सरदार पटेल जयंती आज: राजनीति और प्रतीकों के खांचे से कहीं विशालकाय है सरदार का कद
रियासतों के विलय तक सीमित नहीं रहे पटेल स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों और आधुनिक भारत के निर्माताओं में सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्थान अग्रणी विभूतियों में है. गुजराती किसानों को अंग्रेजी शासन के शोषण के विरुद्ध लामबंद कर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े लौह पुरुष ने कांग्रेस की नीतियों को गढ़ने में अहम […]
रियासतों के विलय तक सीमित नहीं रहे पटेल
स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों और आधुनिक भारत के निर्माताओं में सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्थान अग्रणी विभूतियों में है. गुजराती किसानों को अंग्रेजी शासन के शोषण के विरुद्ध लामबंद कर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े लौह पुरुष ने कांग्रेस की नीतियों को गढ़ने में अहम भूमिका निभायी.
सैकड़ों रियासतों को भारत में विलय की जटिल समस्या का समाधान कर उन्होंने भारत को एक वृहत राष्ट्र का आकार दिया. उनकी जयंती के इस पावन अवसर पर राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के संकल्प के प्रति प्रतिबद्धता को फिर से दोहराने की आवश्यकता है. इस महान व्यक्तित्व के योगदान और प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए यह विशेष प्रस्तुति…
प्रकाश शाह
वरिष्ठ पत्रकार
कथित सर्वाधिक ऊंची प्रतिमा के रत्तीभर मोहताज नहीं रहनेवाले सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारे में जितना भी कहा और लिखा जाए, सुना और पढ़ा जाए, शायद कम है- क्योंकि उनकी उपलब्धियों को न तो पूरी तरह समझा गया है, और न ही सही मायने में समझा गया है.
न जाने क्यों कांग्रेस ने सरदार-सुमिरन प्राय: छोड़ दिया और भाजपा समेत संघ परिवार ने उन्हें अपने रंग में रंगना शुरू कर दिया! जैसा कि गोपाल कृष्ण गांधी ने एक बार अपने अनूठे अंदाज में कहा था, यह मामला एक छोर पर ‘अनुपयोग’, तो दूसरे छोर पर ‘दुरुपयोग’ का है.
सही माने में सरदार को समझने का मतलब क्या है? आपको शायद यह जान कर आश्चर्यमिश्रित मृदु आघात भी हो सकता है कि सरदार की प्रतिमा के साथ परिचय में क्या लिखना चाहिए. इस संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू का सुझाव था कि सरदार को भारतीय एकता के शिल्पी (आर्किटेक्ट ऑफ इंडियन यूनिटी) के रूप में पहचाना जाना चाहिए.
आजकल एक हवा बनी है कि नेहरू और सरदार में एक जीरो, तो दूसरा हीरो, यानी इस प्रकार से देखना. लेकिन, जवाहरलाल ने जो परिचय पंक्ति का सुझाव दिया था, उसे केंद्र में रखते हुए इस प्रकार की वैचारिक आबोहवा को दरकिनार करते हुए नये सिरे से सोचना मुनासिब है. हालांकि, यह सच है कि सरदार व नेहरू में मतभेद थे- और न तो सरदार, और न ही नेहरू ने कभी उसे छिपाना जरूरी समझा. हालांकि, यह भी सच है कि विभाजन के मसले पर नेहरू और सरदार एक साथ थे, गांधी बिलकुल अलग-थलग थे.
गौर करने वाली बात यह है कि तीनों ने राष्ट्रीय संकट के समय यथासंभव एकसाथ रह कर कर्तव्य निर्वहन की भरसक कोशिश की. अब देखिए इस स्वराज त्रिमूर्ति का कमाल. सरदार जूनागढ़ का मसला प्रोविजनल गवर्नमेंट यानी अनंतिम सरकार के जरिये हल करते हुए स्थानीय संवेदना के आदरवश सोमनाथ मंदिर के निर्माण का संकल्प घोषित करते हैं.
जहां तक निर्माण की बात है, तो वह अयोध्या की तरह विवादास्पद ढांचे की और उसे ध्वंस करने की नहीं है. बिलकुल ‘रूल ऑफ लॉ’ की मर्यादा में है. नास्तिक नेहरू काे अलबत्ता इसमें रिजर्वेशन है. आस्तिक गांधी का आदेशनुमा सुझाव है कि यह कोई शासकीय अनुष्ठान नहीं हो सकता है. अंतत: स्वतंत्र न्यास (ट्रस्ट) के जरिये मंदिर निर्माण की योजना बनती है.
देश के संविधान के निर्माण में आप गौर फरमाइये. पाकिस्तान मजहब के आधार पर बना था, मुस्लिम होने के नाते बना था. अगर शेष भारतीय उपखंड अपने को हिंदुराष्ट्र घोषित करे, तो उसका एक माने में कुछ तर्क था- अौर विभाजन की विभीषिकावश हिंदु मानस को शायद वह भाता भी.
लेकिन, गांधी-नेहरू-पटेल की स्वराज त्रिमूर्ति ने सांप्रदायिक परिभाषा से परहेज किया और सांप्रदायिकता से इतर राह पकड़ी. अगर आप नेहरू व सरदार को बिलकुल अलग-थलग दो ध्रुव की तरह देखना चाहें, तो उनकी एक राय को कैसे समझेंगे, कैसे समझायेंगे? संविधान ने जो राह ली, अगर वह नहीं लिया होता, तो क्या हश्र हो सकता था, यह पाकिस्तान के हालात से पता चलता है.
सरदार भारतीय एकता के स्तंभ हैं- यह कहते वक्त यदि केवल उनके द्वारा देशी रियासतों के विलय को ही याद करेंगे, तो इससे हम सरदार को एक सीमित दायरे में बांध देंगे. संविधान सभा की चार समितियों के वे सदस्य थे.
सलाहकार समिति और प्रांतीय संविधान समिति के वे अध्यक्ष थे और संचालन समिति व राज्य समिति में वे सदस्य की हैसियत से शामिल थे. सूचना और प्रसारण मंत्रालय का दायित्व निभाते हुए सरदार ने जाे एक प्रशासनिक पहल की थी, वह ‘ऑल इंडिया रेडियो’ की उर्दू सर्विस के शुरू होने की थी.
चूंकि सरदार एक तरह नो-नोन्सेंस लब्ज के आदी थे. हम और आप उनके इस योगदान को केंद्र में नहीं रखेंगे, तो न तो उनके साथ न्याय होगा, और न ही हमारी सोच के साथ.
एक और बात. वल्लभ भाई को ‘सरदार’ की जनउपाधि कब मिली? तारीख गवाह है कि बारडोली के किसानों को उन्होंने जिस प्रकार संगठित व प्रोत्साहित किया, गांधी के मुख से निकला हुआ सहज उद्गार था कि वल्लभ भाई आप तो मानों ‘सरदार’ हैं.
लोकतंत्र में अपेक्षित नेतृत्व सही रूप में जनाधार होना चाहिए. लौह पुरुषत्व का भी जनाधार होना, यह गांधीयुगीन स्वराजनिर्माता के नाते सरदार की एक विशेषता थी. जब सरदार का निधन हुआ, पश्चिम के एक प्रतिष्ठित अखबार ने उन्हें ‘भारत का बिस्मार्क’ कहा था. लेकिन छोटा प्रशिया-जर्मनी कहां, और कितने जर्मनी को अपने में समाये भारत कहां! कहां लोकतंत्र के जरिये काम करना और कहां अन्यथा काम करना!
स्वतंत्रता की प्रथम वर्षगांठ पर सरदार पटेल का संदेश
त्रासद और दुखद एक वर्ष
आज का दिन, हमारी स्वतंत्रता की पहली वर्षगांठ, हमारी प्रगति में एक विशेष चरण है, जहां से हम आगे और पीछे देख सकते हैं. हम उस उत्साह को अपने मन में याद करते हैं, जिसके साथ पिछले वर्ष अपनी स्वतंत्रता में हमने प्रवेश किया था़
हम इसके तुरंत बाद की त्रासदियों और दुखों को याद करते हैं, बेहाल, अधनंगे और मामूली सामान लिये आये सीमा पार से शरणार्थियों के रेले को याद करते हैं, हमारे अस्तित्व और स्थिरता के लिए गंभीर आंतरिक खतरों को याद करते हैं, प्रसन्न और शांत कश्मीर घाटी पर पड़ोसी देश के द्वारा किये गये अमानवीय और बर्बर अत्याचार को याद करते हैं, सीमा पर फासीवादी रजाकारों के समर्थन से हैदराबाद की सेना की बर्बरता को याद करते हैं, साथ ही अन्य परेशानियों और जटिल समस्याओं को याद करते हैं, जिनसे हमें जूझना पड़ा है.
26 जनवरी, 1950 को दिया गया सरदार पटेल का संदेश
जन संकल्प पूर्ण हुआ
आज से ठीक बीस वर्ष पूर्व भारत के लोगों ने पूर्ण स्वतंत्रता का पवित्र संकल्प लिया था. इस संकल्प के पीछे सभी की प्रतिबद्धता तथा अपनी नियति पर आस्था से उत्पन्न होनेवाली शक्ति थी. हालांकि, हमने 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता हासिल की, लेकिन वह उस संकल्प के लिहाज से पूरी नहीं थी. आज ईश्वर की कृपा से उस संकल्प को पूर्ण रूप से पूरा किया गया है.
आज का दिन जब भारत ने गणतंत्र का दर्जा पाया है, इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जायेगा. विदेशी शासन के रूप के समाप्त हो जाने के साथ, अब हम कानूनन और असल में अपने स्वामी बन गये हैं और अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपने भविष्य का निर्माण करते हैं या फिर उसे नष्ट कर देते हैं.
हालांकि, हमें सदियों के शोषण और बंधन से उबर पाने में समय लगेगा, अभी भी बहुत त्याग की जरूरत होगी, जब तक कि ताजा खून भारत की नसों में न बहने लगे. हमने आजादी हासिल करने के लिए बहुत मेहनत की है.
उसे तर्कसंगत बनाने के लिए और अधिक मेहनत की जरूरत होगी. इसलिए, हमें इस अवसर के उत्सव को हल्के ढंग से नहीं मनाना चाहिए, बल्कि आज हमें यह शपथ लेनी है कि हम एक स्वतंत्र देश के जिम्मेदार नागरिक के रूप में सही और सक्रिय भूमिका निभायेंगे, क्योंकि इस देश को अभी अपने पैरों पर खड़ा होना है और इसे अपना पूर्ण रूप प्राप्त करना है. हम सभी के साथ दैवी मार्गदर्शन और सहयोग बना रहे, यही कामना है.
सरदार ने कहा था
यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे कि उसका देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है.
शत्रु का लोहा भले ही गर्म हो जाये, पर हथौड़ा तो ठंडा रह कर ही काम दे सकता है.
कठिन समय में कायर बहाना ढूंढ़ते हैं, जबकि बहादुर व्यक्ति रास्ता खोजते हैं.
जीवन में सब कुछ एक दिन में नहीं हो जाता है.
उतावले उत्साह से बड़ा परिणाम निकलने की आशा नहीं रखनी चाहिए.
मेरी एक ही इच्छा है कि भारत एक अच्छा उत्पादक हो और इस देश में कोई भूखा न रहे.
सांप्रदायिकता पर पटेल के विचार
सरदार पटेल ने इस बात पर बल दिया कि हमारा लक्ष्य सभी वर्गों के नागरिकों को जितना जल्दी हो सके समानता के स्तर पर लाने तथा समस्त वर्गीकरणों, भेदों व विशेषाधिकारों को समाप्त करने का है. बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक दोनों को उनके दायित्व का स्मरण कराते हुए उन्होंने कहा कि यह सबके हित में है कि सेक्युलर राज्य की वास्तविक और प्रामाणिक नींव डाली जाए. हमें यह समझना होगा कि भारत में केवल एकही समाज है.प्रभात झा लिखित पुस्तक ‘समर्थ भारत’ से सरदार पटेल सांप्रदायिकता के विरोधी और धर्मनिरपेक्षता के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध थे. वे तूफानी बयानबाजी नहीं करते थे और उनका अपना कोई सिद्धांतवाद भी नहीं था.
लेकिन उन्होंने कई बार सार्वजनिक रूप से सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक संगठनों का विरोध और धर्मनिरपेक्षता में अपनी आस्था घोषित की. जून, 1947 में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सुझाव खारिज करते हुए उन्होंने कहा, ‘हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहां अल्पसंख्यक भी हैं, जिनकी सुरक्षा हमारी ही प्राथमिक जिम्मेदारी है. राज्य सबके लिए है और इसमें जाति या धर्म का कोई भेदभाव नहीं है.’बिपिन चंद्रा लिखित पुस्तक ‘सांप्रदायिकता : एक परिचय’ से राष्ट्रवाद और पटेल
हमारे देश के स्वाधीनता-आंदोलन और स्वतंत्र गणराज्य के नवनिर्माण में अग्रणी जननेता सरदार वल्लभ भाई पटेल सर्वत्यागी देशभक्त निर्भय राष्ट्रवादी थे.
अपने गुरु-गंभीर व्यक्तित्व, त्यागमय चरित्र, कूटनीति-कौशल और संकल्पनिष्ठा के बल पर वे स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री पद के सच्चे अधिकारी माने जाते थे. मगर गांधीजी की इच्छा से, पद-मोह त्यागकर, उन्होंने नेहरूजी के नेतृत्व में राजसत्ता संभाली और कर्तव्यनिष्ठा तथा अनुशासन का जीवन आदर्श प्रस्तुत किया.
गिरिराज शरण अग्रवाल की पुस्तक ‘मैं पटेल बोल रहा हूं’ से
भारत गठन में अहम भूमिका
महात्मा गांधी ने साफ कहा था कि राज्यों और रजवाड़ों की समस्या को कोई सुलझा सकता है तो वह हैं सरदार पटेल. 15 अगस्त, 1947 तक केवल जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद को छोड़ कर सभी देशी रजवाड़ों को भारत में विलय का राष्ट्रवादी औचित्य समझा देना एक भगीरथ प्रयास था. हैदराबाद का निजाम, जो ‘स्वतंत्रता, पाकिस्तान अथवा युद्ध’ पर अड़ा हुआ था, वह भी भारत में विलय करने के लिए राजी हो गया़
व्यापक राजनीतिक सूझबूझ
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने अपनी डायरी में लिखा था कि आज हम जिस भारत की बात करते हैं और जिसके बारे में सोचते हैं, वह सरदार पटेल की व्यापक राजनीतिक सूझबूझ और दृढ़ प्रशासन के कारण ही मुमकिन हुआ है. देश की आजादी की समय समूचा देश छोटे-छोटे भूभाग में विभाजित था. इनके शासकों को भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में विलय का फैसला लेने को कहा गया था.
जब अंग्रेजो ने भारत छोड़ा, तब वे स्वतंत्र शासक बनने के स्वप्न देख रहे थे. उन्होंने तर्क दिया कि स्वतंत्र भारत की सरकार उन्हें बराबरी का दर्जा दे. उनमें से कुछ लोग तो संयुक्त राष्ट्र संगठन को अपना प्रतिनिधि भेजने की योजना बनाने की हद तक चले गये थे. ऐसे दुविधापूर्ण समय में 1947 से 1949 के बीच दो वर्षों की अवधि में उन्होंने रिकॉर्ड समय में 565 देशी रियासतों को भारत से जोड़ने में कामयाबी पायी थी.