रूस की क्रांति : दुनिया के बड़े राजनीतिक बदलावों में शुमार रहे बोल्शेविक क्रांति के 100 वर्ष
युद्ध की समाप्ति, किसानों को जमीन और मजदूरों को रोटी देने के नारे के साथ आज से सौ साल पहले बोल्शेविक क्रांतिकारियों ने पेत्रोग्राद में शीत महल पर धावा बोल आधुनिक मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा था, जिसे हम अक्तूबर क्रांति कहते हैं. समानता और न्याय के साम्यवादी सपने को साकार करने के […]
युद्ध की समाप्ति, किसानों को जमीन और मजदूरों को रोटी देने के नारे के साथ आज से सौ साल पहले बोल्शेविक क्रांतिकारियों ने पेत्रोग्राद में शीत महल पर धावा बोल आधुनिक मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा था, जिसे हम अक्तूबर क्रांति कहते हैं. समानता और न्याय के साम्यवादी सपने को साकार करने के इरादे से हुई क्रांति में जल्दी ही निरंकुशता के लक्षण दिखाई देने लगे थे.
फिर भी, इस बात से क्रांति-विरोधी भी इनकार नहीं करते हैं कि रूसी जनता के जीवन-स्तर को ऊपर उठाने और शेष विश्व में बराबरी की आकांक्षाओं को प्रोत्साहित करने में बड़ी भूमिका निभायी. इस अवसर पर क्रांति के विविध आयामों को रेखांकित करते हुए आज की विशेष प्रस्तुति…
प्रसेनजीत बोस
राजनीतिक विश्लेषक
आज की वैश्विक व्यवस्था बिल्कुल अलग है
वर्ष 1917 की जिस बोल्शेविक क्रांति में वे लगभग सहभागी ही बन गये, उस पर लिखी अपनी विख्यात पुस्तक ‘टेन डेज दैट शूक दि वर्ल्ड’ (दस दिन जिसने दुनिया हिला दी) में अमेरिकी पत्रकार जॉन रीड ने लिखा- ‘रूस का समृद्ध वर्ग सिर्फ एक राजनीतिक क्रांति चाहता था, जो जार से सत्ता छीन उसे उनके हाथों में सौंप दे.
जबकि दूसरी ओर, आम जनता की इच्छा थी कि एक वास्तविक औद्योगिक एवं कृषि लोकतंत्र स्थापित हो. और इस प्रकार, रूस में राजनीतिक क्रांति के शीर्ष पर एक सामाजिक क्रांति विकसित हो गयी, जिसका नतीजा बोल्शेववाद की विजय तक पहुंच गया.’
इसी ‘सामाजिक क्रांति’ के बाद 1922 में सोवियत संघ (यूएसएसआर) के रूप में रूस में विश्व की प्रथम समाजवादी सत्ता स्थापित हुई.तब से आरंभ होकर 1991 में सोवियत संघ के बिखराव तक बोल्शेविक क्रांति के राजनीतिक और बौद्धिक प्रभावों के साये ने पूरे विश्व को अपने आगोश में लेकर उसकी सामाजिक-आर्थिक एवं भू-राजनीतिक घटनाओं और बहसों के एक बड़े हिस्से को रूपाकार प्रदान किया. यहीं यह यक्ष प्रश्न आ खड़ा होता है कि सोवियत संघ के पतन के 26 वर्षों बाद भी क्या बोल्शेविक क्रांति ने आज के हिसाब से कहीं कोई प्रासंगिकता बचा रखी है, और यदि हां, तो किस रूप में?
समकालीन विश्व व रूस के हालात
हालांकि, बोल्शेविक क्रांति और सोवियत सत्ता की सैद्धांतिक प्रेरणा मार्क्सवाद था, मार्क्स ने यह सैद्धांतिक उम्मीद कभी न की थी कि विश्व की पहली सर्वहारा क्रांति औद्योगिक रूप से विकसित किसी पाश्चात्य देश की बजाय रूस जैसे औद्योगिक पिछड़ेपन के शिकार देश में संपन्न हो सकेगी. बोल्शेविकों ने क्रांति के अपने रूसी संस्करण में मार्क्स द्वारा पूंजीवाद एवं बूर्जुआ सत्ता की समीक्षा का सारतत्व निकाल उस पर समकालीन विश्व तथा रूसी परिस्थितियों की अपनी खुद की व्यावहारिक समझ की इमारत खड़ी कर दी.
इसके बाद चीन, क्यूबा या वियतनाम में संपन्न बीसवीं सदी की सभी समाजवादी क्रांतियां खुद के नवांकुरित कार्यक्रमों पर आधारित थीं, जिन्होंने मार्क्सवाद को अपनी राष्ट्रीय स्थितियों के अनुरूप ढाल लिया. किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां परिवर्तित होने लगीं, तो ये समाजवादी सत्ताएं भी तदनुकूल परिवर्तनों के प्रयत्न में लग गयीं. ये कोशिशें रूस में पूरी तरह विफल रहीं अथवा चीन और वियतनाम की तरह व्यवहार में मार्क्सवाद से उत्तरोत्तर अलगाव के साथ भी उसका एक दिखावा करती रहीं.
ऐसा क्यों हुआ? पिछली सदी की समाजवादी क्रांतियां उन देशों में हुईं, जहां उदारवादी लोकतंत्र की मौजूदगी न थी. वहां ये क्रांतियां या तो निरंकुश तानाशाहों या फिर साम्राज्यवादी आक्रांताओं के विरुद्ध थीं.
अपने इस रूप में वे राजनीतिक क्रांति के साथ-साथ सैन्य अभियान भी थीं. सत्ता पर काबिज होने के बाद इन राज्यों ने एकदलीय तानाशाही का स्वरूप धारण कर पार्टी और राज्य का विलय कर डाला, जिसने न केवल असहमति को कुचल लोकतंत्र को विद्रूप कर दिया, बल्कि नागरिक स्वतंत्रताओं का गला घोंट अंततः जनता के एक विशाल बहुमत का राज्य से पूर्ण अलगाव भी सुनिश्चित कर दिया.
इसके अलावा, संसाधनों के समतामूलक वितरण के साथ तेज आर्थिक प्रगति हासिल करने के लिए वहां लाया गया अर्थव्यवस्था का केंद्रीकृत मॉडल क्रमिक रूप से एक अकर्मण्य नौकरशाही के विकास की वजह बन अंततः सामाजिक-आर्थिक जड़ता में तब्दील हो गया.
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात उपनिवेशवाद की समाप्ति की प्रक्रिया तथा 1970 से प्रारंभ वित्तीय भूमंडलीकरण ने समाजवादी व्यवस्था के लिए और अधिक जटिलताएं पैदा कर दीं.
वित्तीय पूंजी तथा प्रौद्योगिकी ने वैश्विक परिदृश्य को कुछ इस तरह फेंटा कि तीसरी दुनिया के कई अग्रिम देश ‘उभरती अर्थव्यवस्थाओं’ में विकसित होकर पूरे विश्व में आर्थिक विकास तथा पूंजीवादी विकास की गति तेज करनेवाले अहम एजेंट में बदल चुके हैं. सौ साल पूर्व की बोल्शेविक क्रांति के काल से आज की वैश्विक व्यवस्था बिल्कुल अलग है.
अनौपचारिक कार्यबल
अब जबकि भूमंडलीकरण के अंतर्गत इन उभरती अर्थव्यवस्थाओं में पूंजीवादी विकास तेज हुआ, तो इस क्रम में विकासशील वर्ग-प्रक्रियाओं से पूंजीपतियों और औद्योगिक कामगारों का एक सरल ध्रुवीकरण नहीं हो सका. इसकी बजाय, अनौपचारिक कार्यबल की एक बड़ी तादाद सृजित हो गयी. इनमें से लगभग आधे तो वस्तुओं और सेवाओं के स्व-नियोजित लघु निर्माता हैं, जबकि बाकी आधे अधिकतर आकस्मिक, संविदागत तथा असुरक्षित पेशों में लगे लोग हैं.
इसने सर्वहारा की एकरूपता की बजाय उसके जटिल स्तरीकरण को जन्म दे दिया है, जहां स्वयं कामगार वर्ग के हित हमेशा एक बिंदु पर नहीं मिलते. कामगारों का बढ़ता प्रवासन अपने आप में एक चुनौती है. इसके अलावा, अपने-अपने हितों की सुरक्षा के लिए विभिन्न आधारों पर बेहद बढ़ती सामाजिक चेतना ने एक रूढ़िवादी वर्ग-आधारित राजनीति को ज्यादा-से-ज्यादा अप्रासंगिक करार कर दिया है.
मार्क्स के विश्लेषणों की दूरदृष्टि
मार्क्स ने इतिहास तथा पूंजीवादी व्यवस्था के शोषक स्वरूप पर आधारित उसके चरित्र विश्लेषण हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया. विश्व की पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के आधुनिक अध्ययन के अनुसार, पूरे विश्व में व्याप्त आर्थिक मंदी या फिर सूचना प्रौद्योगिकी में चल रहे प्रौद्योगिकी परिवर्तनों की प्रकृति में (जो मानवीय श्रम को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से विस्थापित करने जैसे खतरे पैदा कर रही है) मार्क्स के विश्लेषणों की दूरदृष्टि का अनुभव आज भी किया जाता है.
नवउदारवादी पूंजीवाद ने हमारे पर्यावरण के मनमाने विनाश तथा जलवायु परिवर्तन समेत मानव जाति के अनेक संकटों का सृजन कर दिया है.
मार्क्सवाद तथा समाजवाद इन संकटों से पार पाने और भविष्य के लिए एक टिकाऊ सामाजिक व्यवस्था के सृजन की दिशा में विभिन्न उपायों और विचारों के अहम स्रोत बने ही रहेंगे. इस बोध से, विश्व में एक वैकल्पिक व्यवस्था की स्थापना के प्रथम मानवीय प्रयास के रूप में बोल्शेविक क्रांति हमेशा एक प्रेरणा स्रोत बनी ही रहेगी.
(अनुवाद : विजय नंदन)
समाजवादी विकास की प्रासंगिकता बरकरार
अचिन वनायक
राजनीतिक विचारक
अभीष्ट को लेकर क्षमता की सीमा हमारे विवेक और प्रयत्न को एक आकार देती है. यदि कोई मानता है कि पूंजीवाद से कभी आगे नहीं बढ़ा जा सकता, तब स्वतंत्रता, समता, न्याय और एकता के नाम पर सभी प्रगतिशील बदलाव पूरी तरह प्राप्य नहीं होंगे.
रूसी क्रांति ने एक ऐसी राजनीतिक मिशाल कायम की, जिसका प्रभाव देश और काल की सीमाओं के पार भी बना रहेगा. इसने ‘पूंजी की व्यवस्था’ में और ‘राष्ट्रों की व्यवस्था’ में जिस तरह के प्रारंभिक बदलाव किये, उसके जरिये, जो कुछ सर्वत्र हासिल किया जा सकता था उसके लिए, पूरी तरह एक नये परिदृश्य की रचना की.
तब से समाजवादी विकास के सभी उतार- चढ़ावों के बावजूद इस परिदृश्य की प्रासंगिकता बनी हुई है, क्योंकि गरीबी के अश्लील स्तरों, धन-संपत्ति व अधिकार को लेकर बड़ी असमानताओं, बढ़ते सांस्कृतिक निशेधवाद जैसे बढ़ते अन्यायों के साथ पूंजीवाद की जांच-परख अभी जारी है. जबकि पारिस्थितिक बर्बादी और परमाणुवाद स्वयं मानव जाति के लिए खतरा बने हुए हैं.
वैश्विक धरातल पर, प्रगतिशील युवाओं ने तेजी से इस वास्तविकता को पहचाना है. लेकिन वे एक प्रमुख विषय को लेकर 1960 और 70 के दशक के अपने पूर्ववर्ती अतिवादियों से अलग हैं.
यहां तक कि जब पूर्ववर्ती पीढ़ी ने अलग-अलग क्षेत्रों में उपनिवेशवाद विरोधी, पूंजीवाद विरोधी, नारीवाद, नस्लविरोधी संघर्ष किया था, तो उनमें बड़ी संख्या में लोगों ने खुद को बोल्शेववाद, माओवाद, कास्त्रोवाद, चे ग्वेरावाद, स्पेनी अराजकता, परिषदीय साम्यवाद की क्रांतिकारी परंपराओं से जोड़ा था. लेकिन आज की पीढ़ी के अधिकतर लोग अतीत के साथ किसी जुड़ाव से अपने को स्वेच्छया अलग रखे हैं, जो एक गंभीर कमजोरी है.
आज के योद्धाओं में अभी भी 1917 की क्रांति के सबकों के समावेशन व प्रसारण की जरूरत है. उस समय उभरे और कामयाब, प्रत्यक्ष लोकतंत्र के सांस्थानिक स्वरूपों के मुख्य बिंदु, नवउदार वैश्विकरण के चलते महत्व खोते सीमित स्वरूप वाले आज के उदार लोकतंत्रों में भी (भले ही संक्षिप्त तौर पर) जारी हैं. एक नये व पुनःसंयोजित वामपंथ तैयार करने के लिए क्रांतिकारी मार्क्सवाद के श्रेष्ठ उदाहरणों में व्यक्त समाजवादी लोकतंत्र के व्यावहारिक सबक का भारत में विशेष महत्व है, जहां स्टालिनवाद और माओवाद ने मार्क्स के आग्रह को महत्वहीन करार कर युवा प्रगतिशीलों को उत्तर उपनिवेशी व उत्तर आधुनिकतावादी विचारों से सहज ही आकर्षित होने दिया.
लेकिन हमें रूसी क्रांति के साथ और अधिक समकालीन होने का ज्यादा अहम कारण यह है कि दक्षिणपंथ वर्तमान में सरकारी सत्ता पर काबिज है, जोकि भारत के पूर्ण रूपांतरण के दृष्टिकोण से गहराई से प्रेरित है और जिसके पीछे भारतीय समाज में प्रत्यारोपित भारी अनुपात में कार्यकर्ता बल है.
इस अतिवादी दक्षिणपंथ के बढ़ते प्रभाव को दीर्घ अवधि में ऐसी कोई उदार सुधारवादी राजनीति निर्णायक तौर पर कमजोर नहीं कर पायेगी, जो खुद भी एक नवउदार पूंजीवादी व्यवस्था को बनाये रखना चाहती है. ऐसे में जिम्मेदारी वामपंथ की बनती है कि वह विरोधियों से मुकाबले हेतु वफादार व प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का अपना जनाधार विकसित करने के क्रम में स्वयं को अपने संपूर्ण परिवर्तनकामी दृष्टिकोण से लैस करे.
(अनुवाद : कुमार विजय)
रूसी क्रांति पर जरूरी किताबें
रूस की अक्तूबर क्रांति और इसके नायक लेनिन ने बीसवीं सदी को किसी भी अन्य घटना और व्यक्ति से अधिक प्रभावित किया था. उस प्रभाव को मौजूदा सदी में महसूस किया जा सकता है. इस अभूतपूर्व क्रांति को ठीक से जानने-समझने के लिए अनेक किताबें, लेख और पर्चे उपलब्ध हैं. कुछ खास किताबों की एक फेहरिस्त-
हिस्ट्री ऑफ रशियन रिवोल्यूशन- इस किताब के लेखक लियोन ट्राटस्की व्लादिमीर लेनिन के बाद रूसी क्रांति के सबसे बड़े नाम थे. स्टालिन के दौर में तुर्की में निर्वासित जीवन बिताते हुए उन्होंने यह किताब लिखी थी. क्रांति के समर्थकों, विरोधियों और उदारवादी समीक्षक इसे 1917 के बेहतरीन विवरणों में शुमार करते हैं.
रशियन रिवोल्यूशन 1917- यह किताब एनएन सुखानोव की आंखो-देखी है. वे मेनशेविक वामपंथी खेमे से संबद्ध थे और लेनिन को पसंद नहीं करते थे. फरवरी और अक्तूबर की दोनों क्रांतियों के समय सुखानोव पेत्रोग्राद में मौजूद थे. फिनलैंड स्टेशन पर लेनिन के उतरने और उनके बोल्शेविक मुख्यालय पहुंचने के कुछ भरोसेमंद चश्मदीदों में सुखानोव को गिना जाता है.
टेन डे’ज दैट शूक द वर्ल्ड- क्रांति के वर्णन की किताबों में यह सर्वाधिक लोकप्रिय है और इसका हिंदी (‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ शीर्षक से) समेत कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. लेखक जॉन रीड अमेरिकी पत्रकार थे. यह किताब क्रांति की घटनाक्रमों से अभिभूत उनके रिपोर्टों का संकलन है और इसने अमेरिका एवं अन्य देशों में साम्यवाद के प्रसार में बड़ी खास भूमिका निभायी. बहुत समय बाद इस किताब पर वारेन बिएटी ने एक कामयाब फिल्म बनायी.
थ्रू द रशियन रिवोल्यूशन- जॉन रीड के पेत्रोग्राद पहुंचने से पहले ही वहां एक अन्य अमेरिकी पत्रकार अल्बर्ट रीस विलियम्स मौजूद थे तथा उन्होंने रीड के अति उत्साह को संतुलित करने में भी योगदान दिया था. यह किताब लेनिन व उनके सहयोगियों व विरोधियों से व्यापक चर्चा के आधार पर तैयार की गयी है.
द डिलेमाज ऑफ लेनिनः टेररिज्म, वार, एंपायर, लव, रिवोल्यूशन- रूसी क्रांति के सौ वर्ष के अवसर पर यह महत्वपूर्ण विश्लेषण मार्क्सवादी विचारक तारिक अली ने लिखा है. इस किताब में लेनिन को समुचित ऐतिहासिक संदर्भ में रखते हुए उनकी राजनीतिक रणनीति और सोच – विचार की क्षमता का आकलन किया गया है.
अक्तूबर क्रांति और लेनिन- इस संग्रह में अल्बर्ट रीस विलियम की दो किताबों- ‘रूसी क्रांति के दौरान’ और ‘लेनिनः व्यक्ति और उनके कार्य’ को प्रस्तुत किया गया है. इस अमेरिकी पत्रकार की नजर ने क्रांति को घटित होते देखा था और आम लोगों और क्रांतिकारियों के साथ सभी बड़े किरदारों से उन्होंने साक्षात्कार भी किया था.
इतिहास ने जब करवट ली- इस निबंध में विलियम हिंटन ने रूसी क्रांति का संतुलित और तार्किक विश्लेषण किया है.मां- मैक्सिम गोर्की की यह कालजयी रचना 1906 में छपी थी. मानवीय संबंधों में बेहतरी में मजदूर वर्ग के योगदान को रेखांकित किताब क्रांति-पूर्व रूस की स्थिति को मार्मिक ढंग से हमारे सामने रखती है.
यह किसी अन्य देश की तरह नहीं है, यह बिल्कुल अलग है. उन लोगों ने पूरे मानवता को एक समान तरीके से आगे बढ़ाया है. पूरी दुनिया के लिए उनकी क्रांति का संदेश सत्य है.
– रवींद्र नाथ टैगोर
महान लेनिन की अगुवाई में अक्तूबर क्रांति के समानांतर हम आजादी के संघर्ष के नये चरण की शुरुआत कर रहे हैं. महान लेनिन की हम प्रशंसा करते हैं.
– जवाहर लाल नेहरू
आप और मैं जिंदा नहीं रहेंगे, लेकिन हमारे देश के लोग रहेंगे. मार्क्सवाद और साम्यवाद की विचारधारा की निश्चित तौर पर जीत होगी.
– भगत सिंह
अक्तूबर क्रांति 1917
वर्ष 1917 की रूस की क्रांति बीसवीं सदी की सर्वाधिक विस्फोटक राजनीतिक घटना मानी जाती है. इस हिंसक क्रांति ने रूस में सदियों से चली आ रही राजशाही को खत्म कर दिया. व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक ने सत्ता को अपने नियंत्रण में ले लिया और जार के शासन की परंपरा को खत्म कर दिया. राजनीतिक व सामाजिक रूप से हुए बदलावों के नतीजों से सोवियत संघ का गठन हुआ.
दासों की मुक्ति बड़ा कारक
पश्चिमी यूरोप के अधिकांश हिस्से में सामाजिक रूप से बेहद पिछड़े थे. रूसी साम्राज्य में दासप्रथा का चलन था- जो एक प्रकार से सामंतवाद का प्रारूप था. इस प्रथा के तहत भूमिहीन किसानों को कृषि मजदूर बनने के लिए मजबूर किया जाता था़ वर्ष 1861 में रूसी राजशाही ने दासप्रथा को खत्म कर दिया था. माना जाता है कि दासों को मुक्त करने की घटना से किसानों को संगठित होने की स्वतंत्रता मिली, जो रूस की क्रांति का बड़ा कारक बना.
1905 की रूसी क्रांति
बीसवीं सदी में जब रूस में समग्रता से औद्योगिकरण ने दस्तक दी, तो वहां सामाजिक और राजनीतिक रूप से बड़ा बदलाव हुआ. वर्ष 1890 से 1910 के बीच सेंट पीटर्सबर्ग और मास्को जैसे रूस के बड़े शहरों में दूसरे इलाकों से लोग आकर बसने लगे, जिससे आबादी तकरीबन दोगुना बढ़ गयी. औद्योगिक कामगारों के रूप में बढ़ी इस आबादी को बेहद अमानवीय दशाओं में रहने को मजबूर होना पड़ा था.
दूसरी ओर, क्रिमिया युद्ध और उत्तरी इलाके में जलवायु में बदलाव के कारणों से अनाज की व्यापक कमी से लोगों में भूखमरी की समस्या पैदा हुई. 1905 में औद्योगिक कामगारों ने राजशाही के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया. जार की सेनाओं ने सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया. कामगारों ने देशभर में चरणबद्ध रूप से हड़ताल को अंजाम दिया.
निकाेलस द्वितीय
1905 की क्रांति के बाद जार निकोलस द्वितीय ने सुधारों को लागू करने का वादा किया. 1914 में रूस प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हो गया और इसने सर्बिया, फ्रांस और ब्रिटिश का सहयोग किया. इस कारण भी रूस की राजशाही का पतन शुरू हुआ. रूस में अनाज और ईंधन का संकट पैदा हो गया. युद्ध के कारण अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ा.
आर्थिक ढांचे में बिखराव
प्रथम विश्व युद्ध के तीन वर्षों के दौरान 40 लाख रूसी सेना और नागरिकों के मारे जाने की आशंका जतायी गयी थी. इस कारण रूस में सामाजिक और आर्थिक ढांचे में बिखराव होने लगा. औद्योगिक कामगारों समेत शहरों की अधिकतर मजदूर आबादी को भरपेट भोजन मुश्किल से मिल पा रहा था.
लोगों के प्रदर्शन को कुचलने के लिए जार ने सुरक्षाकर्मियों को भेजा, लेकिन उन्होंने अपनी जनता पर बंदूक चलाने से इंकार कर दिया. सैनिकों के भीतर भी क्रांति की भावना जाग चुकी थी. जब मजदूरों ने देखा कि सैनिक उन पर गोली चलाने को तैयार नहीं हैं, तो उनका साहस बहुत बढ़ गया. इस प्रकार क्रांति अब अवश्यंभावी हो गयी.
जार का सत्ता छोड़ना
14 मार्च, 1917 को उदारवादी नेता जार्ज स्लाव की अध्यक्षता में एक सामाजिक सरकार की स्थापना की गयी. उसने 14 मार्च को जार से शासन को खत्म करने की मांग की. उसने उनकी मांग को स्वीकार कर शासन छोड़ दिया. मजदूरों को सफलता मिली, किंतु उन्होंने शासन की बागडोर मध्य वर्ग के हाथ सौंप दी.
बोल्शेविक क्रांति
सात नवंबर, 1917 को बोल्शेविक पार्टी के नेता लेनिन के नेतृत्व में वामपंथी क्रांतिकारियों ने ड्यूमा की सरकार के खिलाफ रक्तहीन क्रांति के जरिये सत्ता पर दबदबा कायम कर लिया. लेनिन ने एक ऐसी सरकार का गठन किया, जिसमें किसानों और कामगारों को प्रतिनिधि नियुक्त किया गया. इस प्रकार बोल्शेविकों ने अपने सहयोगियों के साथ मिल कर सरकार बनायी, जिसके मुखिया लेनिन बने.