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पं. दीनदयाल उपाध्याय जन्म शताब्दी : भारत निर्माण का दर्शन है एकात्म मानववाद
शेषाद्रि चारी पूर्व संपादक, ऑर्गेनाइजर अंगरेजों ने भारत को दो सौ वर्षों से भी अधिक अवधि तक उपनिवेश बनाये रखा. मगर उसके पूर्व भी हम हूणों और कुषाणों से आरंभ कर मंगोलों, मुगलों और अन्य अनेक आक्रांताओं को झेलते रहे. हजार वर्षों से कुछ अधिक के इस अरसे ने तीन साम्राज्यों के स्वर्णकाल भी देखे- […]
शेषाद्रि चारी
पूर्व संपादक, ऑर्गेनाइजर
अंगरेजों ने भारत को दो सौ वर्षों से भी अधिक अवधि तक उपनिवेश बनाये रखा. मगर उसके पूर्व भी हम हूणों और कुषाणों से आरंभ कर मंगोलों, मुगलों और अन्य अनेक आक्रांताओं को झेलते रहे. हजार वर्षों से कुछ अधिक के इस अरसे ने तीन साम्राज्यों के स्वर्णकाल भी देखे- उत्तर में मगध साम्राज्य, दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य और मध्य भारत में अवस्थित आज के महाराष्ट्र में हिंदवी साम्राज्य.
इन आक्रमणों तथा उनके फलस्वरूप पैदा राजनीतिक अधीनता ने जो सामाजिक अस्थिरता पैदा की, उसकी मरम्मत में एक लंबा वक्त लगा. पर अंगरेजी राज ने तो न सिर्फ हमारी सामाजिक प्रणाली, बल्कि हमारी राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक शासन व्यवस्था पर भी गहरा असर डाला.
हमारी शासन प्रणाली के प्राचीन एवं समयसिद्ध पहलुओं की पूर्ण उपेक्षा इस औपनिवेशिक शासन का एक विशिष्ट चरित्र था. हमारे सांस्कृतिक मूल्यों तथा शिक्षण प्रणाली को दरकिनार कर उन्होंने हमारे समाज को उसकी मौलिक विचार प्रक्रिया एवं सैद्धांतिक आधार से प्रभावी रूप में विलग कर दिया. इस उपनिवेशवाद का एक अन्य लक्षण पश्चिम के सामाजिक सिद्धांतों, शासन प्रणालियों, और सबसे बढ़ कर, उसके धार्मिक-शासन संस्थानों से भारत का परिचय था. हमारे हजारों वर्षों के इतिहास में धार्मिक शासन के राज्यों का कभी कोई अस्तित्व न रहा.
17वीं सदी के भक्ति आंदोलन से आरंभ कर स्वामी विवेकानंद तक हमारा पुनर्जागरण एक कठिन कार्य था. सौभाग्य से हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के संचालन के साथ ही गोखले, तिलक, गांधी, आंबेडकर, हेडगेवार और लोहिया जैसे अनेक नायक प्राचीन भारतीय विचारों पर आधारित गहन सुधार के प्रणेता भी बने. पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानव का दर्शन (न कि सिद्धांत अथवा आदर्श) प्रतिपादित किया.
सभी समाज सुधारकों का जोर व्यक्ति और उसके परिवार, कुल, समुदाय, गांव, राष्ट्र तथा ब्रह्मांड से उसके संबंधों पर था. दीनदयालजी ने यह विश्लेषण किया कि ऐसे संबंध किस तरह संकेंद्रित (एक केंद्र के ही गिर्द निर्मित) होते हैं, न कि एक दूसरे से विछिन्न.
उन्होंने अपने एकात्म मानव दर्शन में पाश्चात्य सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सिद्धांतों की सीमाओं और उनके द्वारा व्यक्ति के अधिकारों को नकारते हुए राज्य पर अत्यधिक जोर का विश्लेषण किया. उनके अनुसार, राज्य तथा राजनीति व्यक्तियों के हाथों में केवल साधन हैं, जिनसे सबकी सर्वांगीण भलाई हेतु चारों धर्मों (कर्तव्यों) को अंजाम दिया जाना है, न कि मार्क्स द्वारा प्रतिपादित अधिकाधिक लोगों की अधिकाधिक भलाई किया जाना.
एकात्म मानव दर्शन शासन की जटिल प्रणाली में मानव प्राणी की केंद्रीयता की बात करता है. पश्चिम की अबाधित आजादी भ्रष्ट और अनैतिक बनाती है, इसलिए राज्य का पूर्ण नियंत्रण अवांछनीय है और आजादी तथा नैसर्गिक विकास के विपरीत है.
राज्य को सुगमकर्ता होना चाहिए, हस्तक्षेपकर्ता नहीं. इस तरह दीनदयालजी ने धर्म और राज्य की सर्वोच्चता के अंदर ही नहीं, बल्कि राजधर्म तथा सबसे बढ़ कर एक प्रभावी विकेंद्रित शासन प्रणाली की सीमाओं के अंदर भी व्यक्ति स्वतंत्रता की आवश्यकता व्याख्यायित की, जहां सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति तो होती है, पर व्यक्ति अथवा उसके समूहों के लालच की नहीं.
यह तभी संभव है, जब शासन ‘एक सबके हितार्थ और सब एक के हितार्थ’ के सिद्धांत का अनुसरण करे. शासन का एजेंडा चुनावी विशिष्टता और जन समर्थन पर नहीं, बल्कि समतावाद के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए.
दीनदयालजी का एकात्म मानव दर्शन चाणक्य के अर्थशास्त्र की ही भांति प्रेरणा का एक शाश्वत स्रोत तथा ज्ञान का सोता है, जिसकी आस्था है कि प्रत्येक प्राणी में दिव्यता की संभावना है और यह सामूहिक दिव्यता ही राष्ट्रपुरुष यानी भारतीय राष्ट्र में रूपायित होती है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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