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गांधी जयंती आज : चंपारण सत्याग्रह को क्यों याद करें

अरविंद मोहन वरिष्ठ पत्रकार गांधी के चंपारण सत्याग्रह को याद करना क्यों जरूरी है? यह एक बड़ा सवाल है. और इसे ठीक से समझा गया हो या इस लेखक ने समझ लिया हो, यह दावा करना मुश्किल है. पर इसे समझना जरूरी है, उसके बगैर हमारा नुकसान हो रहा है और हम जितनी जल्दी इसे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 2, 2017 6:32 AM
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अरविंद मोहन
वरिष्ठ पत्रकार
गांधी के चंपारण सत्याग्रह को याद करना क्यों जरूरी है? यह एक बड़ा सवाल है. और इसे ठीक से समझा गया हो या इस लेखक ने समझ लिया हो, यह दावा करना मुश्किल है. पर इसे समझना जरूरी है, उसके बगैर हमारा नुकसान हो रहा है और हम जितनी जल्दी इसे समझेंगे, नुकसान कम करेंगे और खुद को तथा दुनिया को सही पटरी पर लाने में सफल होंगे.
चंपारण सत्याग्रह ऊपर से देखने में एक किसान समस्या का निपटान था. कई बार ज्यादा बारीकी से गौर करने पर यह सांस्कृतिक और राजनैतिक सवाल भी लगता है- बल्कि सांस्कृतिक अपमान, औरतों की बदहाली, दलितों समेत कमजोर लोगों की दुर्गति के सवाल पर तो अभी तक ज्यादा लिखा-पढ़ा भी नहीं गया है. फिर यह राजनैतिक आंदोलन तो था ही, कई लोग राष्ट्रीय आंदोलन और गांधी के राजनैतिक जीवन में चंपारण सत्याग्रह की भूमिका को महत्वपूर्ण मानकर ही इसको आज इतना महत्व दे रहे हैं.
एक तर्क पूरे उपनिवेशवाद विरोधी वैश्विक आंदोलन में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और उसकी शुरुआत चंपारण से होने की बात भी रेखांकित करते हैं. और शुद्ध गांधीवादी बिरादरी बुनियादी तालीम, खादी, ग्रामोद्योग और यूरोपीय माॅडल से इतर वैकल्पिक विकास के प्रयोग की शुरुआत के चलते चंपारण सत्याग्रह को महत्वपूर्ण मानता है.
चंपारण में जब गांधी आये थे तो निपट अकेले थे और चंपारण के राजकुमार शुक्ल को छोड़कर उन्होंने बिहार के किसी भी व्यक्ति को अपने आने की सूचना देने की भी जरूरत नहीं महसूस की. गांधी इससे पहले बिहार नहीं आये थे.
मजहरुल हक साहब जैसे एकाध को छोड़कर वे किसी बिहारी को जानते भी न थे. पर गांधी के अंदर भी वह चीज आ चुकी थी, जिसने न सिर्फ चंपारण आंदोलन को खड़ा किया, बल्कि मुल्क और दुनिया की राजनीति और जीवन को नयी दिशा दी. चंपारण बदला, बिहार बदला, मुल्क की राजनीति में नये दौर की शुरुआत हुई, विश्वव्यापी उपनिवेशवाद की विदाई का दौर शुरू हुआ. नये तरीके से देखने की जरूरत जाहिर तौर पर चंपारण आंदोलन/ सत्याग्रह पर भी नये तरीके से देखने की जरूरत है, क्योंकि गांधी ने अपनी काफी ऊर्जा, समय और साधन लगाये थे, काफी सारे सहयोगी तलाशे थे, काफी चीजों की शुरुआत की थी.
फिर यह समझना मुश्किल हो जाता है कि 1857 से लड़ रहे चंपारण के लोगों में गांधी ने ऐसा क्या कर दिया कि न सिर्फ उन्हें नील की तिनकठिया खेती समेत काफी चीजों से मुक्ति मिल गयी, बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन और गांधी के नेतृत्व को एक नया मोड़ मिल गया.
चंपारण के किसानों का दुख-दर्द खत्म कराना, गोरी चमड़ी और शासन का डर निकालना और अंग्रेजी शोषण व्यवस्था की जगह देसी विकल्प देने का अपना प्रयास, जो उनके रचनात्मक कामों से निकलता है.
पहला काम तो उन्होंने डंके की चोट पर किया और शोर मचाकर भी अंग्रेजी व्यवस्था पर दबाव बनाया. पर यह बात रेखांकित करनी जरूरी है कि यह काम उन्होंने अहिंसा से किया, जो इसके पहले चंपारण ही नहीं, इतिहास में नहीं मिलता.
चंपारण के लोगों के शोषण की जड़ें कितनी गहरी हैं और उसके पीछे कितनी बड़ी ताकत है, यह समझ वहां के लोगों को पूरी तरह नहीं थी, गांधी को थी. सो उन्होंने स्थानीय आक्रोश को समेटा, दिशा दी पर एक ही बड़ा बदलाव किया- एक राजनैतिक- आर्थिक- सामाजिक लड़ाई को अहिंसक ढंग से लड़ने का. इससे पहले अपने समाज में महावीर जैसे लोगों ने और दुनिया में कई सारे लोगों ने अहिंसा का महत्व तो समझा था, पर व्यक्तिगत आचरण में. गांधी ने उसे लड़ाई का औजार बनाया और सामूहिक प्रयोग की चीज बनाया. और यह प्रयोग चंपारण में ही हुआ.
इसीलिए अगर हम अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ दुनिया की सबसे बड़ी बगावत 1857 को देखें, तो उसका सबसे क्रूर अंत हुआ. और चंपारण तक आने में 60 साल लगे, जिसमें बार-बार छोटी हिंसक बगावतों और कांग्रेस जैसे संगठन के बनने जैसे कई स्तर के काम हुए. पर 1917 के चंपारण के बाद मुल्क के अाजाद होने और उपनिवेशवाद की विदाई का दौर शुरू होने में 30 साल ही लगे.
सभ्यतागत विकल्प का गांधी का चंपारण प्रयोग कई मायनों में विशिष्ट है- सिर्फ हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और ब्रिटिश उप-निवेशवाद की समाप्ति के पहले प्रयोग के रूप में ही नहीं. इसके इस रूप की चर्चा तो होती है, भले ही गंभीरता का अभाव रहता हो.
जैसा पहले कहा गया है यहीं और इसी आंदोलन के दौरान गांधी ने रचनात्मक ही नहीं, सभ्यतागत विकल्प के अपने प्रयोग की विधिवत शुरुआत की, जिसमें उनकी इच्छा अंग्रेजी शासन से ही नहीं, निलहों से भी सहयोग लेने की थी, जो पूरी नहीं हुई. उपयोगी होता कि इस मामले में ज्यादा शोध होते और प्रयोग की शुरुआत, उसके प्रारंभिक मूल्यांकन और विस्तार वगैरह की तब हुई चर्चाओं को सामने लाने का काम होता, बाद में हुए बदलावों और विस्तार पर शोध होता.
खुद गांधी ने इस तरह के कामों को आगे बहुत महत्व दिया, विस्तार दिया और चंपारण भी ऐसे प्रयोगों की सफलता का गवाह बना, पर उनको आगे बढ़ाने और पश्चिमी विकास माॅडल का विकल्प बनाने में गांधी के बाद के कांग्रेसी शासकों को कम रुचि रही. उसका क्या हश्र हुआ, कुछ काम अब तक कैसे चल रहे हैं और क्या होना चाहिए यह अध्ययन और शोध भी होना चाहिए.
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