पं. दीनदयाल उपाध्याय जन्म शताब्दी : उनमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गहरी समझ थी

अद्वैता काला लेखिका पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती के अवसर पर उनके विचारों एवं लेखन की चर्चा करना कठिन है. वे एक धुरंधर लेखक तथा चिंतक होते हुए भी अपनी बौद्धिक निपुणता के बोझ से मुक्त थे. उनका लेखन सरलता की मिसाल था, जो यह स्पष्ट करता है कि उनका उद्देश्य संप्रेषित करना था, अपनी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 25, 2017 6:21 AM
अद्वैता काला
लेखिका
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती के अवसर पर उनके विचारों एवं लेखन की चर्चा करना कठिन है. वे एक धुरंधर लेखक तथा चिंतक होते हुए भी अपनी बौद्धिक निपुणता के बोझ से मुक्त थे. उनका लेखन सरलता की मिसाल था, जो यह स्पष्ट करता है कि उनका उद्देश्य संप्रेषित करना था, अपनी बौद्धिक गहराई का प्रदर्शन करना और उससे भयभीत करना नहीं. इसलिए उन्हें उनके दशकों बाद पढ़ते हुए भी उनके विचारों से आत्मीयता स्थापित करना तथा उनकी अर्थवत्ता की गहराई और आग्रह को समझ पाना अत्यंत आसान है. यह उनके लेखन की एक अन्य शक्तिशाली विशिष्टता तथा उसकी प्रासंगिकता ही है कि उनके शब्दों में मानो वर्तमान की अनुगूंज ध्वनित होती है और वे आज की समस्याओं के समाधान हेतु भी उतने आवश्यक प्रतीत होते हैं.
क्या वे एक विजन संपन्न व्यक्ति थे? वह तो वे थे ही, पर उसके साथ ही वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तथा उस राह की गहरी समझ से भी संपन्न थे, जिस पर अपनी स्वयंसहायता करने तथा अपने और अपनी संततियों के लिए विश्व में जगह बनाने के हित में भारत को चलना ही चाहिए.
उनके अंदर के लेखकीय आदर्शवाद ने उनके लेखन को उड़ान दी, तो दूसरी ओर, उनके भीतर के एक्टिविस्ट और पथिक के यथार्थवाद ने उनके विचारों को धरातल का आधार दिया. इनका परिणाम एक दर्शन, एकात्म मानववाद, के रूप में सामने आया, जो कहीं और का ऋणी होने की बजाय पूरी तरह भारतीय यथार्थ और संस्कृति में बद्धमूल और स्वयं हमारी ही दार्शनिक जीवन पद्धति से संबद्ध था. हमारे जिस आधार को सदियों के दौरान मौन और विलग कर दिया गया था, फिर से उनके अन्वेषण से हम न केवल अपनी पहचान की, बल्कि किसी को भी पीछे न छोड़ते हुए अपने राष्ट्र और राष्ट्रवासियों की सेवा करने की अपनी योग्यता की ही एक बार फिर खोज किया करते हैं.
मैं दीनदयालजी को पढ़ने और फिर से उनके अन्वेषण के आनंद से पाठकों को वंचित नहीं करना चाहती और इसलिए उनके लेखन की व्याख्या करने से बचना चाहूंगी. पर मैं उनके जिस एक चिंतन को प्रस्तुत करना चाहूंगी, वह उनके द्वारा धर्म (रिलीजन) को धर्म (कर्तव्य) से भिन्न बताना है.
उन्होंने कहा कि आराधना धर्म का एक पक्ष हो सकती है पर वह उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती. मंदिर-मस्जिद में जाना आस्था का एक रूप हो सकता है, पर वही पूरा धर्म नहीं हो सकता, जैसे स्कूल जाना मात्र ही ज्ञान नहीं हो सकता और वहां जाने के बाद भी विवेक अप्राप्त रह सकता है.
उनके अनुसार धर्म एक समग्रता है, जिसे एक क्रिया तक सीमित नहीं किया जा सकता, भले ही उसे पूर्ण समर्पण के साथ क्यों न किया जाये. धर्म समाज की सेवा से संबद्ध है, व्यापक है और इसी ने समाज को संतुलित रखा है.
धर्म की सही पहचान से ही समाज की सेवा की जा सकती है और सृष्टि की रचना को समझा जा सकता है. इसलिए, मानवता तथा दिव्यता के सिद्धांतों पर आधारित धर्म का व्यापक स्वरूप समावेशी है, विभाजक नहीं.
धर्म के संबंध में यह एक अहम कथन था, जो एक अरसे में धर्म की पाश्चात्य अवधारणा से गंदला चुका था. धर्म की इसी सतही समझ ने समाज में समस्याओं के अंबार खड़े कर दिये. दीनदयालजी ने सिर्फ इसे ही नहीं, बल्कि कई अन्य वर्तमान भ्रमों को स्पष्ट करते हुए एक दर्शन दिया, जो अपनी संरचना में सच्चे तौर पर भारतीय है.
(अनुवाद : विजय नंदन)

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