बाल दिवस विशेष : चेंजमेकर की भूमिका निभा रहे देश के ये बच्चे

एक बाग की खूबसूरती जैसे फूलों से होती है, वैसे ही इस दुनिया की खूबसूरती बच्चों से है. यह खूबसूरती तभी बरकरार रह सकती है, जब बच्चों को उनका बचपन और अधिकार सहज रूप से मिले. आजादी के 70 वर्ष बाद भी देश के हर बच्चे को संविधान प्रदत्त अधिकार नहीं मिल पाये हैं, लेकिन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 14, 2017 12:03 AM
एक बाग की खूबसूरती जैसे फूलों से होती है, वैसे ही इस दुनिया की खूबसूरती बच्चों से है. यह खूबसूरती तभी बरकरार रह सकती है, जब बच्चों को उनका बचपन और अधिकार सहज रूप से मिले. आजादी के 70 वर्ष बाद भी देश के हर बच्चे को संविधान प्रदत्त अधिकार नहीं मिल पाये हैं, लेकिन अच्छी बात यह है कि दुनियाभर में सैकड़ों ऐसे बच्चे हैं, जो अपने जैसे बच्चों को उनका अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं और उनमें अपने देश के भी बच्चे हैं.
किड्स राइट्स फाउंडेशन द्वारा हर वर्ष ऐसे ही एक बच्चे को प्रतिष्ठित इंटरनेशनल पीस प्राइज से सम्मानित किया जाता है. इस वर्ष इस पुरस्कार के लिए दुनियाभर से 169 बच्चे नॉमिनेट हुए हैं, जिनमें 10 बच्चे अपने देश से भी हैं. इस वर्ष 4 दिसंबर को यह पुरस्कार प्रदान किया जायेगा. ‘बाल दिवस’ के खास मौके पर जानते हैं उन बच्चों के संघर्ष की कहानी.
अपने जैसे बच्चों की आशा की किरण
किरण गारवा
(14 वर्ष), कार्यक्षेत्र : शिक्षा
गुजरात की रहनेवाली किरण के पिता की मौत के बाद उसकी दादी चाहती थीं कि वह घर में ही कामकाज करें, लेकिन किरण पढ़ना चाहती थीं. इसी दौरान एक एनजीओ के संपर्क में आने के बाद किरण ने फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया. किरण यहीं नहीं रुकीं, उन्होंने दूसरे बच्चों के लिए भी आशा की एक किरण बनने का काम किया. अब वह बच्चों के शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ती हैं.
बाल विवाह के खिलाफ की पहल
शैलेंद्र सिंह, (17 वर्ष) कार्यक्षेत्र : चाइल्ड मैरेज, शिक्षा
राजस्थान स्थित टोंक जिला के बैजलपुरा गांव के रहनेवाले शैलेंद्र को बाल विवाह रोकने और बच्चों की शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कामों की वजह से नॉमिनेट किया गया है. शैलेंद्र ने अपने गांव में हो रहीं पांच नाबालिगों की शादियां रुकवायीं. उन्होंने यह काम जबरदस्ती नहीं किया, बल्कि उन बच्चों के माता-पिता को समझाया कि बाल विवाह कैसे एक गलत प्रथा है, जिससे उनके बच्चों की जिंदगी नर्क हो जायेगी.
गरीब बच्चों तक पहुंचाती हैं किताबें
निखिया शमशेर
(15 वर्ष), कार्यक्षेत्र : शिक्षा
बेंगलुरु की रहनेवाली निखिया ने कभी गरीबी नहीं देखी. एक बार उन्होंने घर में काम करनेवाली बाई की बेटी को अपना स्कूल बैग दिया. उस बच्ची ने निखिया को एक थैंक्स नोट लिखा. इस थैंक्स नोट ने निखिया को एहसास कराया कि ऐसे ढेर सारे बच्चे हैं, जिनके पास बैग और किताब खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं. इसके बाद निखिया ने बैग्स, बुक्स और ब्लेसिंग्स नाम से प्रोजेक्ट शुरू किया.
खानाबदोश बच्चों को पहुंचाया स्कूल
शक्ति रमेश
(12 वर्ष) , कार्यक्षेत्र : शिक्षा
तमिलनाडु के खानाबदोश समुदाय नारिकुरवार से आनेवाले शक्ति इस प्राइज के लिए नॉमिनेशन पानेवालों में सबसे कम उम्र के हैं. नारिकुरवार समुदाय के अधिकांश लोग मांग कर या फिर जंगली वस्तुएं बेच कर गुजारा करते हैं. मुश्किलों के बीच शक्ति ने अपनी पढ़ाई तो शुरू की ही, साथ में अपने समाज के अन्य बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया. वह अब तक 25 बच्चों का नामांकन करवा चुके हैं.
रग्बी खेल में हासिल की सफलता
सुमित्रा नायक, (17 वर्ष) कार्यक्षेत्र : बाल भागीदारी
ओडिशा के जाजपुर जिले की रहनेवाली सुमित्रा नायक को गरीबी में जीवनयापन करना पड़ा. सुमित्रा की गरीबी को देखते हुए उनका चयन कलिंग कॉलेज ऑफ सोशल साइंस में हो गया. वहां उन्होंने रग्बी खेल को अपना लिया. वर्ष 2012 में सुमित्रा ने अपना पहला राज्य स्तरीय मैच खेला. फिर सुमित्रा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा, अब वह अपने जैसी लड़कियों को आगे लाने को प्रयासरत हैं.
बच्चों के लिए शुरू किया बाल चौपाल
आनंद कृष्ण
(13 वर्ष) कार्यक्षेत्र : शिक्षा
लखनऊ के रहनेवाले आनंद कृष्ण ने वर्ष 2012 में एक बाल चौपाल की शुरुआत की, जिसके जरिये वे गरीब बच्चों को शिक्षित करने का काम कर रहे हैं. आनंद रोज एक घंटा बच्चों को गणित, कंप्यूटर और अंग्रेजी पढ़ाते हैं. पिछले पांच वर्षों में आनंद अपनी बाल चौपाल के माध्यम से लगभग 50 हजार से ज्यादा बच्चों से मिले, जिनमें 750 बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया है.
हक के लिए चुनी संघर्ष की राह
एतिशा मारवें, (17 वर्ष) कार्यक्षेत्र : बाल भागीदारी
शिलॉन्ग की एतिशा मारवें के पिता को नशे की लत थी, जिसकी वजह से उनकी मां और उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता था. ऐसी स्थिति में एतिशा पढ़ाई-लिखाई में काफी कमजोर हो गयी थीं, लेकिन शिक्षा के प्रति उनकी ललक ने उन्हें अपने हक के लिए आवाज उठाने को मजबूर कर दिया. इसके बाद एतिशा ने बुनियादी हक पाने के लिए संघर्ष किया और सफल भी हुईं. एतिशा का मानना है कि बच्चों के बुनियादी अधिकारों की सुरक्षा का रास्ता शिक्षा से होकर ही गुजरता है.
हर बच्चे को करना चाहती हैं शिक्षित
सालेहा खान, (17 वर्ष)
कार्यक्षेत्र : शिक्षा और स्वास्थ्य
मुंबई की सालेहा का मानना है कि शिक्षा ही वह एकमात्र रास्ता है, जिसके लोग अपनी जिंदगी बदल सकते हैं. वह दुनिया के हर बच्चे को शिक्षित बनाना चाहती हैं. इसकी मुहिम उन्होंने मुंबई की स्लम से शुरू की. सालेहा अपने समाज की 200 से ज्यादा लड़कियों को शिक्षा हासिल करने के लिए प्रोत्साहित कर चुकीं हैं. कइयों ने पहले स्कूल जाना छोड़ दिया था, वे फिर से स्कूल जाने लगी हैं.
बदलाव की बनी ठोस मिसाल
निधि कुमारी, (15 वर्ष) कार्यक्षेत्र : हिंसा व बाल विवाह
बिहार की निधि के पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. इसलिए वह दादा-दादी के साथ रहने लगीं. शुरुआत में गांव के लोगों ने उनके स्कूल जाने का मजाक उड़ाया, लेकिन निधि के दादा झुके नहीं और निधि को स्कूल भेजते रहे. आज निधि अपने समाज में बदलाव की मिसाल बन गयी हैं. अब निधि सभी लोगों से शपथ लेने को कहती हैंे कि वे अपने बच्चों को उनके अधिकारों से वंचित नहीं रखेंगे.
बाल मजदूरी का बंधन तोड़ हुई आजाद
पूनम, (16 वर्ष)
कार्यक्षेत्र : स्ट्रीट चिल्ड्रेंस और चाइल्ड लेबर
आगरा की झुग्गी बस्ती में रहनेवाली पूनम आज वहां के बच्चों के लिए प्रेरणा बन गयी हैं. पांच साल की उम्र से बाल मजदूरी करनेवाली पूनम हमेशा से उस बंधन को तोड़ना चाहती थीं. अभी पूनम फेडरेशन ऑफ स्ट्रीट एंड वर्किंग चाइल्ड इन नॉर्थ इंडिया की जिला सेक्रेटरी हैं. वह चाइल्ड लेबर, चाइल्ड मैरेज राइट को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने का काम करती हैं. वह हजारों बच्चों को अधिकारों के प्रति जागरूक कर चुकी हैं. वह एक रिपोर्टर भी हैं और बालकनामा नाम की पत्रिका मेंलगातार लिखती हैं.
इंटरनेशनल चिल्ड्रेंस पीस प्राइज के विजेता
यह पुरस्कार हर वर्ष दुनियाभर के ऐसे बच्चों को दिया जाता है, जिन्होंने बाल अधिकारों के लिए साहसपूर्वक संघर्ष किया हो. यह पुरस्कार वर्ष 2005 से हर वर्ष किसी एक बच्चे को दिया जाता है.
किड्‌स राइट्‌स फाउंडेशन बच्चों के साथ मिल कर ऐसे विश्व के निर्माण के लिए प्रयासरत है, जहां उनके अधिकारों की गारंटी हो. वर्ष 2013 में पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई को यह प्राइज मिला था. इसके एक वर्ष बाद मलाला को शांति के नोबेल प्राइज से भी सम्मानित किया गया.
इस वर्ष 55 देशों के 169 बच्चों का नॉमिनेशन हुआ है, जिनमें से तीन फाइनलिस्ट की घोषणा 15 नवंबर को होनी है. खास बात है कि इनमें अलग-अलग क्षेत्रों में काम करनेवाले बच्चों को जगह मिली है. वर्ष 2006 में भारतीय ओम प्रकाश गुर्जर को इंटरनेशनल चिल्ड्रेंस पीस प्राइज मिल चुका है. वहीं भारतीय मूल की अमेरिकी नेहा गुप्ता भी वर्ष 2014 में इसकी विजेता रही हैं.

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