डॉ राम मनोहर लोहिया की 50वीं पुण्यतिथि आज : भारत के संदर्भ में मार्क्स को अप्रासंगिक मानते थे लोहिया
उमेश चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटाइन ने गांधी के बारे में कहा था कि भविष्य में लोग यकीन नहीं करेंगे कि गांधी जैसा हाड़-मांस का पुतला सचमुच-ही इस ज़मीन पर पैदा हुआ था. कुछ इसी अंदाज में अगर लोहिया की वैचारिकी को लेकर भी कहा जा सकता है. राजनीति में वैचारिकता से लगातार […]
उमेश चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार
मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटाइन ने गांधी के बारे में कहा था कि भविष्य में लोग यकीन नहीं करेंगे कि गांधी जैसा हाड़-मांस का पुतला सचमुच-ही इस ज़मीन पर पैदा हुआ था. कुछ इसी अंदाज में अगर लोहिया की वैचारिकी को लेकर भी कहा जा सकता है.
राजनीति में वैचारिकता से लगातार बढ़ते विचलन के दौर में आने वाले दौर में लोग हैरत करेंगे कि इसी दुनिया में एक ऐसा फक्कड़ राजनेता भी पैदा हुआ था, जिसकी वैचारिकता की परिधि में समाज, धर्म, राजनीति और अर्थनीति जैसे तमाम विषय शामिल थे. जब सत्ता से कुछ वक्त दूर रहने के बाद ही राजनेता अप्रासंगिक होते जा रहे हों, उनकी वैचारिकी को लेकर कुछ बिंदुओं पर असहमति हो सकती है, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी सोच आज की कई समस्याओं का हल सुझा सकती है और उनके आधार पर भावी भारत के कई सुनहरे सपनों को पूरा किया जा सकता है.
दुर्भाग्यवश मार्क्स के अनुयायियों ने उन्हें रूढ़ बनाया. वैज्ञानिक समाजवाद को रूढ़ि में बांधकर इतना संकुचित कर दिया कि उनका दर्शन लगातार अप्रासंगिक होता गया. कुछ उसी अंदाज में लोहिया की विरासत के दावेदारों ने भी उनके विचारों को सिर्फ चुनावी भाषण तक सीमित कर दिया. धर्म, कृष्ण, शिव और राम पर उनके विचारों को उनके ही अनुयायी हकीकत की अपनी दुनिया से लगातार तिरोहित कर रहे हैं.
नेहरू उन्हें एक दौर में छोटा भाई मानते थे. लेकिन आजाद भारत में नेहरू की नीतियों की आलोचना करने का उन्होंने कोई मौका नहीं छोड़ा. चाहे तिब्बत का सवाल हो, चाहे चीन की विस्तारवादी नीति की अनदेखी के साथ चीन की ओर बढ़ते दोस्ती का हाथ हो या फिर आम लोगों की दुश्वारी का सवाल हो, लोहिया नेहरूवादी नीतियों को तार्किक ढंग से जिम्मेदार ठहराने से नहीं चूके.
चीन के हाथों 1962 की करारी हार के बाद लोहिया को लगा कि बिना कांग्रेस से मुक्ति के बिना आजादी के दौरान देश को लेकर देखे गए सपनों को पूरा करना संभव नहीं होगा, इसलिए उन्होंने गैर कांग्रेसवाद का दर्शन दिया.
इस गैर कांग्रेसवाद की परिधि में उन्होंने जनसंघ को जोड़ा. यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के आज सबसे बड़े आलोचक लोहिया के ही अनुयायी हैं. अब उनका तर्क है कि मौजूदा हालात में गैर कांग्रेसवाद का कोई मतलब ही नहीं है.
लेकिन यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि 1963 में गैर कांग्रेसवाद की जो नींव लोहिया ने दीनदयाल उपाध्याय के साथ रखी, उस नींव ने अजेय समझी जाने वाली कांग्रेस की राजनीतिक नींव को हिलाकर रख दिया. 1963 के उपचुनावों में बेशक उत्तर प्रदेश के जौनपुर से दीनदयाल उपाध्याय चुनाव नहीं जीत पाये, हालांकि इसकी भी वजह उनकी कट्टर सिद्धांतवादिता रही, लेकिन फर्रूखाबाद से खुद डॉ्टर लोहिया, अमरोहा से आचार्य जेबी कृपलानी और राजकोट से जीतकर मीनू मसानी लोकसभा पहुंचे और लोकसभा की सूरत ही बदल गई.
लोकसभा की प्रखर वैचारिक बहसों ने देश को हिलाकर रख दिया और इसके साथ ही जो माहौल बना, उस माहौल में 1967 के चुनावों में नौ राज्यों में विपक्षी दलों की संविद सरकारें बनीं, जिसमें लोहिया के अनुयायियों और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संगठन जनसंघ की बड़ी भूमिका थी. इसके जरिए इतिहास रचा जा सकता था, लेकिन इसी दौरान लोहिया का असामयिक निधन हो गया और समाजवादियों का अंतर्विरोध चरम पर जा पहुंचा. इस अंतर्विरोध की जड़ें लोहिया के सिद्धांतों में भी ढूंढी जा सकती है.
लोहिया का जोर ज्यादातर वैचारिक आंदोलनों पर रहा, उन्होंने अपनी प्रखर मेधा से अपनी सैद्धांतिकी के नये-नये सोपान तय किये. लेकिन लोकतांत्रिक समाज में बदलाव के एक बड़े औजार संगठन पर उनका ध्यान कम रहा. अपनी सैद्धांतिकी को कोई भी समूह समसोच संगठन के जरिए ही अमलीजामा पहना सकता है. लोहिया के लिए वैचारिकी कितनी महत्वपूर्ण थी, इसका अंदाज उनके उस बयान से ही लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बदलो या टूट जाओ.
टूटना संगठनात्मक नजरिए से सही नहीं होता, इसका असर समाजवादी राजनीति पर हमेशा दिखता रहा.लोहिया के अनुयायी आज उस पश्चिमी समाजवाद, जिसे मार्क्सवाद कहा जाता की ओर ज्यादा उन्मुख दिख रहे हैं, जिसको उन्होंने भारतीय संदर्भों में अनफिट बताया था. इसके लिए उन्होंने पांच कारण गिनाये थे- स्त्री, जाति, संपत्ति, ईश्वर और राष्ट्रीयता. लोहिया का कहना था कि भारतीय समाज स्त्री और पुरुष के प्रति एकनिष्ठ व्यवहार का हामी है और किसी भी कीमत पर इसमें विचलन बर्दाश्त नहीं करेगा.
इसके साथ ही उन्होंने जाति को भी कटु सचाई माना. भारतीय समाज को अपनी-अपनी हैसियत में संपत्ति बनाने की अजस्र भावना है और वह ईश्वर के प्रति असीम भरोसा रखता है. लोहिया मानते थे कि भारतीय भूमि के निवासियों के लिए राष्ट्रीयता तमाम विचारों के उपर है.
जबकि मार्क्स का दर्शन अपने ढंग से इन सभा का विरोध करता है. लोहिया मार्क्स को इन्हीं संदर्भों में एकांगी मानते थे. लोहिया राष्ट्रवादी तो थे, लेकिन विश्व-सरकार का सपना भी देखते थे. वे आधुनिकतम विद्रोही और क्रांतिकारी थे, लेकिन शांति व अहिंसा के भी अनूठे उपासक थे. इतना नहीं नहीं, लोहिया मानते थे कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधी होकर भी दोनों एकांगी और हेय हैं.
इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दे सकता है. फिर वे समाजवाद को भी प्रजातंत्र के बिना अधूरा मानते थे. उनकी दृष्टि में प्रजातंत्र और समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. लोहिया की नजर में समाजवाद और प्रजातंत्र एक-दूसरे के बिना अधूरे व बेमतलब हैं.
वैचारिक विरोधों के बावजूद अगर नये भारत की राह की खोज की जाती है तो उसमें लोहिया के विचार आज भी प्रासंगिक नजर आते हैं. देश को अगर आगे बढ़ना है तो उसे मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में भी लोहिया की राह पर ही आगे बढ़ना होगा. दीन दयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद भी उसमें बड़ा सहयोगी हो सकता है. (लेखक आकाशवाणी के मीडिया कंसल्टैंट हैं.)