शुद्ध पंचांग का मुख्य आधार ग्रह गणना

डॉ एनके बेरा भा रतीय ज्योतिर्विज्ञान की शास्त्र एवं प्रयोग सिद्ध एक स्वस्थ परंपरा पंचांग के माध्यम से हमारे जीवन को आलोकित करती आ रही है. पंचांग ज्योतिषीय अध्ययण का एक अनिवार्य उपकरण है. इसे तिथि पत्र या पत्रा भी कहते हैं. इसका नाम पंचांग इसलिए है कि – तिथिर्वारश्च नक्षत्र योगः करण मेव च […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 18, 2017 8:48 AM

डॉ एनके बेरा

भा रतीय ज्योतिर्विज्ञान की शास्त्र एवं प्रयोग सिद्ध एक स्वस्थ परंपरा पंचांग के माध्यम से हमारे जीवन को आलोकित करती आ रही है. पंचांग ज्योतिषीय अध्ययण का एक अनिवार्य उपकरण है. इसे तिथि पत्र या पत्रा भी कहते हैं. इसका नाम पंचांग इसलिए है कि –

तिथिर्वारश्च नक्षत्र योगः करण मेव च ।

एतेषां यत्र विज्ञानं पंचांग तन्निगद्यते ।।

अर्थात्- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण की जानकारी जिसमें मिलती है, उसी का नाम पंचांग है. पंचांग अपने प्रमुख पांच अंगों के अतिरिक्त हमारा और भी अनेक बातों से परिचय कराता है. जैसे ग्रहों का उदयास्त, उनकी गोचर स्थिति, ग्रहों का वक्री और मार्गी होना. काल के शुभाशुभत्व का यथार्थ ज्ञान के अलावा व्रत-त्योहार, मौसम का हाल, बाजार की तेजी-मंदी, विवाह मुहूर्त, यज्ञोपवीत, गृहारंभ, गृहप्रवेश, व्यापार, वाहन क्रय-विक्रय, ग्रहणों तथा विभिन्न योगों तथा अन्यान्य मुहूर्त और समय शुद्धि, आकाशीय परिषद में ग्रहों का चुनाव आदि का उल्लेख भी रहता है.

पंचांग का सर्वप्रथम निर्माण कब और कहां हुआ, यह तो कहना कठिन है, लेकिन विभिन्न शास्त्रों के पंचांग के निर्माण सर्वप्रथम ब्रह्मा ने किया था. सतयुग के अंत में सूर्य सिद्धांत की रचना भगवान सूर्य के आदेशानुसार हुई थी, जिसमें कालगणना का सटीक वर्णन मिलता है. सूर्य सिद्धांत, पराशर सिद्धांत, आर्य सिद्धातं, ब्रह्म सिद्धांत, सौरपक्ष सिद्धांत, मकरंदगणित आदि ग्रंथों में पंचांग निर्माण के विधि उल्लेख है. शास्त्र सम्मत शुद्ध पंचांग गणना का मुख्य आधार ग्रह गणना ही है. वर्तमान में अधिकांश पंचांग सूक्ष्म दृश्य गणित के आधार पर बनाये जाते हैं. प्रत्येक प्रामाणिक पंचांग किसी स्थान विशेष के अाक्षांश और रेखांश पर आधारित होते हैं. पंचांग दो पद्धतियों पर निर्मित होते हैं- सायन और निरयण. हमारे देश के सभी पंचांग निरयण पद्धति पर निर्मित होते हैं. जबकि पाश्चात्य देशों में सायन पद्धति प्रचलित है.

तिथि : चंद्रमा की एक कला को तिथि कहते हैं. कला का मान सूर्य और चंद्र के अंतरांशों पर निकाला जाता है, जिसका वर्णन सूर्य सिद्धातं के मानाध्याय शलोक संख्या 13 में है.

वार : भारतीय ज्योतिष में-उदयात् उदयं वारःसूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक एक वार होता है. वारों का प्रचलित क्रम समस्त विश्व में एक जैसा है. सात वारों का नाम सात ग्रहों के नाम पर रखे गये हैं.

नक्षत्र : सूर्य सिद्धांत के भूगोलाध्याय में श्लोक 25 के अनुसार ज्योतिष में समस्त मेषादि राशि चक्र अर्थात् भचक्र (360 डिग्री) को 27 भागों में बांटा गया है. हर भाग एक नक्षत्र का सूचक है और हर भाग को एक नाम दिया गया है. एक और नक्षत्र का समावेश भी किया गया है, जिसे अभिजित नक्षत्र कहते हैं. इस तरह कुल नक्षत्र 28 हैं.

योग : पंचांग में मुख्यतः दो प्रकार के योग होते हैं-

1. आनंदादि 2. विष्कंभादि. आकाश में निरयण आदि बिंदुओं से सूर्य और चंद्र को संयुक्त रूप से 13 अंश 20 कला (800) का पूरा भोग करने में जितना समय लगता है, वह योग कहलाता है. विष्कंभादि योगों की कुल संख्या 27 है. योग का दैनिक भोग मध्यम मान लगभग 60 घटी 13 पल होता है.

करण : करण तिथि का आधा होता है. अर्थात् सूर्य और चंद्र में 6 डिग्री का अंश का अंतर होने में जितना समय लगता है, उसे करण कहते हैं. इनकी कुल संख्या 11 है. सुगम ज्योतिष करण प्रकरण, श्लोक 1 में इनके दो भेद माने गये हैं- चर और स्थिर.

एक अच्छे पंचांग में सही कालगणना के साथ-साथ उन सभी तथ्यों का समावेश होना चाहिए, जिनका सीधा संबंध मानव जीवन से है.

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