कालाधन पर हरिवंश के आलेख की यह तीसरी कड़ी पढ़ें
हरिवंशराज्यसभा सांसद राजनीति विचारधारा या भावना से चलती है और अर्थनीति शुद्ध स्वार्थ की नीतियों से. पिछले 60-70 वर्षों में एक तरफ राजनीति में भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग की बात भारत में बार-बार हुई, तो दूसरी तरफ भ्रष्ट ताकतों ने आर्थिक नियमों, कंपनी कानूनों को ऐसा बनाया कि भ्रष्टाचार की जड़ें लगातार मजबूत होती […]
हरिवंश
राज्यसभा सांसद
राजनीति विचारधारा या भावना से चलती है और अर्थनीति शुद्ध स्वार्थ की नीतियों से. पिछले 60-70 वर्षों में एक तरफ राजनीति में भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग की बात भारत में बार-बार हुई, तो दूसरी तरफ भ्रष्ट ताकतों ने आर्थिक नियमों, कंपनी कानूनों को ऐसा बनाया कि भ्रष्टाचार की जड़ें लगातार मजबूत होती गयीं. शेल कंपनियां ऐसे ही कंपनी कानूनों की उपज हैं, पर आश्चर्य यह है कि 60-70 वर्षों से इनका काम अबाध कैसे चलता रहा? इन्हें नष्ट करने की कोई कारगर कोशिश क्यों नहीं हुई?
काले धन के खिलाफ जंग राजधर्म है – एक
वर्ष 2009 के आम चुनावों में भाजपा (लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में) और यूपीए के बीच ब्लैक मनी के मुद्दे पर राजनीतिक जंग हुई, पर यूपीए की सरकार आने के बाद तो 2जी, कोल स्कैम, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले जैसे कामों ने काली पूंजी की ताकत और साम्राज्य दोनों को अभेद्य बना दिया. इसमें राष्ट्रीय नुकसान कहां हो रहा था? देश कैसे पुन: आर्थिक महासंकट के दुष्चक्र में फंस रहा था?
देश का खर्च लगातार बढ़ रहा था, आमद नहीं. इस तरह यह मुल्क कब तक चलता? यूपीए की राजनीति और अर्थनीति देश की अामद न बढ़ा कर देश को पुन: 1991 जैसे भयंकर अर्थ संकट में धकेल रहा था.
कैसे?
वर्ष 2016, 16 मार्च को बजट भाषण के दौरान सदन में हमने कहा था कि एक सामान्य आदमी की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर डालता हूं, तो पाता हूं कि आज भारत सरकार के खर्चे करीब 18 लाख करोड़ हैं, कमाई या आमद तकरीबन 12 लाख करोड़. भारत पर आज कुल कर्ज 70 लाख करोड़ है. इस कर्ज पर लगभग पांच लाख करोड़ ब्याज सालाना चुकाना पड़ता है. इस तरह कुल आमद 12 लाख करोड़ और कुल खर्च तकरीबन 18+5=23 लाख करोड़. यानी हर साल लगभग 11 लाख करोड़ के घाटे पर भारत सरकार चल रही है.
देश चलाने के लिए यह पूंजी तो चाहिए ही चाहिए. ऊपर से देश के कोने-कोने से लोगों की बढ़ती विकास की आकांक्षाएं. श्रेष्ठ सार्वजनिक सुविधाअों की चाहत. कैसे चलेगा मुल्क? 130 करोड़ की आबादी में महज 83 हजार परिवार हैं, जिनकी घोषित आमदनी एक करोड़ से अधिक है?
हाल में जानेमाने अर्थशास्त्री रामगोपाल अग्रवाल की पुस्तक आयी ‘डिमोनेटाइजेशन, ए मींस टू एन एंड?’ मार्क टली ने दिल्ली में इसका लोकार्पण किया. पुस्तक में दिये तथ्य के अनुसार भारत के संगठित क्षेत्र में 4.2 करोड़ लोग हैं, महज 1.74 करोड़ यानी 41 फीसदी आयकर रिटर्न भरते हैं. 2015-16 के आंकड़ों के अनुसार. अनौपचारिक क्षेत्र (इनफॉरमल सेक्टर) के 5.6 करोड़ उपक्रमों/संस्थाअों में से 1.81 करोड़ (करीब 32 फीसदी) ही आयकर रिटर्न भरते हैं.
2015-16 में जिन 37 करोड़ निजी लोगों ने आयकर रिटर्न भरा, उनमें से महज 24 लाख लोगों ने ही अपनी आय 10 लाख से ऊपर घोषित की. 50 लाख से अधिक आय बतानेवाले महज 1.72 लाख लोग थे. जिन 76 लाख निजी लोगों ने आयकर रिटर्न भरा, उनमें से 56 लाख लोग वर्ष 2015-16 में वेतनभोगी थे, पर इस मुल्क में पिछले पांच वर्षों में 1.25 करोड़ कारें बिकीं. इसी बीच दो करोड़ लोग विदेश गये. यह मान लिया जाये कि एक परिवार को 10 लाख की आमद होगी, तब वह पांच साल में एक कार खरीद पाता है या विदेश में छुट्टियां मनाता है. इस तरह उपभोग के आंकड़े बताते हैं कि इस मुल्क में कम-से-कम एक करोड़ परिवार ऐसे होंगे, जिनकी आमद 10 लाख रुपये होगी. फिलहाल 24 लाख लोग ही सालाना 10 लाख से अधिक अपनी आमद बताते हैं. स्पष्ट है कि 50 फीसदी से अधिक लोग कर चुराते हैं या अपनी आय छुपाते हैं.
केवल पांच फीसदी लोग आयकर देते हैं. केंद्र और राज्य दोनों का कर संग्रह महज 16.6 फीसदी है, कुल जीडीपी का. जो भारत की तरह उभरती अर्थव्यवस्था के देश हैं, वहां यह अनुपात 21 फीसदी है. स्पष्ट है कि भारत में कर चोरी है और कर की मात्रा भी कम है. ऐसी स्थिति में सरकारें, गरीबों के कल्याण के लिए धन कहां से लायेंगी? इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास, कल्याणकारी कामों के लिए धन कहां से आयेगा? साफ है कि कर चोरी रोकना, कर संग्रह बढ़ाना और अधिक आय वर्ग पर अधिक कर लगाना, यही रास्ता है.
या कहें एकमात्र विकल्प, पर अामतौर से सरकारें लोकलुभावन नारों (पोपुुलिस्ट स्लोगन) पर चलती हैं. वे ताकतवर मध्य वर्ग या अधिक आयवाले वर्ग को नाराज करने का साहस नहीं करतीं. यूपीए शासन में भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार (वर्ष 2009 से वर्ष 2012 तक) रहे प्रख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु की पिछले साल किताब आयी ‘एन इकॉनामिस्ट इन द रियल वर्ल्ड’ (द आर्ट आॅफ पाॅलिसी मेकिंग इन इंडिया). पुस्तक के अंतिम अध्याय में बहुत राज की बात कहते हैं कि पाेपुलिज्म से अल्पकालिक लोकप्रियता की भूख जगजाहिर है. राजनेताओं की नजर अगली सुबह अखबारों की हेडलाइन तक सीमित रहती है या बहुत हुआ तो अगले चुनाव तक. यह यूपीए, खासतौर से कांग्रेस, की ही देन है.
यह राजनीति पिछले 70 सालों से इसी रास्ते चलती रही है. इस राजनीतिक रणनीति में सत्ता पहले, देश बाद में आता है.पर भारत आज जहां पहुंच गया है, जहां हर साल सालाना 10-12 लाख करोड़ का फर्क आमद और खर्च के बीच है, वहां देश की आमद बढ़ानी होगी. टैक्स चोरी रोकना होगा. कालेधन के खिलाफ साहसिक कदम उठाना होगा, पर यूपीए कार्यकाल में हुआ क्या? स्विस आंकड़ों या अन्य स्रोतों से आये आंकड़ों से स्पष्ट है कि इन वर्षों (खासतौर से 2013 में जब यूपीए के महाघोटाले, 2जी, कोल स्कैम, काॅमनवेल्थ खेल वगैरह हुए) में भारत से क्यों सबसे अधिक धन विदेश गया या उस वक्त जमीन, बिल्डिंग, सोना के भाव क्यों आसमान पर थे?
कालाधन इन क्षेत्रों में निवेश हो रहा था, इस कारण जमीन, बिल्डिंग और सोना वगैरह के भाव आसमान छू रहे थे. एक वर्ग, ताकतवर वर्ग, राजनीतिक संरक्षण में पल व रह रहा वर्ग, देश को लूट रहा था और इन चीजों में धन लगा रहा था. आम आदमी के लिए जमीन लेना, बिल्डिंग खरीदना आसान नहीं था. हर जगह कालाधन चाहिए था. वित्त मंत्रालय के अनुसार औसतन 23,000 जगहों पर कर छापों में जो नकदी जब्त हुए, वे कुल कालाधन का पांच फीसदी ही हैं. इसमें सिर्फ नकद राशि (कैश) ही नहीं गहने (ज्वेलरी) भी हैं.
इसी कारण नोटबंदी के बाद पूरे देश में अकेले नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री बिहार थे, जिन्होंने नोटबंदी के साथ-साथ बेनामी संपत्ति, रीयल स्टेट, हीरे-जवाहरात और शेयर बाजार में लगे कालाधन पर सख्त कार्रवाई की मांग की. जिन नेताअों के पैसे शेल कंपनियों से दशकों से सफेद होते रहे हैं, जिनके स्वजनों द्वारा नोटबंदी के बाद सैकड़ों-हजारों करोड़ धन जमा करने के प्रमाण सामने आये, जिनके घरों के अलमारी या पलंग अंदर से 500 और 1000 के नोटों की गड्डियों से भरे होते थे, भला वे कैसे नैतिक साहस कर केंद्र सरकार से कहते कि नोटबंदी से आगे जा कर कठोर कार्रवाई का समय आ गया है?
पर यूपीए शासन में क्या हुआ? 2011 में यूपीए सरकार ने ब्लैकमनी पर अध्ययन-आकलन के लिए तीन आर्थिक शोध संस्थानों को काम सौंपा, पर सरकार इन रिपोर्टों की प्रतीक्षा करती रही. हां, 2012 में इस सरकार ने ब्लैक मनी पर एक ‘ह्वाइट पेपर’ जारी किया. आश्चर्य है कि इन रिपोर्टों के आ जाने के चार वर्षों बाद भी उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया. ऐसी खबरें आयीं कि यूपीए द्वारा गठित समितियों ने ब्लैक मनी पर जो रिपोर्ट सरकार को दी थी, वह तत्कालीन सरकार के लिए मुसीबत पैदा करनेवाली या असुविधाजनक थी. एक और गंभीर सवाल का जवाब आज तक यूपीए से नहीं मिला है. मार्च 2016 के अंत तक कुल बैंक नोट लगभग 16 लाख करोड़ सर्कुलेशन में थे. इनमें से छह लाख करोड़ 1000 रुपये के नोट थे और 500 रुपये के आठ लाख करोड़ नोट. 2011 से 2016 के बीच इन बड़े नोटों का सर्कुलेशन 40 फीसदी किन कारणों से बढ़ाया गया? इस अवधि में 500 रुपये के नोट 76 फीसदी बढ़े और 1000 रुपये के नोटों की आपूर्ति में 109 फीसदी की वृद्धि हुई. यह दुनिया का प्रमाणित तथ्य है कि बड़ी कीमत के नोट ही कालाधन बढ़ाते हैं. जहां भी छापे पड़े, ये बड़े नोट (500 रुपये व 1000 रुपये के) ही कालाधन के रूप में पाये गये. यह काम यूपीए सरकार में कैसे हुआ, क्यों हुआ, यह रहस्य अब भी रहस्य ही है.
नोट : कालाधन व शेल कंपनियों पर हरिवंश के आलेखों की कड़ी हमारे प्रिंट अखबार प्रभात खबर में छपी है, हम अपने डिजिटल पाठकों को हर दिन क्रमिक रूप से इसके छोटा अंश उपलब्ध करवा रहे हैं. फिर इससे आगे का अंश काले धन के खिलाफ जंग राजधर्म है – दो कल पढ़ें.
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