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गांधी जयंती विशेष : गांधीवाद जैसी पोंगापंथी के प्रबल विरोधी थे गांधी

प्रो आनंद कुमार समाजशास्त्री 21 वीं शताब्दी के देश और दुनिया की मुख्य प्रवृत्तियों को अगर देखा जाये, तो यह कहना कठिन नहीं होगा कि आज दुनिया जिधर जा रही है, और देश को जिधर ले जाया जा रहा है, उसका गांधी के बताये रास्ते से कोई संबंध नहीं है. यह सच ही गांधी को […]

प्रो आनंद कुमार
समाजशास्त्री
21 वीं शताब्दी के देश और दुनिया की मुख्य प्रवृत्तियों को अगर देखा जाये, तो यह कहना कठिन नहीं होगा कि आज दुनिया जिधर जा रही है, और देश को जिधर ले जाया जा रहा है, उसका गांधी के बताये रास्ते से कोई संबंध नहीं है. यह सच ही गांधी को नये सिरे से प्रासंगिक बनाता है.
गांधी की नयी प्रासंगिकता को संयुक्त राष्ट्र के 192 देशों द्वारा स्वीकारे गये टिकाऊ विकास के लक्ष्यों में प्रतिबिंबित करने की 2015 में घोषणा की गयी है. अगर दुनिया के राष्ट्र प्रमुखों की दृष्टि में आनेवाले दिनों में विश्व को शांत और सुख की ओर जाना है, तो मौजूदा आत्मघाती भूमंडलीकरण से हटकर प्रकृति अनुकूल और परस्पर सहयोग से प्रेरित आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक उपाय करने होंगे.
इन उपायों को गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक के आधी शताब्दी लंबे सार्वजनिक जीवन में मिले अनुभवों से 19 सूत्री रचनात्मक कार्यक्रम के रूप में वर्ष 1945 में देश और दुनिया को लिपिबद्ध करके दे दिया था. अब आधी शताब्दी तक भटकने के बाद दुनिया के नीति-निर्माता अपनी गलती के प्रायश्चित के रूप में नये सिरे से और नयी चेतावनी के साथ गांधी को सुनने के लिए प्रस्तुत हुए हैं, तो इसे बहुत विलंब नहीं कहा जायेगा.
देश के संदर्भ में कुछ लोगों का यह मानना है कि गांधी का भारत की स्वराज-रचना में ऐतिहासिक योगदान था, लेकिन विदेशी राज से मुक्ति के बाद सत्य, अहिंसा, स्वावलंबन, स्वदेशी, और सत्याग्रह की क्या जरूरत बची है.
ऐसी मान्यता वाले विद्वानों को अपने पास के किसी अच्छे पुस्तकालय से गांधी-विमुख भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक असलियत जानने के लिए क्रमश: अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी रिपोर्ट, जस्टिस वर्मा कमेटी रिपोर्ट, बंधोपाध्याय कमेटी रिपोर्ट, स्वामीनाथन कमेटी रिपोर्ट और सच्चर कमेटी रिपोर्ट को पढ़ने की फुरसत निकालनी चाहिए.
अभी तक ऐसा लगता था कि कांग्रेस-मुक्त भारत गांधी की तरफ मुड़कर हमारे संविधान निर्माताओं के सपनों को साकार कर सकेगा, लेकिन पहले एनडीए-1 और अब एनडीए-2 के अंदाजे-हुकूमत को देखते हुए यह बेमानी बात हो चुकी है, क्योंकि कांग्रेस और गैर-कांग्रेस के ऊपर क्रोनिकैपिटलिज्म का बराबर का दबाव है. दूसरे, मार्क्सवादियों और मोदीवादियों के सपने में गांधी की सर्वधर्म समभाव वाली नीति की कोई कीमत नहीं है.
लेकिन, बिना हिंदू- मुस्लिम- सिख- ईसाई को आपस में भाई-भाई बनाये देश के हर गांव और गली में सांप्रदायिक हिंसा की शैतानी जमातें देश की एकता को बार-बार चुनौती देती रहेंगी.
गांधी के स्वराज के चतुर्भुज की कल्पना में नर-नारी समता और दलितों समेत जातिप्रथा से पीड़ित सभी स्त्री-पुरुषों को सम्मान और साझेदारी की जिंदगी के अधिकार को लेकर दो टूक कटिबद्धता रही है. आज यह दोनों ही प्रश्न बिना गांधी सूत्रों के बहुत उलझ चुके हैं. गांधी की 21वीं शताब्दी के भारत में सबसे बड़ी प्रासंगिकता राजनीति के क्षेत्र में बढ़ती असफलताओं को दूर करने में है. गांधी की चेतावनी के बावजूद हम ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की तरफ 70 साल से बेतहाशा बढ़ते गये हैं.
इसके परिणामस्वरूप एक तरफ नागरिकों का असहाय भाव बढ़ा है, हर चुनाव के बाद वोटर के रूप में हम ज्यादा छले जा रहे हैं. दूसरी तरफ, जो चुनाव में जीतते भी हैं, उनकी दशा ‘न घर के न घाट के’ वाली हो जाती है, क्योंकि इस संसदीय प्रणाली में एक तरफ धनबल का बढ़ता महत्व है, दूसरी तरफ भ्रष्टाचार की और कालेधन की खुली बीमारियां और तीसरी तरफजनता के वोट के बावजूद निहित स्वार्थों की बढ़ती दबंगई है. गांधी ने इसीलिए ग्राम स्वराज की कल्पना को विकल्प के रूप में बताया था.
राजीव गांधी के 73वें- 74वें संविधान संशोधन से लेकर नीतीश कुमार द्वारा महिलाओं को गांव और शहर के स्थानीय शासन में 50 प्रतिशत आरक्षण जैसी पैबंदबाजी से हमारा लोकतंत्र पूरी तरह से निरर्थक होने से बचा हुआ है, लेकिन स्वराज के चतुर्भुज की सार्थक रचना के लिए सहभागी लोकतंत्र का सीधा रास्ता ही हमें और हमारे लोकतंत्र को सुकून दे पायेगा.
अब इसमें यह बात और जोड़ देनी चाहिए कि गांधी की प्रासंगिकता उनकी देशकाल और परिस्थिति के अनुकूल अपनी कार्यसूची में परिवर्तन और परिवर्धन में निहित थी. वह गांधीवाद जैसी किसी भी पोंगापंथी के प्रबल विरोधी थे. इसलिए आज गांधी की प्रासंगिकता को समझने के लिए गांधी किसी एक आलेख या आंदोलन या संगठन को कसौटी नहीं मानना चाहिए. नहीं तो हम गांधी के बताये रास्ते को कभी नहीं पहचान पायेंगे.

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