिप्लोमा किया है. लेकिन हुनर ऐसा कि बड़े-बड़े संस्थानों से डिग्री लेने वाले इंजीनियर भी इनके आगे फेल हैं. विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर पढ़िए बिहार के कुछ ऐसे ही लोगों के बारे में.
सफलता किसी डिग्री की मोहताज नहीं होती, बल्कि सीखने और कुछ कर गुजरने की ललक व लगन होनी चाहिए. यह मानना है मधेपुरा जिले के कहारा निवासी ज्योतिष कुमार का. बीई व बीटेक की डिग्री लेकर स्टार्टअप की ओर कदम बढ़ाने वाले युवाओं के लिए ज्योतिष प्रेरणास्राेत हैं, जबकि ज्योतिष के पास बीई या बीटेक की कोई डिग्री नहीं है.
पटना
ज्योतिष ने बनायी दुनिया में पहचान
ज्योितष के पास बीएनएम यूनिवर्सिटी से बीएससी और सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी से एमएससी की डिग्री है. लेकिन अपनी योग्यता के बल पर देश-दुनिया में एक सफल सॉफ्टवेयर डेवलपर के रूप में अपनी पहचान बनायी है.
बीएससी करने के बाद ज्योतिष अपने भाई के यहां नागपुर चले गये. घर में एक पुराना कंप्यूटर था. उससे शुरुआत हुई. भाई की कंपनी की आइटी टीम से प्रोग्रामिंग व लैंग्वेज सीखा. उसके बाद बिजनेस संबंधी कुछ चीजों को डेवलप करना शुरू कर दिया. जॉब सर्च करने लगे. इसके माध्यम से पटना में ही एक कंपनी में तीन हजार रुपये की नौकरी मिल गयी. उसी दौरान दिल्ली में सात हजार रुपये की नौकरी मिल गयी. फिर गुड़गांव की एक कंपनी में अच्छी नौकरी मिली, जिसके माध्यम से आस्ट्रेलिया जाने का मौका मिला. वहां मोड़ा कोल माइंस में काम किया. इसके बाद ज्योतिष कुमार कुछ अपना करने की इच्छा लिये दिल्ली आ गये.
लक्ष्मीनगर में 10 हजार रुपये से अपनी कंपनी की शुरुआत की. इंटरनेट के माध्यम से प्रोजेक्ट लेकर उसे डेवलप करना शुरू कर दिया. लोगों की मांग को समझते हुए उसे पूरा करते गये. कंप्ट्रक्शन व मैनुफेक्चरिंग कंपनियों के लिए इआरपी, अस्पतालों के लिए एचएमएस तथा ट्रैवल एंड होटल उद्योग के लिए एप डेवलप करने लगे. वर्तमान में डॉक्टरों के लिए ऑटोमेशन, बुकिंग आदि के सॉफ्टवेयर भी तैयार कर रहे हैं.
सहरसा
दोनों पैर व एक हाथ से दिव्यांग खूब कर रहे काम
जीवन में धैर्य, लगन व ईमानदारी हो, तो आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता. सहरसा के हटिया गाछी में भवानी इंजीनियरिंग वर्क्स चला रहे सुरेश प्रसाद सिंह इस बात को प्रमाणित कर रहे हैं. एक हाथ से वेल्डिंग सहित अन्य काम कर रहे सुरेश दिव्यांगों के लिये प्रेरणास्रोत हैं.
कोशिशों से मिली कामयाबी
जिले के रौता निवासी मधुसूदन प्रसाद सिंह के दूसरे पुत्र सुरेश प्रसाद सिंह पांच वर्ष के आयु में ही दोनों पांव व एक हाथ से पोलियोग्रस्त हो गये थे. दोनों पांव व दाहिना हाथ पूरी तरह नाकाम हो गया. किसी प्रकार जान तो बची, लेकिन जीवन अंधेरा लगने लगा. पिता ने सुरेश को बेकाम व बीमार समझ पढ़ाई करने से रोक दिया. लेकिन धुन के पक्के सुरेश ने पिता के खेत जाते ही किसी तरह घिसटते हुए गांव के निकट के विद्यालय पहुंच दोस्तों से पुस्तकों का सहयोग लेकर सातवीं तक की पढ़ाई पूरी की
1981 में सरकार द्वारा सभी मैट्रिक उत्तीर्ण नि:शक्तों को शिक्षक बनाया गया. आस में गांव के निकट विराटपुर उच्च विद्यालय के प्रधानाध्यापक रंजीत सिंह से मिल अपनी जिज्ञासा बतायी. उन्होंने इनका भरपूर सहयोग दिया व नामांकन के साथ ही पुस्तकें भी उपलब्ध करायी. वर्ष 1983 में मैट्रिक पास करने के बाद भी जब नौकरी की आस पूरी नहीं हुई, तो गांव में किसी तरह पांच हजार रुपये की व्यवस्था कर सहरसा की राह पकड़ ली.
सहरसा पहुंच कर मित्र महेंद्र चौधरी के साथ मिल कर 1984 में सहरसा कॉलेज गेट के निकट बैटरी बनाने की दुकान खोली. इस बीच सुरेश ने अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए बीए ऑनर्स की डिग्री भी प्राप्त की.
पॉलिटेक्निक के प्रो एएम झा ने इन्हें कॉलेज ले जाकर छात्रों के बीच बैटरी बनाने की विधि का प्रदर्शन कराया. उनके फॉर्मूले को जांच के लिए कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) भेजा गया. जहां शत-प्रतिशत सही पाये जाने पर उन्हें प्रशस्ति पत्र भी प्रदान किया गया. लेकिन जब बैटरी की दुनिया से जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती नहीं दिखी, तो बिना अनुभव के इंजीनियरिंग वर्क्स में कदम रखा. बार-बार फेल होने के बाद भी मेहनत जारी रखा. आज ट्रॉली, कल्टीवेटर, ग्रिल, गेट, कृषि संबंधित पार्ट्स, रोटावेटर पार्ट्स सहित अन्य उपकरणों के बनाने में सिद्धहस्त हुए. आज लगभग पूरा शहर जानने लगा है.
रक्सौल (मोितहारी)
61 कारखानाें में कोई इंजीनियर नहीं
शहर से सटा शीतलपुर गांव सेलर (धान से चावल बनानेवाली मशीन) उद्योग का हब बन गया है. यहां 61 कारखाने हैं, िजनमें दो हजार लोग काम करते हैं, लेिकन इनमें से कोई ऐसा नहीं है, िजसने इंजीिनयिरंग की िडग्री ली है.
अनुभव के बल पर संवार रहे जिंदगी
शीतलपुर में कहीं कच्चे माल से लदा ट्रक खड़ा िमलता है, तो कहीं बनी हुई मशीनों को ले जाने के िलए ट्रैक्टर व अन्य वाहन िदखते हैं. गांव में जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, कारखाने की आवाज और तेज होती जाती है. इसके साथ ही गांव की चहल-पहल भी अलग है.
शीतलपुर गांव में सेलर उद्योग की स्थापना करनेवाले वासुदेव शर्मा भी पढ़े-िलखे नहीं थे. रोजी-रोटी के जुगाड़ में वो 1972 में पड़ोसी देश नेपाल गये थे, जहां मजदूर के तौर पर उन्होंने सेलर उद्योग में काम करना शुरू िकया था. वहां जापानी इंजीिनयर आते थे. उन्हीं से यह कला वासुदेव ने सीखी और जब पारंगत हो गये, तो 1981 में शीतलपुर में िदल्ली से लायी एक मशीन के सहारे सेलर बनाना शुरू िकया.
काम शुरू हुआ, तो पहले ग्राहक की तलाश होने लगी, लेिकन वासुदेव शर्मा पर कोई िवश्वास करने को तैयार नहीं था, तब िबहार के दूसरे छोर पर रहनेवाले कैमूर के अमरदेव िसंह ने भरोसा जताया और वासुदेव शर्मा से पहली सेलर मशीन खरीदी. मशीन खरीदने के बाद भी अमरदेव िसंह के इसके काम करने पर भरोसा नहीं था, लेिकन जब मशीन ने काम शुरू िकया, तो िस्थतियां बदल गयीं.
21 अप्रैल 2012 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शीतलपुर आये थे. उन्होंने सेलर उद्योग की जानकारी ली और इसको बढ़ावा देने का आश्वासन िदया. पटना वापस जाकर सेलर व्यवसायियों का कलस्टर बनाने की पहल की. इसके बाद एनआइटी और आइआइटी के प्रोफेसर व छात्रों ने शीतलपुर का दौरा िकया. यहां के कारीगरों को ट्रेनिंग दी.
सासाराम
कन्नी लाल का तो बस काम बोलता है
कई बार प्रतिभा खुद को निखारने के रास्ते भी खोज लेती है और असंभव को संभव बना देती है. ऐसे ही हैं सासाराम के मेकैनिक कन्नी लाल, जो बैलगाड़ी से लेकर हार्वेस्टर तक के वैकल्पिक उपकरण तैयार करने में माहिर हैं.
अपने बूते बदल दी जिंदगी
शहर के मोरसराय इलाके में लक्ष्मी इंजीनियरिंग वर्क्स के कर्ता-धर्ता कन्नी लाल अपने हुनर के लिए जाने जाते हैं. उन्हें जानने वाले कहते हैं कि अपने ट्रेड में कन्नी लाल वह कर सकते हैं, जो करने में उसी ट्रेड के ढेर सारे इंजीनियर्स हाथ खड़े कर देते हैं. और यह सब तब है, जब सबको पता है कि कन्नी लाल के पास इंजीनियरिंग की कोई डिग्री नहीं है. कोई डिप्लोमा तक भी नहीं.
अच्छी बात यह है कि जो आस लिये आते हैं, वे कन्नी लाल के ठिकाने से निराश लौटते भी नहीं. कन्नी लाल मूलत: गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) के रहनेवाले हैं. 1971 में बक्सर में उनकी शादी हुई थी. तब वह बेरोजगार थे. उनके ससुर राउरकेला (ओड़िशा) में रेलवे में नौकरी करते थे. उन्होंने दामाद की स्थिति देख उन्हें राउरकेला बुलाया. यह कह कर कि वह वहीं रेलवे में नौकरी लगवा देंगे. नौकरी की उम्मीद लिये कन्नीलाल राउरकेला तो पहुंचे, पर ढाई-तीन महीने यूं ही बैठे रहे.
काम नहीं मिला. एक दिन ऊब कर वह खुद ही काम की खोज में चल दिये. चलते-चलते वह जेनिथ इंडस्ट्रियल लिमिटेड पहुंचे. यहां मशीनरी कल-पुर्जों का काम होता था. उन्होंने संस्थान के मालिक से संपर्क कर काम सीखने और करने की इच्छा जतायी. मालिक ने बदले में उनसे प्रतिमाह दो रुपये की फीस मांगी. कन्नी लाल तैयार हो गये. काम सीखने और करने लगे. पर, राउरकेला की दूरी इतनी थी कि जब चाहें गांव आना संभव नहीं था. इसलिए जैसे ही उन्हें लगा कि वह अपने बूते खुद भी कुछ कर सकते हैं, यहीं से उनकी जिंदगी बदल गयी.
बिहारशरीफ
विरासत में मिला हुनर इंजीनियरों को दे रहे मात
मन में इनोवेशन करने की ठान ले, तो उसके लिए न तो आईटीआई की डिग्री की जरूरत है और न ही आईआईटी के
सर्टिफिकेट की. ऐसे ही एक व्यक्ति हैं नूरसराय बाजार के राजेश विश्वकर्मा.
मक्का की खेती करने वाले किसानों के लिए राजेश विश्वकर्मा ने मेज थ्रेसर मशीन बनायी है. इसकी कीमत 18 हजार रुपये है. इस मेज थ्रेसर के माध्यम से प्रतिघंटा पांच टन मकई का बाल छुड़ाया जाता है. इस मेज थ्रेसर को चलाने के लिए घरेलू पांच एचपी का डीजल इंजन का प्रयोग किया जाता है.
पहले मकई की खेती करने वाले किसानों का परिवार कई महीनों तक मकई के बाल से दाना निकालने में लगा रहता था. किसानों को इसके लिए कई दिनों तक लगातार मजदूरों को लगाना पड़ता था. इस मशीन के माध्यम से बड़ी आसानी से काफी कम समय में मकई के बाल से दाने को अलग किया जा सकता है. राजेश विश्वकर्मा का संस्थान दुर्गा इंजीनियरिंग वर्क्स ने अपनी अलग पहचान बना ली है. राजेश विश्वकर्मा बताते हैं कि वे जैसे-तैसे मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की है.
हमलोग कहां से आईटीआई व इंजीनियरिंग की पढ़ाई करेंगे. हमलोग की जाति ऐसी है कि बचपन से बिना पढ़े ही इंजीनियर हैं. पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमलोगों का यह पुश्तैनी धंधा है. इस धंधे को बचाने के लिए लोगों से फीडबैक लेकर हमलोग अक्सर नये-नये यंत्र बनाते रहते हैं. आम लोगों की डिमांड व किसानों की मांग के अनुसार यंत्र बनाते रहते हैं.
पूर्णिया…
हाथ की कला से मिल गया मुकाम
शहर के महबूब खां टोला स्थित बजरंग विद्युत कर्मशाला के मालिक अजय कुमार सिंह बेरोजगार थे और जब अपनी कर्मशाला खोल कर स्वयं मोटर री-बाइडिंग करने लगे, तो कंपनी मालिक बन गये.
1974 में की थी वर्कशॉप
अजय सिंह बताते हैं कि उन्होंने जब वर्कशॉप खोला, तो खुद विद्युत सामग्री की रिपेयरिंग करने लगे. उनके कार्य से ग्राहकों को काफी संतुष्टि मिली. इसी कारण वे आगे बढ़ते रहे. उन्होंने बताया कि पूर्णिया के महबूब खां टोले में श्री बजरंग विद्युत कर्मशाला के नाम से वर्ष 1974 में वर्कशॉप खोला. करीब 14 वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद मरंगा में बिजली सामग्री की एक इंडस्ट्री भी स्थापित की, जो लायन इंडस्ट्रीज के नाम से जानी जाती है.
यहां मोटर, जेनरेटर और पंखा रिपेयरिंग के साथ-साथ निर्माण भी होता है. श्री सिंह बताते हैं कि वे अपने हाथ से खुद कारीगरी कर आगे बढ़े हैं. इस पेशे में उनका कोई आका नहीं था. 1988 में लायन इंडस्ट्रीज के स्थापना के बाद महबूब खां टोले में ही लायन शो-रूम खोला. इसके बाद वे लगातार आगे बढ़ते रहे.
2200 रुपये से की थी व्यवसाय की शुरुआत: श्री सिंह ने बताया कि वे मूल रूप से कटिहार जिले के दिल्ली दिवानगंज के रहने वाले हैं. उनके पिताजी पूर्णिया में सरकारी मुलाजिम थे. इसी कारण वे पूर्णिया आये. उन्होंने बताया कि अपने निजी व्यवसाय की शुरुआत उन्होंने महज 2200 रुपये में की थी. उनसे सीख कर करीब चार दर्जन लोगों ने पूर्णिया, सहरसा व भागलपुर प्रमंडल में अपना वर्कशॉप की शुरुआत की हैउन्होंने बताया कि इसी कर्मशाला की मेहनत से दो बेटों को मैनेजमेंट व एक बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर मुकाम पर पहुंचाया है.
भागलपुर
कागज पर अंगूठा काम इंजीनियर जैसा
धौंकनी (बेलॉज) के कारोबार पर बढ़ई का एकाधिकार माना जाता है. लेकिन इस मिथक को गलत साबित किया है कासिमबाग (हबीबपुर) के उमेश दास ने. ब्लोअर के जमाने में भी इनकी भाथी की काफी डिमांड है.
विपरीत हालातों में भी नहीं हारे
उमेश दास कहते हैं कि पिता सुंदर दास रिक्शा चलाते थे. मां भी पढ़ी लिखी नहीं थीं. घर की परिस्थितियां और माहौल पढ़ाई की सोचने भी नहीं दिया. किशोर उम्र से ही अपने घर कासिमबाग (हबीबपुर) से रोज सुबह उल्टा पुल के नीचे पहुंच जाते थे. बेरोजगार देख सुनील शर्मा नाम के भाथी बनानेवाले अपने पास बैठाने लगे. उनके काम में हाथ बंटाने लगे. धीरे-धीरे काम सीख गये. आम का तीन तख्ता, शीशम का मोढ़ा, लेदर और वॉल्व से बननेवाले भाथी भी कई आकार के होते हैं. हर प्रकार की भाथी बनाने में माहिर हैं उमेश दास.
वे कहते हैं कि 30 साल पहले एक भाथी 600 रुपये में बेचते थे. महंगाई बढ़ती गयी. लकड़ी, लेदर महंगा होता गया. अब एक भाथी 1800 से 2500 तक में बिकती है. उनका कहना है कि भाथी बनाना आसान नहीं है. इंजीनियर भी कोई चीज (डिवाइस) बनाता है, तो उसे चलाने के लिए बिजली, बैट्री, ईंधन का सहारा लेना पड़ता है. लेकिन भाथी को चलाने के लिए न तो बिजली की जरूरत है और न ईंधन की. उमेश दास कहते हैं कि पत्नी निर्मला देवी पढ़ी-लिखी हैं. इसी कारण बेटा दीपक कुमार दास बीए पार्ट थ्री में मारवाड़ी कॉलेज में और बेटी सोनम बीए पार्ट थ्री में टीएनबी कॉलेज में पढ़ती है.
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