छठ महापर्व खरना आज : छठ मने ठेकुआ, सिंघाड़ा मखाना, ‘सारदा’ जी का गाना
राजशेखर कुछ बाहर के मित्र हमेशा मजाक में कहते हैं कि एक बिहारी को तो बिहार से निकाल दोगे, मगर बिहारी से बिहार को निकाल पाना बहुत मुश्किल है. सही कहते हैं. आज बाहर रहते हुए इतने साल हो गये पर अभी भी खान-पान, बोली-बानी हो और संवेदना, हम बिहार में ही हैं. दरअसल आप […]
राजशेखर
कुछ बाहर के मित्र हमेशा मजाक में कहते हैं कि एक बिहारी को तो बिहार से निकाल दोगे, मगर बिहारी से बिहार को निकाल पाना बहुत मुश्किल है. सही कहते हैं.
आज बाहर रहते हुए इतने साल हो गये पर अभी भी खान-पान, बोली-बानी हो और संवेदना, हम बिहार में ही हैं. दरअसल आप जितना बाहर जाते हैं, उतना ही अपने भीतर भी उतरते हैं. आपका नोस्टेल्जिया बढ़ता जाता है. यह नोस्टेल्जिया ही मेरा ईंधन है, मेरी पूंजी है. छठ भी मेरे लिए एक नोस्टेल्जिया है. यह दिवाली से बचे पटाखों की महक है, ननिहाल की याद है, नानी की याद है.
नानी के सूती साड़ी का अचरा है, नबका केतारी की मिठास और टाभ नेबू का खट्टापन है. छठ दूसरे त्योहारों से अलग इसलिए भी लगता है, क्योंकि इसमें जो उपास्य है, वह हमारे सामने है. हमने कभी भी राम को, कृष्ण को, दुर्गा को या तमाम देवी-देवताओं को देखा नहीं. बस उनकी महिमा सुनी है.
पर छठ में जिनकी पूजा होती है, सूर्य देवता की, वो न सिर्फ सामने दिखते हैं, बल्कि हमारे रोजमर्रा के जीवन से उनका गहरा संबंध है. खासकर मैं जिस तरह के परिवार से आता हूं, किसान परिवार से, उसका तो अन्योन्याश्रय संबंध है. कई बार हम सूर्य से नाराज होते हैं कि कब उगियेगा, काहे दिन डुबाए हुए हैं, कई बार इस बात पर भी कि काहे फसल झुलसा रहे हैं, अब तक गरमी कम कीजिये. किसानी जीवन से जुड़े लोगों के लिए छठ पूजा से बढ़कर रिश्ता निभाने जैसा है.
दरअसल छठ प्रकृति और मनुष्य के आदिम संबंधों का पर्व है. यह उस जनमानस का उत्सव है, जो अभी भी प्रकृति से जुड़ा हुआ है. प्रकृति की गोद में है. शहर में भी छठ के मौके पर गांव ही जिंदा होता है. चाहे वह फल-फूल के रूप में हो या ठेकुआ जैसे प्रसाद के रूप में. सूर्य हमारा अस्तित्व है, वह हमारी गरिमा है. सूरज से रबी है, सूरज से गरमा है, सूरज से नक्षत्रों की आवाजाही है. सूर्य केंद्र में है. मगर इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी सबकुछ गौण है. अंग्रेजी में एक शब्द है ‘लेवलर’, जो सबको समान कर देता है, छठ भी सबको समान कर देता है.
घाट पर कौन किस तबके का है, किस घाट का है, पता नहीं चलता. हर किसी के सूप में वही गन्ना, वही डाभ, वही ठेकुआ होगा. बड़े-छोटे हर कोई हाथ जोड़ कर, अर्घ देकर कहते हैं, हे सूर्यदेव, ठंड के दिन आने वाले हैं, ध्यान रखना. दहिन रहना. कुहासे के घने जंगल में चहकते रहना. यह जेंडर न्यूट्रल भी है. छठ में मेरे साथ, मेरी बहन के लिए भी अर्घ दिया जाता है. शायद यह अकेला ऐसा त्योहार होगा जिसमें हर बेटियों की खुशी के लिए मन्नत मांगते हैं.
मेरे गांव में छठ नहीं होता है, इस मौके पर हमलोग ननिहाल जाते थे. दिवाली के पटाखे बचा कर रख लेते थे, नये कपड़े रख लेते थे कि मौसियों के बच्चे जो आयेंगे, वे क्या पहनेंगे, हम क्या पहनेंगे. आकाशवाणी, पटना से हर साल छठ का प्रसारण होता था. मेरे यादों में यही सब है. इसी नोस्टेल्जिया को लेकर एक छोटी सी कविता लिखी है-
गोबर से, मिट्टी से, लीपा हुआ घर-दुआर
नया धान, कूद-फांद, गुद-गुद टटका पुआर
छठ मने ठेकुआ, सिंघारा-मखाना
छठ मने ‘सारदा’ सिन्हा जी का गाना
बच्चों की रजाई में भूत की कहानी
देर रात बतियाती मां, मौसी, मामी
व्रत नहीं, छठ मने हमरे लिए तो
व्रत खोल पान खाके हंसती हुई नानी
छठ मने छुट्टी, छठ मने हुलास
छठ मने ननिहाल, आ रहा है पास
(राजशेखर बॉलीवुड के जानेमाने गीतकार हैं, उन्होंने तनु वेड्स मनु समेत कई हिंदी फिल्मों के गीत लिखे हैं. वे मधेपुरा, बिहार के रहने वाले हैं.)