जानिए क्‍यों पेट्रोल-डीजल की कीमत में आ रहा है उछाल, फिलहाल राहत नहीं…

आर जगन्नाथन वरिष्ठ पत्रकार पेट्रोल एवं डीजल के मूल्य विनियंत्रण तथा खाना पकाने की गैस और किरासन पर सब्सिडी की क्रमिक समाप्ति के रूप में भारतीय इतिहास में सरकार निर्धारित मूल्य नियंत्रण से बाजार निर्धारित मूल्यों की ओर परिवर्तनों की सर्वाधिक सफल नजीर पर मीडिया द्वारा सवाल खड़े करना दुर्भाग्यपूर्ण ही है. विनियंत्रण की दिशा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 20, 2017 6:36 AM
आर जगन्नाथन
वरिष्ठ पत्रकार
पेट्रोल एवं डीजल के मूल्य विनियंत्रण तथा खाना पकाने की गैस और किरासन पर सब्सिडी की क्रमिक समाप्ति के रूप में भारतीय इतिहास में सरकार निर्धारित मूल्य नियंत्रण से बाजार निर्धारित मूल्यों की ओर परिवर्तनों की सर्वाधिक सफल नजीर पर मीडिया द्वारा सवाल खड़े करना दुर्भाग्यपूर्ण ही है.
विनियंत्रण की दिशा में पहला सफल सीमित कदम एनडीए-1 के दौरान उठाया गया था, पर 2004 के चुनाव के कारण उसे वापस ले लिया गया.यूपीए सरकार के अंतर्गत तो विनियंत्रण का कोई नामलेवा तक न रहा और इसके एक दशक के शासन के दौरान पेट्रो उत्पादों पर कुल सब्सिडी 8.5 लाख करोड़ तक पहुंच गयी, जिसने केंद्रीय वित्त व्यवस्था की कमर तोड़ दी. ऐसे में, बुनियादी ढांचों के निर्माण के लिए संसाधन मुहैया कराते हुए पेट्रो उत्पादों जैसे आयातित जिंस की ज्यादा खपत रोकने हेतु उस पर ऊंचे कर ढांचे के लिए इस सरकार की आलोचना अज्ञानतापूर्ण ही कही जायेगी. वर्ष 2016-17 के दौरान केंद्र तथा राज्यों ने मिल कर पेट्रो करों के रूप में लगभग 4.64 लाख करोड़ रुपये उगाहे.
कहना न होगा कि इस कदम को वापस लेना न केवल एक अनावश्यक रूप से लोकलुभावन कदम, बल्कि देश के दीर्घावधि हित के विपरीत भी होगा.
इस नीतिगत परिवर्तन के अगुआ पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान इस निर्णय पर दृढ़ रहने के लिए बधाई के पात्र हैं. हालांकि कई राज्यों में चुनाव सन्निकट हैं, पर प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वे प्रधान का पूरा समर्थन करें. यह सही है कि पेट्रोल-डीजल पर करों के चलते ही उनकी कीमतें ऊंची हुई हैं, पर यह एक ऐसा मामला है, जहां ऊंची कर दरें पूरी तरह उचित हैं. इस औचित्य के निम्नलिखित 10 आधार हैं:
पहला, भारत में पेट्रोल-डीजल की मांग अपूरणीय एवं गैर-लचीली है. भारत अपनी जरूरत के तेल का 80 प्रतिशत आयात करता है और ऊंचे करों, आर्थिक मंदी तथा नोटबंदी के बावजूद 2016-17 में देश में इनकी मांग 5 प्रतिशत बढ़ी है.
यदि ये कीमतें कम रही होतीं, तो इस मांग में वृद्धि कहीं तेज हुई होती और उसके साथ ही न सिर्फ भारत का आयात बिल काफी ऊंचा गया होता, बल्कि खाड़ी के अस्थिर आपूर्तिकर्ताओं पर हमारी निर्भरता भी उसी अनुपात में बढ़ी होती. तथ्य तो यह है कि इस वर्ष के ही अंदर डीजल की मांग अभी और बढ़ेगी, क्योंकि राष्ट्रीय राजमार्गों में तेज निर्माण के साथ ही उन पर माल ढुलाई में भी वृद्धि हो रही है.
दूसरा, सस्ता ईंधन पर्यावरण के लिए नुकसानदेह है. पूरे विश्व में जीवाश्म ईंधन से परे स्वच्छ ऊर्जा की ओर स्थानांतरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है. इस स्थिति में, भारत में इन ईंधनों पर ऊंचे कर सही कहे जायेंगे. दरअसल, भारत में और ज्यादा सार्वजनिक परिवहन की जरूरत है, ताकि यहां बढ़ते शहरीकरण के साथ ही खासकर दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों में निजी वाहनों से पैदा प्रदूषण स्तरों से निजात पायी जा सके. केवल मध्यवर्ग की तुष्टि के लिए इन ईंधनों की कीमतें कम रखना आत्मघाती ही होगा.
तीसरा, पेट्रोल तथा डीजल की कीमतों में अधिक अंतर भी यही संकेत करता है कि यह कर-नीति उचित है, क्योंकि पेट्रोल पर अधिक निर्भर निजी वाहनों के विपरीत सार्वजनिक वाहन ज्यादातर डीजल पर ही निर्भर होते हैं.
चौथा, कच्चे तेल की कीमतें कम होने के बाद भी, ऊंचा कराधान उचित सियासत तथा तार्किक अर्थशास्त्र का प्रतीक है. अभी वैश्विक कीमतें नीची हैं, तो अधिक कर उगाही कर लेना बुद्धिमानी है, ताकि जब वैश्विक कीमतें बढ़ें, तो कर में कमी लाकर उस वृद्धि को नरम किया जा सके. यदि यूपीए सरकार के समय तेल की बढ़ती वैश्विक कीमतों के साथ ही सरकार भी उसकी कीमतों में लगातार क्रमिक बढ़ोतरी करती रहती, तो जनवरी 2013 के बाद तब उसे उसमें अचानक तेज बढ़ोतरी न करनी पड़ती.
पांचवां, तेल पर ऊंचे कर ऊंचे सार्वजनिक निवेश भी सुनिश्चित करते हैं. पिछले बजट भाषण में अरुण जेटली ने कहा था कि बुनियादी ढांचे के सृजन तथा उन्नयन पर लगभग 3.96 लाख करोड़ रुपये व्यय किये जायेंगे, जिसका ज्यादातर हिस्सा मोटर गाड़ियों के उपयोगकर्ताओं से पेट्रो करों के रूप में हासिल किया जायेगा. इन्हीं करों ने सार्वजनिक निवेश में वृद्धि लाकर अर्थव्यवस्था की वर्तमान गति कायम रखी है.
छठा, ऊंचे पेट्रो कर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर स्थानांतरण को आर्थिक रूप से अधिक लाभकारी भी बना देते हैं. यदि जीवाश्म ईंधन सस्ते हों, तो कोई भी पवन ऊर्जा अथवा सौर ऊर्जा को चुनना न चाहेगा. पूरे विश्व में ऐसी प्रवृत्ति रही है कि जब तेल की कीमतों में कमी होती है, तो नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश भी गिर जाता है. यदि हम इस पर सहमत हैं कि हमें शीघ्रातिशीध्र ऊर्जा के पारिस्थितिक-अनुकूल स्रोतों पर चले जाना चाहिए, तो फिर इसमें कोई बुद्धिमानी नहीं कि कम करों के जरिये तेल की कीमतें कम कर दी जायें.
सातवां, ऊंची ईंधन कीमतों से अधिक ईंधन-दक्ष कारों की मांग में भी इजाफा होता है. यह स्वतः स्पष्ट है और यही वजह है कि मारुति सुजुकी ने अपनी छोटी कारों की बदौलत भारतीय कार बाजार में अपना दबदबा कायम कर लिया. भविष्य में कभी विद्युत चालित कारें देशवासियों की पहली पसंद बनीं, तो उसमें ऊंचे ईंधन मूल्यों का बड़ा योगदान होगा.
आठवां, ईंधनों की बाजार निर्धारित मूल्य प्रणाली उनमें मिलावट रोकने की कुंजी है. जब किरासन बहुत सस्ता था और डीजल में सब्सिडी थी, तो उसमें किरासन की मिलावट हुआ करती थी. आज जबकि किरासन की कीमत प्रति माह बढ़ रही है, तो यह मिलावट भी उसी अनुपात में घटती जा रही है.
खाना पकाने की गैस की उपलब्धता बढ़ा कर बाजार में किरासन की उपलब्धता में क्रमिक कमी भी लायी जा रही है. नौवां, एक स्वस्थ तेल क्षेत्र के लिए यह जरूरी है कि उसे बाजार की परिस्थितियों के अनुसार अपने उत्पादों के मूल्य निर्धारण की आजादी हो. वर्तमान में तेल विपणन कंपनियों के स्वस्थ स्टॉक मूल्यों का आधार उन्हें हासिल उनकी यही आजादी है.
दसवां, पेट्रो ईंधनों के नीचे मूल्य इसलामी उग्रवाद को भी मजबूत करते हैं. एक पल के लिए रुक कर इस तथ्य पर गौर करें कि यदि कम करों के कारण भारत में पेट्रो ईंधनों की मांग में दिन दूना रात चौगुना इजाफा होता है, तो इससे जिन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को फायदा पहुंचता है, उनके ही बजट का एक हिस्सा पूरी दुनिया में इसलाम के जिहादी समूहों, उनके संगठनों, उनकी कार्रवाइयों तथा उनके द्वारा संचालित मदरसों के वित्तपोषण में खर्च होता है.
यह भारत ही नहीं, पूरे विश्व तथा भूमंडलीय जलवायु संरक्षण के हित में भी है कि जितनी जल्द संभव हो सके, हम जीवाश्म ईंधन की बजाय नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ चलें.
(स्वराज्य से साभार, अनुवाद : विजय नंदन)
कीमतों में उछाल
तेल की कीमतों में मौजूदा उछाल और इससे महंगाई बढ़ने की आशंका के बीच केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने आश्वासन दिया है कि दीवाली तक गिरावट की संभावना है. तेल की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए इन उत्पादों को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के तहत लाने की चर्चाएं भी हैं.
हालांकि जानकारों का कहना है कि अगर ऐसा होता भी है, तो बहुत समय लगेगा. कई लोग सरकार से तेल उत्पादों पर से शुल्क कम करने की मांग भी कर रहे हैं. दाम बढ़ने और इससे जुड़े विमर्श पर आधारित आज का विशेष पेज…
पेट्रोल-डीजल की कीमत में क्यों आ रहा है उछाल
16 जून, 2017 के बाद से तेल की कीमतों में होने वाली बेतहाशा वृद्धि, जो तीन वर्षों के सर्वाधिक उच्च स्तर पर पहुंच चुकी है, ने लोगों को खासा परेशान कर रखा है और वे इसके खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं. यही वजह है कि पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को यह सफाई देनी पड़ी है कि पेट्रोलियम कंपनी द्वारा निर्धारित की जाने वाली तेल की कीमतों को लेकर सरकार कोई दखलअंदाजी नहीं करनेवाली है. जानते हैं, तेल की कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य.
कब कितनी हुई तेल की कीमत?
1 मार्च, 2014 को अंतरराष्ट्रीय बाजार में ब्रेंट कच्चे तेल की कीमत 108.6 डॉलर प्रति बैरल थी, जबकि दिल्ली में उस दिन प्रति लीटर 73.16 रुपये प्रति लीटर की दर से पेट्रोल की बिक्री हुई थी. वहीं अगर 11 सितंबर, 2017 की बात करें, तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में ब्रेंट कच्चे तेल का मूल्य 54.2 डॉलर प्रति बैरल हाेने के बावजूद दिल्ली में यह 70.30 प्रति लीटर के मूल्य से बेची गयी.
लगभग 42 महीने पुरानी दर पर. 16 जून, 2017 से, तेल की कीमतों को लेकर नया नियम लागू हुआ है यानी प्रतिदिन के हिसाब से कीमतें तय होना, तब से लगातार इसकी कीमत में इजाफा देखने को मिल रहा है. जुलाई के महीने में 63.09 रुपये प्रति लीटर की दर से दिल्ली में बिकने वाला पेट्रोल 14 सितंबर आते-आते 11.6 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 70.39 रुपये प्रति लीटर तक पहुंच गया. पेट्रोल की तरह डीजल की कीमतों में भी इसी वजह से 12.5 प्रतिशत का उछाल आया है. अन्य शहरों का भी यही हाल है.
कैसे होता है भारत में तेल की
कीमतों का निर्धारण
16 जून, 2017 से पहले तक तक भारत में पेट्रोल व डीजल की कीमतों का निर्धारण अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्य के आधार पर होता था. तब सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियां अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत और बाजार की स्थिति जैसे आदान-प्रदान की दर व मांग-आपूर्ति की स्थिति को देखते हुए पेट्रोल व डीजल के मूल्य तय करती थीं. लेकिन 16 जून, 2017 से प्रतिदिन के आधार पर तेल के मूल्य तय होने लगे हैं.
क्यों हो रही है मूल्य वृद्धि
जब एनडीए सरकार सत्ता में आयी थी तो उस दौरान कच्चे तेल की कीमतों में रिकॉर्ड गिरावट देखी गयी थी. लेकिन 2015 की दूसरी छमाही और 2016 के शुरुआती महीनों में सरकार द्वारा पेट्रोल व डीजल के उत्पाद शुल्क में लगातार वृद्धि की गयी, ताकि सरकार को ज्यादा राजस्व की प्राप्ति हो सके.
नतीजा पेट्रोल व डीजल की मूल्य वृद्धि के रूप में सामने आया. एक अनुमान के अनुसार, कच्चे तेल पर लगाये गये शुल्क व करों की बदौलत इस वित्त वर्ष में सरकार को 1,15,000 करोड़ रुपये राजस्व के रूप में प्राप्त हुआ है. राजस्व प्राप्ति के उद्देश्य से ही पहले सरकार ने पेट्रोल व डीजल पर लगने वाले करों व शुल्कों में बढ़ोत्तरी की और इसे जीएसटी के दायरे से भी बाहर रखा.
तुलनात्मक रूप से देखें तो अप्रैल 2014 में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 9.48 रुपये प्रति लीटर था. लेकिन 2015 व 2016 के बीच कई बार हुई वृद्धि के पश्चात यह शुल्क बढ़कर 21.48 रुपये पर पहुंच गया. इसी तरह डीजल के साथ भी हुआ. अप्रैल 2014 में डीजल पर 3.65 रुपये का लगने वाला उत्पाद शुल्क बढ़कर 17.33 रुपये तक पहुुंच गया है. भारत में पेट्रोल व डीजल की खुदरा बिक्री पर 55.5 और 47.4 रुपये कर चुकाना होता है, जो कि काफी ऊंची दर है.
बढ़ती तेल कीमतों पर सरकार की सोच
तेल की बढ़ती कीमतों और लोगों के विरोध के बीच पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का कहना है कि इससे प्राप्त होने वाले राजस्व को सरकार ने कल्याणकारी कार्यों जैसे सड़क निर्माण, सिंचाई और पीने का पानी जैसी सुविधाएं मुहैया कराने पर खर्च किया है. मंत्री का यह भी कहना था कि तेल कंपनियां कीमत तय करने के लिए स्वतंत्र हैं और इनमें हस्तक्षेप का सरकार का कोई इरादा नहीं है.
मूल्य वृद्धि के अन्य कारण
तेल के मूल्य का निर्धारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत में आये उतार-चढ़ाव के आधार पर तय होता है. लेकिन मूल्य वृद्धि का यही इकलौता कारण नहीं है, बल्कि बाजार में रुपया/ डॉलर के विनिमय दर और मांग-आपूर्ति की स्थिति का भी तेल की कीमत पर प्रभाव पड़ता है.
इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जब किसी वस्तु के उत्पादन में कमी आती है तो उसकी कीमत बढ़ जाती है, ठीक उसी तरह जब वस्तु की आपूर्ति में वृद्धि हो जाती है यानी उसका उत्पादन ज्यादा होता है तो उसकी कीमत में कमी आ जाती है. यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि 2017 के सितंबर तक भारतीय बास्केट के लिए वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतों में 0.44 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी, जबकि दिल्ली में पेट्रोल की कीमत में महज 0.3 प्रतिशत की ही गिरावट आयी. वह भी तब जब डॉलर के मुकाबले रुपये ने सात प्रतिशत की मजबूती दर्ज की.

Next Article

Exit mobile version