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भारतीय राजनीति में पटेल का कोई विकल्प नहीं

राहुल देव वरिष्ठ पत्रकार सरदार पटेल आजादी के उन प्रथम पंक्ति के नेताओं में हैं, जो हमेशा प्रासंगिक रहेंगे. पटेल जैसे निर्णायक, ईमानदार, साहसी, अपने समाज की गहरी समझ रखनेवाले, निर्भीक और दो-टूक वाले नेता की हमारी राजनीति में हमेशा जरूरत थी, और आज भी है. इस ऐतबार से हमेशा ही पटेल की प्रासंगिकता बनी […]

राहुल देव
वरिष्ठ पत्रकार
सरदार पटेल आजादी के उन प्रथम पंक्ति के नेताओं में हैं, जो हमेशा प्रासंगिक रहेंगे. पटेल जैसे निर्णायक, ईमानदार, साहसी, अपने समाज की गहरी समझ रखनेवाले, निर्भीक और दो-टूक वाले नेता की हमारी राजनीति में हमेशा जरूरत थी, और आज भी है. इस ऐतबार से हमेशा ही पटेल की प्रासंगिकता बनी रहेगी.
यानी ऐसा नेता जो कुछ वर्गों को खुश करने के लिए बात न करे, बल्कि जो सही हो, उस पर तथ्यपरक बात करे, भले ही वह किसी को अच्छा लगे या बुरा. हमें न सिर्फ ऐसी बात करनेवाला राजनीतिक व्यक्तित्व चाहिए, बल्कि उस बात पर उसे खुद अमल भी करना आना चाहिए. पटेल इस मामले में अग्रणी नेता थे. देश की आंतरिक समस्याओं की गहरी समझ रखने के साथ ही प्रशासनिक ढांचे को खड़ा करने में पटेल की भूमिका अद्वितीय है. यह पटेल की ही दूरदर्शिता थी कि उन्होंने आजादी के बाद भी बहुत से अंग्रेज अधिकारियों को नहीं बदला. शुरुआती वर्षों में भारतीय प्रशासनिक सेवा को जितना सम्मान और स्वाभिमान किसी ने दिया, तो वे पटेल ही थे.
नेहरू से पहले पटेल!
ऐतिहासिक विभूतियां अपने को एक ही रूप में बार-बार नहीं दोहरातीं और न ही परिस्थितियां ही खुद को वापस बुलाती हैं. इसलिए अब भारतीय राजनीति में फिर कोई पटेल होगा, ऐसा कहना मुश्किल है. हालांकि, ऐसे नेता की आज सख्त जरूरत है.
भारत के भौगोलिक, राजनीतिक और एकता के रूप में आज जिस बात को देखने की हमें आदत पड़ गयी है, वह सरदार पटेल ने दी है. यह एक ऐसा काम था, जो शायद कोई और नहीं कर सकता था. नियति ने यह काम सरदार पटेल के कंधों पर डाला और जिस तरह से वीपी मेनन के साथ उन्होंने इसे पूरा किया, वह आज किसी भी देश के लिए ऐतिहासिक गर्व की बात है. यह दुर्भाग्य है कि सरदार पटेल की उस भूमिका के बारे में ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं है. आधुनिक समकालीन राष्ट्र-राज्य के रूप में हम जिस भारत को देखते हैं, उसके पहले पांच मुख्य निर्माताओं का अगर नाम लिया जायेगा, तो मैं उसमें नेहरू से भी आगे सरदार पटेल को रखूंगा.
सभी वर्गों को खरी-खरी
कुछ लोगों का कहना है कि पटेल हिंदुत्व विचारधारा को मानते थे. मेरा मानना है कि सरदार पटेल को किसी वाद या विचारधारा में बांधकर देखना ऐतिहासिक अपराध होगा. सबकी अपनी एक अलग दृष्टि और संवेदनशीलताएं होती हैं.
गांधीजी के सर्वाधिक नजदीकी लोगों में जिस तरह से पटेल बने रहे, वह कोई हिंदुवादी नहीं कर सकता था. गांधीजी के सामने भी कई लोग शिकायत करते थे कि पटेल हिंदुओं को ज्यादा तवज्जो देते हैं, हिंदूवादी हैं, लेकिन गांधीजी ने उन लोगों को समझाया कि ऐसा नहीं है. पटेल उन गिने-चुने लोगों में से थे, जो दो-टूक में बात करते थे और किसी वर्ग विशेष की भावनाओं को तुष्ट करने या उन्हें खुश करने के लिए नहीं, बल्कि तथ्यों पर बात करते थे. उस समय पटेल और गांधीजी ऐसे नेता थे, जो एक साथ हिंदुओं को भी डांट सकते थे और मुसलमानों को भी डांट सकते थे.
और ये दोनों इनकी बात को गौर से सुनते थे. लेकिन, आज ऐसा नहीं है. आज या तो लोग हिंदुओं को खुश करने की बात करते हैं या मुसलमानों को. या तो दलितों को खुश करने की बात करते हैं या सवर्णों को. हमारी राजनीति और नेताओं का चरित्र ऐसा हो गया है कि वे वर्गीय हितों को ध्यान में रखकर ही बात करते हैं. इसलिए आज देश और समाज को समग्रता में सामने रखकर सबके हित की बात करने की जो जरूरत है, वही चीज सरदार पटेल को प्रासंगिक बनाती है और उन्हें किसी खांचे से मुक्त करती है.
भारतीयता की जड़ों को बचाये रखा
नेहरू जी की तरह ही सरदार पटेल ने भी इंगलैंड से वकालत की पढ़ाई की थी, लेकिन पटेल ने अपने ऊपर पश्चिमी विचारधारा और जीवनशैली का प्रभाव नहीं पड़ने दिया, जैसा नेहरू जी पर पड़ा. आधुनिक विश्व की तमाम जटिलताओं से परिचित होने के बावजूद पटेल एक खांटी भारतीय बने रहे यानी गांव में पैदा होने के संस्कार और भारतीयता की जड़ों को अपने अंदर बचाये रखा. इसलिए वे भारत को बहुत ज्यादा करीब से समझ पाये. अन्यथा राज्यों के विलय का काम बहुत मुश्किल था.
अगर वे भारत के पहले प्रधानमंत्री बनते, तो कश्मीर की समस्या हमारे सामने नहीं होती, और हम चीन से पहली लड़ाई में नहीं हारे होते. प्रधानमंत्री नेहरू को लिखी हुई सरदार पटेल की चिट्ठियां यह बताती हैं कि किस तरह से उन्होंने बार-बार चीन के इरादों से नेहरू को सचेत किया था. नेहरू से पटेल ने बार-बार कहा कि चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि चीन के इरादे ठीक नहीं हैं. इसी तरह कश्मीर के बारे में पटेल लगातार सचेत करते रहे.
एक आम भ्रांति यह है (गांधी-नेहरू परिवार और उनके बाद कांग्रेसजनों द्वारा उस समय भी फैलायी गयी) कि नेहरू वैश्विक राजनीति को ज्यादा गहराई से समझते थे, जबकि पटेल की सारी समझ आंतरिक मामलों को लेकर ही थी.
मेरे ख्याल में यह एक गलत अवधारणा है. क्योंकि, अगर केवल पटेल-नेहरू के पत्राचार को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि पटेल को वैश्विक राजनीति में आनेवाले उतार-चढ़ाव की गहरी जानकारी रहती थी और वैश्विक मामलों में एक अंतर्दृष्टि भी थी. इसी अंतर्दृष्टि के चलते वे बार-बार नेहरू जी को आगाह करते रहे कि चीन के साथ कैसे रिश्ते होने चाहिए.(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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