सामाजिक समरसता का मेला है ईंद
सितंबर-अक्तूबर में जहां-जहां मुंडा तथा नागवंशी-सदान रहते हैं, उन गांवों के इलाके में ईंद पर्व और मेला का आयोजन होता आ रहा है. सुतियांबे में करम पर्व के तीसरे दिन से ईंद पर्व व मेला आरंभ होता है. यह मेला और उत्सव सुतियांबे में महाराजा मदरा मुंडा के गढ़वारी में होता है. लचरागढ़ में दसंय […]
सितंबर-अक्तूबर में जहां-जहां मुंडा तथा नागवंशी-सदान रहते हैं, उन गांवों के इलाके में ईंद पर्व और मेला का आयोजन होता आ रहा है. सुतियांबे में करम पर्व के तीसरे दिन से ईंद पर्व व मेला आरंभ होता है. यह मेला और उत्सव सुतियांबे में महाराजा मदरा मुंडा के गढ़वारी में होता है. लचरागढ़ में दसंय (दशहरा) के बाद ईंद उत्सव मनाया जाता है.
झारखंड में आज से लगभग दो हजार वर्ष से अर्थात सुतियांबे के लोक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय महाराजा मदरा मुंडा के समय से ईंद पर्व और मेला का आयोजन होता आ रहा है. महाराजा मदरा मुंडा पड़हा स्वशासन व्यवस्था के अनुसार शासन करते थे, जिसमें राजा महाराजाअों का सा शान-शौकत नहीं था. वे न्याय और शासन के काम के महाराजा थे. बाकी जीवन और गढ़-घर मकान आम लोगों की तरह थे. यह शासन व्यवस्था मदरा पोजी कहलाती है.
ईंद का पर्व और मेला सात सौ सोनपुर परगना बीस सौ नागपुर परगना और ढाई सौ श्री परगना आदि में मनाया जाता आ रहा है. एक कहावत आज भी कही जाती है – कोम्पाट मुंडा, नागवंशी राजा और दुवारसिनी घांसी. अर्थात मुंडाअों में कोम्पाट मुंडा श्रेष्ठ हैं, राजा महाराजा नागवंशी हैं और गढ़ के द्वार पर घांसी जाति (नाचने, गाने, बजाने, मुनादी पीटने और नायक पदवी धारण करनेवाले) के लोग रहते हैं.
सितंबर-अक्तूबर में जहां-जहां मुंडा तथा नागवंशी-सदान रहते हैं, उन गांवों के इलाके में ईंद पर्व और मेला का आयोजन होता आ रहा है. सुतियांबे में करम पर्व के तीसरे दिन से ईंद पर्व व मेला आरंभ होता है. यह मेला और उत्सव सुतियांबे में महाराजा मदरा मुंडा के गढ़वारी में होता है. लचरागढ़ में दसंय (दशहरा) के बाद ईंद उत्सव मनाया जाता है. पालकोट गढ़ में सोहराई के बाद होता है.
ईंद की पूजा आठ बजे रात को आरंभ होती है. इसमें एक विशाल मोटे लंबे मजबूत शाल के खूंटे पर ऊपर सफेद कपड़ों से गोलाकार टोपर बनाया जाता है. यह गोवर्द्धन पर्वत का प्रतीक होता है. जिसे द्वापर में श्रीकृष्ण ने वर्षा के देवता इंद्र के भारी वर्षा से बचाने के लिए पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाया था और सभी ग्वाल-बाल अपनी लाठी टेक कर सहायता की थी. गोवर्द्धन पर्वत उठाने का तात्पर्य है एक भारी काम को संपन्न करना. अंगुली में उठाने का मतलब समस्या का निदान के लिए अंगुली से इशारा करना और ग्वाल-बालों का लाठी टेकने का अर्थ हुआ कृष्ण के बताये रास्ते में सहयोग करना. चूंकि इंद्र के द्वारा भारी वर्षा होने से खेती नष्ट हुई. अत: घास खानेवाली गायों की संख्या की वृद्धि करने का दिशा-निर्देश किया श्रीकृष्ण ने इसे गो+वर्द्धन अर्थात गायों की संख्या में वृद्धि करना कहा गया जो गोवर्द्धन पर्वत का प्रतीक बना. दूसरा तात्पर्य है वर्षा अधिक होगी तो घास अधिक होंगे और घास खानेवाली गायें बढ़ेंगी. उनका गोबर अधिक होगा जो खाद का काम करेगा, जो फसल वृद्धि में गोबर सहायक होगा.
एक और तीसरी कथा भी इस ईंद पर्व से जुड़ी है. समुद्र मंथन में मंदराचल पर्वत का उपयोग मथानी के रूप में किया गया था और मोहाने के लिए बासुकी नाग को रस्सी के रूप में उपयोग में लाया गया था. इस समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले थे. यह भी प्रतीक है ईंद उत्सव में. ये टोपर का खूंटा मंदराचल पर्वत का प्रतीक होता है. वासुकी नाग का प्रतीक सबय अौर कांसी घास से बना बरहा मोटा रस्सीजो मोहने के काम आता है. दो गांवों के लोग देव-दानव के प्रतीक रूप में टोपर को उक्त बरहा (रस्सी) से मंथन करते हैं.
यह टोपर पाहन उठाता है. अन्य आदिवासी-सदन इसमें सहयोग करते हैं. यह दोनों का सम्मिलित उत्सव है. इसमें अपने-अपने गांवों से अपनी-अपनी जाति के मुंडा, उरांव, खड़िया आदि तथा सदान समुदाय के लोग अपनी-अपनी नृत्य मंडली के साथ नाचने गाने बजाने ईंद मेला में सम्मिलित होते हैं. सभी अपने-अपने दल में ईंद मेला टांड (मैदान) में जब नाचते गाते बजाते हैं तब प्रतीत होता है कि आनंद का सागर में प्रेम और उत्साह की लहरें उठ रही हैं.
ईंद पूजा में बकरे तथा मुर्गे की बलि दी जाती है. हंड़िया का तपान अर्पित किया जाता है. इसमें ब्राह्मण द्वारा पूजा की आवश्यकता नहीं होती. परंतु अब सामाजिक समरसता हेतु पाहन और ब्राह्मण दोनों मिल कर ईंद पूजा संपन्न करते हैं.
ईंद पूजा के पूर्व पूरे ईंद ड़ांड़ (मैदान) को गोबर से पूजा स्थल को लीपा तथा शेष स्थल पर छटका.. कर पवित्र किया जाता है. इस पूजा में महिलाएं सम्मिलित नहीं होतीं, परंतु नृत्य-संगीत में महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं.
सुतियांबे की तरह लचरागढ़ का ईंद पर्व और मेला दक्षिणी झारखंड के लिए बड़े व्यापक पैमाने पर एक रात-दिन होता है. इसी तरह पालकोट अंबा पखना आदि स्थानों में भी ईंद का उत्सव व्यापक पैमाने पर मनाया जाता है. लोग भारी संख्या में एकत्रित होते हैं और सामूहिक प्रेम, एकता, समरसता और नृत्य-संगीत का उत्साह प्रदर्शित करते हैं.
ईंद पर्व और मेला की सामूहिकता को देखने के लिए सुतियांबे ईंद मेला को देखा जा सकता है. आज भी अपनी इस प्राचीन विरासत को सुतियांबे संजोये हुए है. इसे मिटने न देने के लिए हर वर्ष इसका स्वरूप और वृहद होता आ रहा है.
सुतियांबे ईंद को संपन्न करने में क्रमश: 12-22-24 पड़हा और झीका पड़का की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. ईंद का टोपर निर्माण का जिम्मा सुतियांबे गांव के प्रतिनिधि करते हैं. इस टोपर में जो सफेद कपड़े लगते हैं गोलाकार बनाने के लिए उसे सुतियांबे का जोड़ा गांव पिठोरिया के मुसलमान भाई के प्रतिनिधि सिलाई करते हैं. इस विशाल भारी लंबे टोपर को आगे के भाग को सुतियांबे ग्रामीण तथा पीछे खूंटे की अोर पुसू ग्रामवासी अपने बलिष्ठ कंधों पर उठा कर मेला स्थल पर पहुंचाते हैं.
समुद्र मंथन का दृश्य उपस्थित करने के लिए देवताअों के प्रतीक रूप में ईचापीरी गांववाले रहते हैं तो दानव के प्रतीक रूप में नगड़ी गांव के लोग रहते हैं. इसमें प्रयुक्त बड़ी मोटी लंबी रस्सी (बरहा) बांटने (बनाने) काकाम चिरवा, मुरेठा, राहड़हा गांववाले करते थे अब बरहा बांटने का काम सुतियांबे ग्रामवासी करने लगे हैं. इतने बड़े लंबे मोटे बरहा बांटने के लिए बरहा नाम के बगीचे में संपन्न किया जाता है. इस वासुकी नाग के प्रतीक बरहा (रस्सी) को नगड़ी और इचापीरी ग्रामवासी बरहा बगीचा में अब बनाने लगे हैं.
टोपर को मेलास्थल पर स्थापित करने के लिए कुम्हरिया गांव की एक कुंवारी कन्या जब अपने पांव से टोपर को तीन बार स्पर्श करती है तभी गाड़ा जाता है. इस टोपर को नौ दिनों तक मेला स्थल में ही गाड़े रहने दिया जाता है. बाद में उसे पाहन अपने घर ला कर उसकी विधिवत पूजा करता है.
इस तरह वर्षाकाल का यह विशाल मेला ईंद पर्व व जतरा संपन्न होता है. जहां-जहां ईंद मेला लगता है लोग अतिथि बन कर जाते हैं आनंद मनाते हैं ईंद पूजा उत्सव व मेला का इस तरह समापन होता है.
गिरधारी राम गौंझू ‘गिरिराज’