कौटिल्य पर मुग्ध अमेरिकी बौद्धिक!
राजनीतिक विचारों के इतिहास में समय से आगे रहने के कारण कौटिल्य के कई विचार स्तब्ध करनेवाले हैं. कौटिल्य के सपने की राजव्यवस्था, जीवन के तीन महान उद्देश्यों भौतिक संपदा, इंद्रिय सुख और आध्यात्मिक ऊंचाई, एक नागरिक पा सके, इसके लिए काम करती है. यह अन्यत्र कहीं नहीं है. भारत का युवा मन, युवा पीढ़ी, […]
राजनीतिक विचारों के इतिहास में समय से आगे रहने के कारण कौटिल्य के कई विचार स्तब्ध करनेवाले हैं. कौटिल्य के सपने की राजव्यवस्था, जीवन के तीन महान उद्देश्यों भौतिक संपदा, इंद्रिय सुख और आध्यात्मिक ऊंचाई, एक नागरिक पा सके, इसके लिए काम करती है. यह अन्यत्र कहीं नहीं है. भारत का युवा मन, युवा पीढ़ी, अमरीकी प्रो रोजर की नजर से कौटिल्य, बिहार और अपने देश की महान पुरानी विरासत जान सके, गौरव का आत्मबोध पा सके. यह सुखकर होगा.
न्यूयार्क से हरिवंश
2000 के अंतिम दशक से 2010 के शुरुआती वर्षों की बात है. जिस संस्थान में कार्यरत थे, उसे नये सिरे से खड़ा करने की चुनौती थी. प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच बदलती दुनिया, टेक्नोलाजी और तेजी से बदल रहे अपने प्रोफेशन को जानने के लिए, हमने कोशिश की. इसी क्रम में वैन से (वर्ल्ड एसोसिएशन आफ न्यूजपेपर्स से) संपर्क हुआ. मीडिया, टेक्नोलोजी और भविष्य के बनते नये समाज का अध्ययन करनेवालों का मंच. दुनिया स्तर के विशेषज्ञ व अपने-अपने क्षेत्र की विशिष्ट प्रतिभाअों-हस्तियों का मंच. संसार के प्रिंट मीडिया का मंच.
इन्हें सुनने-जानने व मिलने हम तब मास्को, स्वीडेन, केपटाउन वगैरह गये. मास्को में ही मुलाकात हुई, प्रोजेक्ट सिंडिकेट चलानेवाले अमेरिकी युवा-युवतियों से. दुनिया की शीर्ष हस्तियां, नोबुल पुरस्कार विजेता, बड़े राजनेता अपना कॉलम, विचार या स्तंभ, प्रोजेक्ट, सिंडिकेट के लिए लिखते थे. मित्रता हो गयी. बहुत मामूली वार्षिक शुल्क पर, उनका स्तंभ हमें मिला. हिंदी में वर्षों उनकी सामग्री छापनेवाले हम अकेले ही थे, पर अंग्रेजी में भी देश के सबसे बड़े प्रकाशनों में से एकाध ही उनके सदस्य थे. अाज तो भारत में इनकी सामग्री या दुनिया के महत्वपूर्ण विशेषज्ञों के विचार प्रोजेक्ट सिंडिकेट के माध्यम से छापनेवालों की बहुतायत है.
इसी क्रम में प्रोजेक्ट सिंडिकेट में कार्यरत अमेरिकी युवा-युवती से पहली मुलाकात हुई. देर तक चर्चा. उन्होंने अखबार के बारे में पूछा, कैसे हम मुख्यधारा के स्थापित प्रकाशनों से भिन्न बन व काम कर रहे हैं, सुना-जाना. संपर्क हुआ. इस संस्था के शीर्ष लोगों से बात कर-मदद करा कर न्यूनतम वार्षिक शुल्क पर इन दोनों ने हमें सदस्यता दे दी. यह परिचय, मित्रता में बदली. अगले वर्ष के वैन आयोजन में उन्होंने मुझे एक पुस्तक भेंट की, ‘साफ्ट पावर’. तब शीर्षक देख कर अजीब लगा. सेना की ताकत, आर्थिक ताकत, बौद्धिक ताकत वगैरह तो हमने सुना था. इतिहास के पन्नों से जाना था. पर यह ‘साफ्ट पावर’ कैसे दुनिया की नियति तय करनेवाला कारक बन गया या बन रहा है?
आज जब न्यूयार्क के होटल के कमरे में तड़के सुबह याद कर रहा हूं, तो पुस्तक लेखक का नाम स्मृति में नहीं है. पुस्तकों के अपने भरे भंडार में, पिछले कुछ महीनों से तलाश भी रहा हूं. कहीं दब गयी है, ‘साफ्ट पावर’ की अहमियत दुनिया में बढ़ गयी है. कुछ महीनों पहले ‘डोकलाम’ प्रकरण में चीन के शीर्ष विचारकों के लेख, विश्लेषण व आत्ममंथन पढ़े. चीन का यह विशिष्ट शासक-वर्ग व इलीट क्लास पहली बार सार्वजनिक रूप से कह रहा है कि भारत का सॉफ्ट पावर दुनिया में हमसे अधिक प्रभावी व सफल है. मानव समाज की प्रगति में बहुत कम समय में अपने अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य बदलनेवाले, दुनिया की परवाह के बगैर अपनी शर्त्तों पर अपनी नियति लिखनेवाले देश के विशिष्ट लोग जब यह कहें, तो भारत को चौकन्ना होना चाहिए. अपनी इस ताकत-पुरखों की अनमोल देन को समझना, पहचानना और मजबूत करना चाहिए. सामान्य भाषा में कहें, तो ‘साफ्ट पावर’ का अर्थ आपका इतिहास, सांस्कृतिक-सामाजिक दृष्टि. आपके पुराने ग्रंथ, साहित्य, विचार, अध्यात्म या आपकी कौम-मुल्क के द्वारा मानव सभ्यता को मिली अनमोल धरोहर व विरासत है. विविधता में एकता. योग, अध्यात्म, साझी विरासत, सब इसके हिस्से हैं.
अमरीका की यह चौथी यात्रा है. पहली, अमरीकी सरकार के यूएसआइएस के निमंत्रण पर देश के हम पांच पत्रकार आये थे. 1994 में पुन: 2006-7 के बीच दो बार विशिष्ट आयोजनों में. इस बार संयुक्त राष्ट्रसंघ की ‘जनरल एसेंबली’ की बैठक में भाग लेने, हम चार सांसद आये हैं. 23 वर्षों के बदलाव को जानने-समझने की उत्सुकता है, अमेरिका में. ‘कौटिल्य’ पर एक पुस्तक मिलती है, दिल्ली अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की दुकान में. पुस्तकों की भीड़ में दबी, पतली-सी, लगभग 130 पन्नों की. पुस्तक कवर पर बराक ओबामा (अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति) का सबसे ऊपर में, बयान छपा है. द न्यूयार्क टाइम्स के सौजन्य से, पुस्तक कवर के टॉप पर.
वह कहते हैं, रोजर बोसचे की ‘पालिटिकल साइंस’ की कक्षाअों से राजनीति में मेरी सामान्य रुचि को पर लग गये. (असल शब्द है, स्पार्क्ड, यानी प्रज्वलित होना). वह अद्भुत, अद्भुत शिक्षक थे. (रोजर बोसचेज पालिटिकल साइंस क्लासेज स्पार्क्ड माइ जेनरल इन्टरेस्ट इन पालिटिक्स. ही वाज ए वंडरफुल, वंडरफुल टीचर’, – बराक ओबामा, जैसा ‘द न्यूयार्क टाइम्स में कहा).
प्रो रोजर बोसचे की पुस्तक ली. ‘कौटिल्य- द फर्स्ट ग्रेट पालिटिकल रियलिस्ट’. उन्होंने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की है.1977 से राजनीतिक विचारों का इतिहास पढ़ाते रहे हैं. पुस्तक की प्रस्तावना की भूमिका में वह कहते हैं, शुरुआती पंक्ति में ही, कि 1996 में मैंने अपनी पुस्तक ‘थीयरीज आफ टिरेनी : फ्राम प्लेटो टू अरेंट’ पूरी की, तो थक गया. राजनीतिक विचारों की यूरोपीय परंपरा पर काम कर-जान कर. तय किया कि एशिया, खासतौर से भारत व चीन के राजनीतिक विचारों पर काम करनेवाले अपने मित्रों से संपर्क कर उनकी परंपराएं-धरोहर को समझूंगा. ‘राजशाही के आतंक’ के विचारों पर कुछ वर्षों से लगातार काम करते-करते, ‘मैं राजनीतिक स्वप्नदर्शियों से धैर्य’ खो चुका था. मुझे लगा कि मुझे राजनीति का यथार्थ कोई बताये. प्लेटो, रूसो और हेगेल के बदले थूसीड्डिस, मैकियावेली और वेबर, मुझे मिले. इसी क्रम में एक विचारक का नाम पाया, जिसका नाम और यश, बड़ा था, पर मेरे मस्तिष्क में उसकी हलचल नहीं थी. एक राजनीतिक दार्शनिक. राजनीतिक यथार्थवादियों के बीच बिना विवाद सर्वश्रेष्ठ चालाकी और यथार्थ के सबसे बड़े पंडित. इधर-उधर की बात करनेवाला यथार्थवादी (नो-नॉनसेंस रियलिस्ट) नहीं. उनका नाम कौटिल्य है. उन्होंने अर्थशास्त्र पुस्तक लिखी या कहें राजनीति का विज्ञान बताया, ईसा से 300 साल पहले. चंद्रगुप्त मौर्य के वह चांसलर जैसे थे, जिसने पहली बार भारतीय उपमहाद्वीप को एक साम्राज्य-एक देश में बदला. अब यह परिचय देने की जरूरत नहीं कि प्रो रोजर, दुनिया के राजनीतिशास्त्र के उद्भट विद्वानों-विचारकों में से हैं. बराक ओबामा जिनके छात्र रहे हैं. नहीं मालूम,भारत के विश्वविद्यालयों में यह पुस्तक पढ़ायी जाती है या नहीं? या जानकारी भी है या नहीं? राजनीति के पश्चिमी विचारकों पर बात करनेवाले हमारे राजनीतिशास्त्र के पंडितों को अपनी धरोहर की जानकारी है या नहीं? यह भी पता नहीं कि अन्य विचारकों के साथ-साथ आज कौटिल्य पर लिखी, अपने समय के इस क्षेत्र के सबसे प्रामाणिक विद्वानों-विचारकों में से एक की यह कृति भारत में पढ़ाने-जानने की अनिवार्यता कर दी जाये, तो हमारे विचारकों की क्या प्रतिक्रिया होगी? पर प्रो रोजर ने भूमिका और प्रस्तावना में कुछ चीजें लिखी हैं, जो हर भारतीय के लिए गौरव की बात है. खासतौर से बिहार के लिए. हमारा अतीत, धरोहर कितना समृद्ध है और यह कैसे हमारी नियति या, भविष्य का कायाकल्प कर सकता है. हमारी यह ‘साफ्ट पावर’ (नयी दुनिया, ऐसी चीजों के बारे में यही विशेषण पसंद करता है) दुनिया के सबसे ताकतवर देश के श्रेष्ठ विचारकों को झकझोर रही है, पर हम कितने सजग हैं? यह पुस्तक पढ़ते हुए लगा कि इतिहास या अतीत, कैसे आपको महान बना सकते हैं? आपका खोया गौरव-अतीत लौटा सकते हैं? इतिहास कैसे, नया अर्थशास्त्र (यानी समृद्धि का अध्याय) बना सकता है. चर्चिल समेत कई विचारकों ने, इतिहास को भविष्य गढ़ने की नींव माना पर इस पुस्तक को पढ़ते लगा कि अपने अतीत को समझ-जान कर कोई कौम कैसे संकल्प, प्रेरणा और ऊर्जा से संपन्न हो कर, नया आर्थिक अध्याय (महाशक्ति बनने का) लिख सकती है. वैचारिक और सांस्कृतिक पहचान, दुनिया के कोने-कोने तक गूंज सकती है. इतिहास कैसे भविष्य के लिए ऊर्जा है, यह पुस्तक पढ़ते बात समझ में आयी. अतीत या इतिहास को हम बचपन से निर्जीव विषय मानते रहे हैं. अर्थशास्त्र धन का विज्ञान है, यह धारणा विकसित करते रहे हैं. साहित्य-कविता आज की जरूरत के अनुसार प्रासंगिक नहीं, यह बोध कराते रहे हैं. विज्ञान, गणित, अंग्रेजी शिक्षा, मेडिकल ही भविष्य या कैरियर है, यह सोच पालते रहे हैं. वहां प्रो रोजर की तरह यह पुस्तक साफ करती है कि नहीं इतिहास, भविष्य गढ़ने की सबसे सशक्त विद्या है. इतिहास से ही संकल्प, चेतना, अपनी ताकत का एहसास होता है. मैथिलीशरण जी के शब्दों में ‘कौन थे, क्या होंगे अभी’ का बोध होता है. इसी इतिहास चेतना से प्रेरित हो कर कोई देश, मुल्क या कौम, किसी भी क्षेत्र में नया इतिहास लिखता है. नयी ऊर्जा पाता है.
तब समझ में आता है कि अमेरिका के चप्पे-चप्पे में अपना इतिहास संजोने की भूख क्यों है? म्यूजियम, स्मृति, स्मारकों की बहुतायत क्यों है, जहां इतिहास की परंपरा 250-300 वर्षों से पीछे नहीं जाती. इस भौतिकवादी, आर्थिक बलशाली समाज में इतिहास की यह भूख क्यों है? इसी प्रसंग में बिहार की स्मृति उभरती है. भारतीय कांसुलेट (न्यूयार्क) के एक आयोजन में एक सज्जन ने पूछा कहां से हैं? बिहार बताया, तो वह अपरिचित लगे. बुद्ध का नाम, जहां से चंपारण प्रयोग कर गांधी दुनिया को नया संदेश-संघर्ष का अहिंसक हथियार दिया, जहां आजाद भारत के सबसे बड़े विचारकों-नेताअों में जेपी हुए, यह सब बताया, तो औपचारिक बैठक के बाद, यही इतिहास जिज्ञासा का विषय रहा.
यह बात भी स्मृति में कौंधी कि नीतीश कुमार दशकों से यह बात बार-बार कहते रहे हैं कि बिहार का समृद्ध इतिहास, भविष्य लिखने की ऊर्जा देगा, फिर महानता का वह गौरव मिले, इस रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करेगा, तो बात समझ में नहीं आती थी. ‘बिहार दिवस’ का अर्थ साफ नहीं था. जब झारखंड बंटा, तो कहा गया कि सभी प्राकृतिक समृद्धि (कोयला, लौह अयस्क वगैरह) व खनिज तो बिहार से चले गये. वहां नारे लगते थे, बिहार के पास क्या बचा? ‘आलू, बालू, लालू’. तब 2000 के आसपास अपनी बिहार यात्रा में हर जगह नीतीश कुमार यह कहते हुए हमारा अतीत, हमारा इतिहास उज्जवल रहा है कि हम नया बिहार बनायेंगे. हुआ भी, विकास के आर्थिक मानकों पर इसी दौर में बिहार, देश के सबसे विकसित राज्यों से भी आगे बढ़ा और यह अलग प्रसंग है. आज यहां (अमरीका) बैठे-बैठे पटना में नीतीश कुमार की पहल-कल्पना से बने ‘नये म्यूजियम’ का मर्म समझ में आता है. वर्ल्ड क्लास निर्माण. बड़ी तैयारी व योजना से एक-एक पुराने बिहारी धरोहर को सहेजने की कोशिश-काम. इस निर्माण-प्रयास को अदालत से लेकर समाज में विभिन्न तबकों के बीच तरह-तरह से लांछित करने-अनुपयोगी बताने की कोशिश भी है.
आज यह प्रसंग सोचते, ब्रिटिश म्यूजियम घूमना याद आता है. एक कौम को नयी ऊर्जा देने का केंद्र. अमेरिका के पहले की यात्राअों में इतिहास सहेजने की कोशिशों का कारण स्मरण होता है. जब चीन भारत के साफ्ट पावर को खुद के साफ्ट पावर से बड़ा बताता है, डोकलाम के प्रसंग में भारत की इस ताकत का उल्लेख करता है. खुद का इस क्षेत्र में नये ढंग से प्रयास का इजहार करता है, तब कौटिल्य पर प्रो रोजर की लिखित पुस्तक, मन में अभिमान का बोध कराती है. तब, इतिहास कैसे भावी नियति लिखने की सबसे बड़ी ऊर्जा है, यह स्पष्ट होता है. तब ब्रिटेन के अपराजेय चर्चिल की बात याद आती है, कि भविष्य गढ़ने से जितनी दूर तक नजर जाती है, उसी अनुपात में अतीत में लौट कर जो ऊर्जा मिलती है, उसी से भविष्य के इतिहास की ऊंचाई-दूरी तय होती है. जो बिहार या देश के लोग एक वर्ल्ड क्लास म्यूजियम में बिहार का समृद्ध अतीत (देश कहना सही होगा) एक जगह देखेंगे, मगध साम्राज्य, कौटिल्य, चंद्रगुप्त, अशोक, बुद्ध, महावीर, आर्यभट्ट से लेकर हाल तक की चीजें, जो छात्र देखेंगे, उनका मन कितना प्रेरित, संकल्पवान, ऊर्जावान और अभिमान (नकारात्मक नहीं) से भरा होगा, कि हम भी इसी धरती, कौम और पुरखों की संतान हैं, जिन्होंने दुनिया को ज्ञान दिया. करुणा दी. सपना दिया. जहां नालंदा था. जहां ह्वेनसांग आये. मेगास्थनीज आये. जब दुनिया में आहट नहीं थी, तब शासन का सर्वश्रेष्ठ कौशल हमारे मनीषियों-पुरखों ने बताये.
प्रो रोजर भूमिका में कहते हैं, जो पाठक कौटिल्य को पा लेता है, वह, एक संपूर्ण राजनीतिक विज्ञान का दर्शन पायेगा, जो पश्चिम में नहीं है. (द रीडर हू डिस्कवर्स कौटिल्य, विल फाइंड ए पोलिटिकल थ्योरी, ह्विच, टेकेन एज ए होल, इज अनलाइक एनीथिंग फाउंड इन द वेस्ट). प्रो रोजर के अनुसार कौटिल्य का अर्थशास्त्र ‘ब्यूरोक्रेटिक वेलफेयर स्टेट’ (नौकरशाही द्वारा संचालित कल्याणकारी राज्य) की बात करता है. आज तक दुनिया में यही धारणा प्रचलित है कि नौकरशाही, चीन की देन है. कठोर, निरंकुश राजतंत्र साम्राज्यवाद, पश्चिम की देन है. पर इस राजतंत्र (मोनार्की) का मकसद ‘सामान्य जनता का कल्याण या वेल्फेयर’ है, यह तो हमारी देन है. चाणक्य के अर्थशास्त्र की देन है. वह भी कब? जब रोमन साम्राज्य में स्पार्टाकस यानी गुलामों के विद्रोह, अमानवीय, क्रूर राजधर्म के खिलाफ इंसानी बगावत की आहट नहीं थी, तब युद्ध में मारे गये लोगों को देख एक सम्राट का मन पलट जाता है. वह सर्वाधिक ताकत के क्षणों में बौद्ध बन जाता है. करुणा, क्रूरता पर जीतती है, मन बदलता है. जनक की राजर्षि परंपरा में अशोक का एक नये राजा के रूप में पुनर्जन्म होता है. यह हमारी असाधारण धरोहर-प्रेरणा है. आज की बेचैन दुनिया के लिए इससे प्रेरक ऐतिहासिक सच और क्या हो सकता है?
पर, दुनिया आज हमारी इस धरोहर को जाने, इसमें दिक्कतें कहां और कैसी हैं? प्रो रोजर ही पुस्तक की भूमिका में कहते हैं. अत्यंत उत्कट इच्छा के बाद भी मुझे भारी समस्या हुई. समय लगा, पर अमेरिका में कौटिल्य का अर्थशास्त्र नहीं पा सका. अंतत: मुझे पहली प्रति, मेरे एक विद्यार्थी ने भारत से खरीद कर मुझे भेजी. पेंग्विन ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र का जो अनुवाद किया है, वह सिर्फ भारत में ही उपलब्ध था और अब भी है. पेंग्विन के मार्केटिंग विभाग के लोगों ने सूचना दी की अमेरिका में इसका मार्केट ही नहीं है. कुछ वर्षों तक खोजने के बाद, मैं कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका में कौटिल्य को लेकर प्रकाशित कोई पुस्तक नहीं ढ़ूंढ़ सका. ब्रिटेन में कुछ पुरानी किताबें, कौटिल्य पर छपी है, पर भारत में इस पर अंग्रेजी में काफी सामग्री प्रकाशित है. न अमेरिका में कौटिल्य छपा कोई लेख ही मुझे मिला, न ही मुझे यह सूचना दी गयी है कि ‘अमेरिकन पालिटिकल साइंस रिव्यू’ पत्रिका में 1964 में कौटिल्य के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विचार पर कोई कोई लेख छपा है. फिर वह सवाल करते हैं, ‘ह्वाई हैज कौटिल्याज ब्रिलिएंट बुक बीन सो ओवरलुक्ड? (क्यों कौटिल्य के इस अद्भुत विचारसंपन्न पुस्तक की इती अनदेखी हुई?) खुद ही इस प्रश्न का उत्तर देते हैं, बड़े फाउंडेशन, विश्वविद्यालय या कालेज विभाग, अधिकतर फाउंडेशन, बौद्धिक जगत को मदद करते हैं कि कौन-सी चीज बहुत महत्व की है या कम महत्व की या अनदेखी करने लायक है. पाठ्यक्रमों में इनमें परिवर्त्तन आहिस्ते-आहिस्ते होता है. उसी तरह ’70 के दशक में फिलिस्तीन, अरब और मुस्लिम समाज की आवाज तेज हुई, तो अमेरिका कुछ राजनीतिशास्त्र के विभागों में ‘मिड्ल इस्टर्न स्टडीज’ विभाग खुले. 50 और 60 के दशकों में अमेरिकी विद्वान भारत पर अध्ययन कर रहे थे. भारत की लोकतांत्रिक परंपरा, मिश्रित अर्थव्यवस्था, पूंजीवाद और सरकार नियंत्रित सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में धारणा थी कि कम्युनिस्ट देशों को पछाड़कर यह आगे निकल जायेगा. यह लोकतांत्रिक भारत बनाम कम्युनिस्ट चीन का ‘कोल्ड वार लैब एक्सपेरिमेंट’ (शीतयुद्ध प्रयोगशाला में प्रयोग) का प्रसंग था. पर, चीन की तेज प्रगति ने भारत को कई क्षेत्रों में पछाड़ दिया या निगल लिया. इस तरह इस शीत युद्ध में दुनिया की रुचि खत्म हो गयी पूरी दुनिया ने देखा कि माओ का चीन, ग्रेट लीप फॉरवर्ड (लंबी छलांग) से ग्रेट प्राेलेतारियत कल्चरल रिवोल्यूशन (सर्वहारा की सांस्कृतिक क्रांति) कर दुनिया के आकर्षण का केंद्र बन गया. फिर प्रो रोजर, हर भारतीय के लिए महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि साठ के दशक में हमारी पीढ़ी के जो छात्र गांधी, भगवद् गीता और उपनिषद पढ़ते थे, वे इन भारतीय लेखनों का समर्पण कर (यानी छोड़ कर) माओ की छोटी पुस्तक ‘रेड बुक’ पढ़ने लगे. इसके साथ ही चीन, फिर वियतनाम युद्ध, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और सिंगापुर के आर्थिक चमत्कार अमेरिकी विश्वविद्यालयों के अध्ययन आकर्षण केंद्र बने, ‘ईस्ट और साउथ ईस्ट एशिया’ के देश.
एक और कारण था प्रो रोजर की नजर में. लोगों के बीच में मांग होने लगी, जिसकी आहट विश्विद्यालयों को मिली कि बदलते युग-दौर के अनुरूप, अमेरिकी लोग क्या पढ़ना चाहते हैं? महिलाओं की ताकत का उदय, अफ्रीकी-अमेरिकी सवाल, लैटिन अमेरिका के प्रश्न, अमेरिकी मानस पर सार्वजनिक जीवन की मुख्यधारा पर तैर रहे थे. साथ ही चीन, जापान, कोरिया से बड़ी संख्या में विद्यार्थी वगैरह अमेरिका आये. इन लोगों ने एशिया के पूरब के देशों का इतिहास, साहित्य, राजनीति वगैरह पढ़ने की मांग पैदा की. साथ ही अमेरिकी संस्कृति-इतिहास में अपने योगदान को रेखांकित किया. इस तरह दक्षिण एशिया से जो आबादी (एमिग्रेंट्स) अमेरिका आयी, चाहे वे भारत के हों, पाकिस्तान या बांग्लादेश, श्रीलंका या नेपाल के, अपना महत्व या दबाव या पहचान अमेरिका में वे नहीं बना सके.
स्पष्ट है कि भारत वह ताकत नहीं बन सका कि दुनिया उसमें रुचि ले. उसके महान अतीत को जाने, रोम, यूनान के मिटने के बाद भी, दुनिया में जिस संस्कृति की हस्ती नहीं मिटी, उसे दुनिया जाने, इसके लिए भी भारत को ताकत बनना ही होगा.
छह अध्याय समेत निष्कर्ष में प्रो रोजर ने मौलिक ढंग से कौटिल्य पर विचार किया है. दुनिया के अब तक बड़े राजनीतिक विचारकों से तुलना की है और पाया है कि कौटिल्य अनूठे हैं, अलग हैं और सर्वश्रेष्ठ राजसत्ता के विजनरी और स्वनदर्शी हैं. कई संदर्भों में तो दुनिया में सबसे आगे के राजनीतिक विचारक. राजनीतिक विचारों के इतिहास में समय से आगे रहने के कारण उनके कई विचार स्तब्ध करनेवाले हैं. कौटिल्य के सपने की राजव्यवस्था, जीवन के तीन महान उद्देश्यों भौतिक संपदा, इंद्रिय सुख और आध्यात्मिक ऊंचाई, एक नागरिक पा सके, इसके लिए काम करती है. यह अन्यत्र कहीं नहीं है.
भारत का युवा मन, युवा पीढ़ी, अमरीकी प्रो रोजर की नजर से कौटिल्य, बिहार और अपने देश की महान पुरानी विरासत जान सके, गौरव का आत्मबोध पा सके. यह सुखकर होगा.
(लेखक, जदयू से राज्यसभा सांसद हैं.)