परमाणु हथियारों के खिलाफ अभियान को नोबेल शांति पुरस्कार
सक्रियता एवं संवेदना को नोबेल नोबेल पुरस्कारों की 116 वर्षों की यात्रा में करीब 881 लोगों को पुरस्कृत किया जा चुका है. इस सप्ताह इस सूची में कुछ नाम और जुड़े हैं. अक्सर विजेताओं के चयन को लेकर सवाल उठाये जाते हैं, पर यह भी सच है कि चयनित लोगों में प्रतिभा या समर्पण की […]
सक्रियता एवं संवेदना को नोबेल
नोबेल पुरस्कारों की 116 वर्षों की यात्रा में करीब 881 लोगों को पुरस्कृत किया जा चुका है. इस सप्ताह इस सूची में कुछ नाम और जुड़े हैं. अक्सर विजेताओं के चयन को लेकर सवाल उठाये जाते हैं, पर यह भी सच है कि चयनित लोगों में प्रतिभा या समर्पण की कमी नहीं होती तथा हमारे वर्तमान और भविष्य को बेहतर करने में उनका विशिष्ट योगदान होता है.
इशिगुरो के साहित्य में जहां आधुनिक जीवन की जटिलताएं प्रतिध्वनित होती हैं, वहीं भयावह परमाणु हथियारों से मुक्ति के संकल्प के साथ आइसीएएन की सक्रियता से हमें शांतिपूर्ण विश्व की आशा बंधती है. वर्ष 2017 के शांति एवं साहित्य पुरस्कारों के लिए घोषित नामों और उनके योगदान पर इन-दिनों की यह प्रस्तुति…
आइसीएएन को नोबेल मिलना स्वागतयोग्य
अचिन वनायक
कोएलिशन फॉर न्यूक्लियर
डिसआर्मामेंट एंड पीस
इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय नाभिकीय शस्त्र उन्मूलन अभियान (इंटरनेशनल कैम्पेन टू एबोलिश न्यूक्लियर वीपन्स) यानी आइसीएएन को प्रदान करने के निर्णय का आइसीएएन के साथ एकजुटता की गहरी भावना के साथ हम हार्दिक स्वागत करते हैं.
आइसीएएन को यह सम्मान देकर नॉर्वे की नोबेल कमेटी ने नाभिकीय शस्त्र निरोध की उस प्रथम बहुपक्षीय संधि को साकार करने में आइसीएएन के अहम योगदान को मान्यता प्रदान की है, जो नाभिकीय शस्त्रों के स्वामित्व, उत्पादन, उपयोग, एकत्रीकरण, तैनाती तथा परिवहन को प्रतिबंधित करती है. संक्षेप में, यह संधि एक नाभिकीय शस्त्ररहित विश्व की दिशा में प्रगति के लिए एक नये अंतरराष्ट्रीय मानक की स्थापना करती है, जो तब लागू मानी जायेगी, जब कम से कम 50 देश इस पर हस्ताक्षर कर इसकी संपुष्टि कर देते हैं.
अब तक इस संधि पर 53 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं और वहां संपुष्टि की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है. एक बार जब यह संधि अंतरराष्ट्रीय कानून के अंतर्गत स्थापित हो जाती है, तो इसके आधार पर भारत समेत सभी नौ मौजूदा नाभिकीय शस्त्रसंपन्न देश गैरकानूनी तथा आपराधिक व्यवहार के दोषी माने जायेंगे.
ज्ञातव्य है कि दासता की समाप्ति के संघर्ष को भी उसकी आपराधिकता के विरुद्ध पहले एक नैतिक-कानूनी सिद्धांत की स्थापना से बल मिला था. ठीक उसी तरह, आइसीएएन ने यह महसूस किया कि विश्व से नाभिकीय शस्त्रों की समाप्ति के लिए भी प्रथमतः एक नैतिक-कानूनी सिद्धांत की स्थापना में सहायता प्रदान करना एक बड़ा कदम सिद्ध होगा.
संयुक्त राष्ट्र द्वारा समर्थित इस निरोधक संधि की वार्ता का जिन नाभिकीय शस्त्रसंपन्न देशों ने बहिष्कार किया था, उन्हें इसकी प्रगति के साथ अब लज्जित होना होगा. यह पुरस्कार एक ऐसे सही मौके पर घोषित हुआ है, जब ट्रंप प्रशासन 2015 में ईरान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के पांचों सदस्य देशों तथा यूरोपीय संघ के बीच संपन्न ईरान नाभिकीय करार ढांचे से बाहर निकल आने पर संजीदगी से विचार कर रहा है. दूसरी ओर, उत्तरी कोरिया के विरुद्ध अमेरिका युद्धोन्माद बढ़ाने में भी लगा है, जिससे हालात बदतरीन होते जा रहे हैं.
इस पुरस्कार ने संभावित नाभिकीय युद्ध की भीषण मानवीय कीमतों के आधार पर, इस संधि को लागू करने की दिशा में आइसीएएन के द्वारा दी जानेवाली शक्तिशाली दलीलों को भी वैधता प्रदान की है.
इससे भी आगे बढ़कर, यह संधि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नाभिकीय भय-निरोध (डिटरेंस) की दलीलों के आधार पर नाभिकीय शस्त्रों के स्वामित्व की अनैतिकता पर भी बल देती है. आइसीएएन के कार्यों की मान्यता कभी-न-कभी और कहीं-न-कहीं नाभिकीय युद्ध छिड़ने की बिलकुल वास्तविक संभावना तथा इस वजह से पूरे विश्व के नागरिकों द्वारा एक नाभिकीय-मुक्त विश्व के लिए संघर्ष करने की जरूरत के प्रति एक बड़ा जनजागरण सृजित करने में भी सहायता पहुंचायेगी.
ऐसे किसी भी नाभिकीय युद्ध की शुरुआत के सर्वाधिक संभावित स्थलों में दक्षिण एशिया भी एक है, जहां भारत और पाकिस्तान जैसे नाभिकीय शस्त्रसंपन्न राष्ट्र पिछले 70 वर्षों से सतत एक ऐसे ऊष्ण-शीत युद्ध की स्थिति में हैं, जिसकी समाप्ति होती नहीं दिखती.
सच तो यह है कि भारतीय वायुसेना प्रमुख ने ऐसे ही नाभिकीय दर्प का प्रदर्शन करते हुए अभी-अभी सार्वजनिक रूप से यह कहा कि भारत पाकिस्तानी नाभिकीय स्थलों की पहचान करके उन्हें विनष्ट करने में समर्थ है, और उधर सीमापार से उनके पाकिस्तानी समकक्ष ने भी उसका उत्तर उतनी ही उग्रता से दिया.
क्षेत्रीय तथा वैश्विक नाभिकीय निःशस्त्रीकरण हासिल करने में आइसीएएन एवं विश्व के अन्य नाभिकीय-विरोधी संगठनों की लगातार जारी कोशिशों को सीएनडीपी अपना पूर्ण समर्थन देता है. सीएनडीपी एक वृहत्तर राष्ट्रीय मंच एवं कार्ययोजना के सृजन की दिशा में कार्य करेगा, ताकि इस संघर्ष को जारी रखा जाये.
कई देशों के पास नाभिकीय हथियारांे का जखीरा
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2013 में प्रस्ताव पारित कर कहा था कि 26 सितंबर परमाणु अस्त्रों के समूल नाश के अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जायेगा. अमेरिका के पास दशकों से ऐसे परमाणु हथियार हैं, जो धरती को इतनी बुरी तरह तबाह कर सकते हैं कि यह इंसान के रहने लायक भी न रह जाये. अमेरिका के हथियारों का जखीरा ब्रिटेन के मुकाबले 31 गुना और चीन के मुकाबले 26 गुना बड़ा है.
वाशिंग्टन स्थित संस्था आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन की लगभग सात महीने पुरानी रिपोर्ट के अनुसार केवल रूस ही है, जो परमाणु शक्ति के मामले में फिलहाल अमरीका से आगे है. अमेका के पास कुल 6,800 परमाणु हथियार हैं, जबकि रूस के पास 7,000 ऐसे हथियार हैं.
अमेरिका और रूस ही दो ऐसे देश हैं, जिनके पास परमाणु हमले के लिए जरूरत से ज्यादा हथियार हैं. दोनों के पास दुनिया में मौजूद कुल 15,000 ऐसे हथियारों का 90 फीसदी है. इस लिस्ट में 300 हथियारों के साथ फ्रांस तीसरे नंबर पर है.
परमाणु हथियारों के खिलाफ अभियान को नोबेल शांति पुरस्कार
इस बार का नोबेल शांति पुरस्कार किसी व्यक्ति की बजाय एक संगठन को मिला है. नोबेल शांति पुरस्कार कमेटी ने अपनी घोषणा में कहा है कि आईसीएएन को ‘परमाणु हथियारों के इस्तेमाल से होने वाली भयानक मानवीय त्रासदी की तरफ लोगों का ध्यान दिलाने और अपनी कोशिशों से इस तरह के हथियारों के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए संधि’ कराने के लिए उसे 2017 का नोबेल पुरस्कार दिया जायेगा. नोबेल कमेटी ने चेतावनी दी है कि परमाणु युद्ध का संकट लंबे समय के बाद इस वक्त काफी बड़ा है.
आइसीएएन दुनिया भर के नागरिक समाज का एक संगठन है जो परमाणु हथियारों पर पूरी तरह से रोक लगाने की संधि और उस पर अमल के लिए अभियान चला रहा है. इस अभियान की वजह से ही यह संधि भी हो सकी है.
आइसीएएन 2007 में शुरू किया गया और इस वक्त इस संगठन के 468 सहयोगी संस्थाएं हैं जो 101 देशों में फैली हैं. इसकी शुरुआत ऑस्ट्रेलिया से हुई थी. इसी साल जुलाई में 122 देशों ने संयुक्त राष्ट्र की परमाणु हथियारों पर रोक लगाने वाली संधि को स्वीकार किया था. हालांकि परमाणु हथियारों वाले बड़े देश अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस इस बातचीत से बाहर रहे.
मौजूदा दौर में अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच युद्ध की आशंकाओं के साथ ही ईरान के साथ दुनिया के ताकतवर देशों के परमाणु करार पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नकारात्मक रवैये से आशंकाओं के बादल मंडरा रहे हैं. निरस्त्रीकरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए नोबेल कमिटी ने अपनी चिंताएं भी जाहिर की है.
साहित्य के नोबेल पुरस्कार से जुड़े कुछ तथ्य
– वर्ष 1901 से अब तक कुल विभिन्न भाषाओं के 110 साहित्यकारों को नोबेल पुरस्कार.
-साहित्य नोबेल पानेवाले में 14 महिला लेखक शामिल.
– चार दफे इस पुरस्कार को संयुक्त रूप से दो साहित्यकारों को दिया गया.
– डोरिस लेसिंग को 88 वर्ष की उम्र में यह पुरस्कार मिला. वह सबसे अधिक उम्र की विजेता हैं.
– अंगरेजी के मशहूर लेखक रुडयार्ड किपलिंग 41 वर्ष की उम्र में नोबेल प्राप्त करनेवाले सबसे कम आयु के लेखक थे.
– हो सकता था कि मैं कोई और जीवन जी रहा होता, पर अभी तो यही मेरी जिंदगी है.
– यदि बच्चे बगैर दुख के बड़े होते हैं, तो यह उन सबके साथ धोखा होगा.
– एक लेखक के रूप में मैं अधिक दिलचस्पी इस बात में रखता हूं कि घटनाओं के बारे में लोग क्या बताते हैं, बजाये इसके कि वास्तव में क्या घटित हुआ.
– मेरे लिए स्मृतियां बहुत प्रमुख हैं. इसका एक हिस्सा यह है कि मुझे स्मृतियों के द्वारा लेखन का वास्तविक स्वरूप पसंद है.
मैं खुश हूं कि परमाणु हथियारों के खात्मे के लिए कदम उठानेवाली संस्था आइसीएएन को शांति के नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है. मैं आइसीएएन को बहुत-बहुत बधाई देता हूं.
– सुनाओ सुबाई, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान पर हुए परमाणु
बम हमले के सर्वाइवर
परमाणु हथियारों की दौड़ में अमेरिका-रूस आगे
साल 2010 में प्राग में हुए स्ट्रैटेजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी के तहत अमरीका और रूस को अप्रैल, 2018 तक अपने परमाणु हथियारों के जखीरे को एक समान करना होगा. इसके बाद 2020 में दोनों देशों के बीच नये समझौते पर विचार किया जाना है.नाटो समझौते के तहत अमरीका ने बेल्जियम, जर्मनी, इटली, नीडरलैंड और तुर्की में अपने परमाणु हथियार तैनात किये हैं.
कनाडा, ब्रिटेन और मिस्र में भी उसके हथियार थे, जो बाद में हटा लिये गये. इसके अलावा सैन्य ठिकानों पर और युद्धपोतों पर भी ऐसे हथियार रखे गये हैं.
निरस्त्रीकरण मामलों के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय का कहना है, ‘इससे न केवल एक पूरे शहर को खत्म किया जा सकता है, बल्कि लाखों लोगों का मारा जा सकता है और पर्यावरण को तथा आनेवाली पीढ़ी को भी नुकसान पहुंचाया जा सकता है.’
नोबेल साहित्य पुरस्कार
विजेता : कात्शुओ इशिगूरो
जन्म : 8 नवंबर,1954. नागासाकी, जापान
कृतियां : ‘द रिमेंस ऑफ द डे’ और ‘नेवर लेट मी गो’ दोनों ही मशहूर उपन्यासों पर 1993 व 2010 में फिल्में आ चुकी हैं.
‘द रिमेंस ऑफ द डे’ से मशहूर हुए उपन्यासकार कात्शुओ इशिगुरो का जन्म तो जापान में हुआ, लेकिन वह अब ब्रिटेन में रहते हैं और अंग्रेजी में लिखते हैं. नोबेल कमेटी ने पुरस्कार का एलान करते हुए अपने बयान में कहा है कि इशिगूरो ने ‘अपने बेहद भावुक उपन्यासों से दुनिया के साथ संपर्क के हमारी मायावी समझ की गहराई पर से पर्दा उठाया’.
इशिगुरो को चार बार मैन बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया और 1989 में उन्हें दर रिमेंस ऑफ द डे के लिये बुकर पुरस्कार मिला. उन्होंने केंट यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया. बासठ साल के इशिगुरो के चुनाव ने दो साल तक गैर-पारंपरिक साहित्य को नोबेल मिलने के बाद पारंपरिक साहित्य की दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कारों में वापसी करायी है.
पुरस्कार देने वाली स्वीडिश एकेडमी की स्थायी सचिव सारा डैनियस का कहना है, ‘मैं कहूंगी कि अगर आप जेन ऑस्टीन की कॉमेडी के तौर-तरीकों को काफ्का की मनोवैज्ञानिक अंतरदृष्टि से मिला दें, तो मेरे ख्याल में आपको इशिगुरो मिल जायेंगे.’
इशिगुरो का जन्म जापान के नागासाकी में हुआ लेकिन उनका परिवार ब्रिटेन चला आया तब उनकी उम्र महज पांच साल थी. ‘द रिमेंस ऑफ द डे’ में एक बड़े घर का रसोइया अभिजात वर्ग की सेवा में बीती अपनी जिंदगी की ओर मुड़ कर देखता है. यह किताब 20वीं सदी के इंग्लैंड में डाउनटाउन आबे जैसे माहौल के बीच दबी हुई भावनाओं की एक गहरी दुनिया को दिखाती है.
वर्ष 1993 में इस किताब पर एक फिल्म भी बनी. एंथनी हॉपकिंस और एम्मा थॉमसन के अभिनय वाली इसफिल्म को ऑस्कर पुरस्कारों के लिए आठ नामांकन मिले थे. इसी तरह 2005 में आया इशिगिरो का उपन्यास नेवर लेट मी गो भी वैसा नहीं जैसा कि नाम से प्रतीत होता है. बोर्डिंग स्कूल में तीन युवा दोस्तों की कहानी लगता यह उपन्यास धीरे धीरे एक मनहूस कहानी में तब्दील हो जाता है जिसमें साइंस फिक्शन के तत्व भी हैं और जो गहरे नैतिक सवाल उठाता है.
साल 1986 में इशिगिरो का उपन्यास ‘एन आर्टिस्ट ऑफ द फ्लोटिंग वर्ल्ड’ छपा. इस उपन्यास में एक जापानी कलाकार अपनी बीती जिंदगी की ओर देखता है. उनकी यह किताब बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित हुई थी.
नोबेल पुरस्कार के रूप में काजुओ इशिगुरो को करीब 11 लाख डॉलर की रकम मिलेगी जो भारतीय मुद्रा में छह करोड़ रुपये से कुछ ज्यादा है.
कात्शुओ इशिगुरो: मानव गरिमा का कुशल चितेरा
चंदन पांडेय
लेखक
अरसा पहले मुझे कात्शुओ इशिगुरो की किताब ‘दि रिमेन्स ऑफ दि डे’ पढ़ने को मिली थी. वह मुहाने की किताब है. जहां सभ्यताओं का मुहाना मिलता है, जहां कार्य-संस्कृति के दो मुहाने मिलते हैं.
और उससे भी ऊपर वह किताब पुरानी पड़ती जा रही उस धारणा का उत्कृष्ट उल्लेख है, जिसे ‘कर्तव्यपारायण होना’ कहा जाता है. इसमें स्टीवेंस नाम के एक ऐसे बुजुर्ग की कहानी है, जो एक बड़े घराने में प्रमुख नौकर (बटलर) है. उस घर की सारी जिम्मेदारियां उसकी हैं, जिसमें बाकी नौकरों से काम लेना भी शामिल है.
एक दृश्य है, जिसमें द्वितीय विश्वयुद्ध के ठीक पहले जर्मनी के ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और अमेरिका के संबंधों पर बातचीत के लिए एक अनौपचारिक गोष्ठी बुलायी गयी है. घर का पुराना मालिक, जिसकी स्मृति के बहाने यह किताब लिखी गयी है, इतना रसूखदार है कि इन देशों के बड़े-बड़े अधिकारी इसी के घर रुकते हैं और गोष्ठी भी वहीं होनी है.
यही वह जगह है, जहां जर्मनी का भाग्य तय होता है. उस कहानी को आप लोग किताब में ही पढ़े, लेकिन जिस बात का जिक्र करना चाहता था, वह है स्टीवेंस का किरदार. एक आयोजन संबंधी जिम्मेदारी स्टीवेंस पर पड़ती है, मालिक भरोसा दिखाता है. उसी चारदीवारी के एक कमरे में उसका पिता अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है. बेटा जाता है, मिलता है, लाचार सा मिलन है यह. दूसरों को पिता की देख-भाल सौंपता है और खुद काम पर वापस लौट आता है.
दरअसल, यह उपन्यास उस व्यक्तिगत हानि (लॉस) की भी है, जो हमें तब होता है, जब किसी बड़े कारण के लिए खुद को न्यौछावर कर देते हैं. कहानी कला और भाषा पर अद्भुत गति है इशिगुरो की. प्रयोग और विमर्शों के इस दौर में सीधी-सच्ची कहानियों को वृहद् उपन्यासों का कथ्य बनाना बड़े साहस की मांग करता है.
इसके बाद एक रौ में इनकी कई किताबें पढ़ गया था. ‘व्हेन वी वेयर ओरफंस’, ‘आर्टिस्ट ऑफ दि फ्लोटिंग वर्ल्ड’ और ‘दि कॉनसोल्ड’. इनमें कॉनसोल्ड ने ठीक-ठाक प्रभावित किया. इसके बाद इस लेखक की सबसे अच्छी किताब हाथ लगी. आज भी वह किताब हाथ लगे, तो हम दो-चार पन्ने पढ़े बिना आप छोड़ नहीं सकते: नेवर लेट मी गो.
इसका कथ्य सुनने में सामान्य लगेगा. एक दड़बानुमा हॉस्टल है, कुछ कमसिन उम्र के लड़के-लड़कियां हैं और उनका जीवन है. लेकिन, ये बच्चे ‘जीन तकनीक’ से बनाये गये हैं. इन्हें अंगों की खेती (ऑर्गन फार्मिंग) के लिए तैयार किया गया है. अमीर-उमरे की जरूरत के अनुसार, इन बच्चों/युवकों के एक अंग का इस्तेमाल होता है. यह एक बड़ा व्यवसाय बनता है.
यह कोई काल्पनिक ही सही, लेकिन सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम है. और वह सरकार एक दिन निर्णय लेती है कि यह सब प्रयोग बंद होंगे. फिर क्या होता है उन हाड़-मांस के पुतलों का, उनके संबंधों का, उनके प्रेम का, उनकी ईर्ष्या का… यह एक महान किताब है, जो मनुष्य की भावनात्मक मुश्किलों का जवाब देने की कोशिश करती है. यह किताब अपने कथ्य, अपनी भाषा, रवानगी और अपनी पकड़ से दंग करती है.
उनकी किताब ‘दि ब्यूरिड जायंट’ भी एक बेहतरीन तरह से लिखी हुई किताब है. यह उपन्यास स्मृति और अपराधबोध को रेखांकित करता है.
ब्रिटेन के मध्यकालीन इतिहास के आधार पर बुना यह उपन्यास बतलाता है कि स्मृति और ख्याल का फर्क क्या है? इस उपन्यास को भी चौतरफा सराहना मिली थी. इस ऐतबार से देखते हैं, तो पाते हैं कि इशिगुरो का लेखन और व्यक्तित्व संत सरीखा है. वे मनुष्य की गरिमा और उसके निकट बुने विषयों पर लिखते हैं.