100वीं वर्षगांठ : सपनों की तितली को कांटों से निकालनेवाली इंदु

लेखक का परिचय-उमेश कुमार सचिव, झारखंड शोध संस्थान, देवघर भारत की लौह महिला के रूप में चर्चित श्रीमति इंदिरा गांधी और देवघर का संबंध एकरेखीय नहीं है. इसे इतिहास ने एक अलग कोण दिया है. इतिहास में गांधी, विनोबा और पं नेहरु की अलग-अलग उपस्थिति है. गांधी और विनाेबा के साथ इस शहर के सलूक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 19, 2017 1:16 PM

लेखक का परिचय-उमेश कुमार

सचिव, झारखंड शोध संस्थान, देवघर

भारत की लौह महिला के रूप में चर्चित श्रीमति इंदिरा गांधी और देवघर का संबंध एकरेखीय नहीं है. इसे इतिहास ने एक अलग कोण दिया है. इतिहास में गांधी, विनोबा और पं नेहरु की अलग-अलग उपस्थिति है. गांधी और विनाेबा के साथ इस शहर के सलूक ने पं नेहरु की विचारधारा तय कर दी. लेकिन, इंदिराजी ने इस शहर के प्रति पूर्वजों से इतर मानदंड अपनाया. यह एक कटु सत्य है कि पं नेहरु कभी देवघर नहीं आये. हो सकता है कि तत्कालीन कांग्रेस पार्टी अथवा अन्य किसी संगठन या समिति को नेहरु जी की देवघर में उपस्थिति की जरूरत नहीं पड़ी हो. लेकिन, यह तसवीर का एक पहलू है. तसवीर का दूसरा पहलू कुछ करुण ऐतिहासिक घटनाओं की ओर इशारा करता है, जिन्होंने इस शहर के प्रति पं नेहरु की राय तय की. दरअसल, सन 1934 ई में ‘हरिजन-मंदिर प्रवेश आंदोलन’ के विराट उद्देश्य को लेकर देवघर आये महात्मा गांधी का यहां के कुछ कट्टरपंथी लोगों ने अत्यंत अमर्यादित विरोध किया था.

पं नेहरु इस बर्बर घटना से बड़े आहत हुए थे. रही-सही कसर सन 1953 ई में आचार्य बिनोवा भावे के मंदिर प्रवेश आंदोलन के उग्र विरोध ने पूरी कर दी. वहीं बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह का पं नेहरु से परामर्श और पं नेहरु द्वारा मुख्यमंत्री को हर संवैधानिक उपचार के माध्यम से हरिजनों के मंदिर प्रवेश काे सुनिश्चित करने का आदेश. लिहाजा, पं नेहरु के दिमाग में देवघर की एक अलग-सी छवि बन गयी थी. यही कारण है कि सन 1962 ई के आमचुनाव के एक माह पूर्व जब पं नेहरु का संताल परगना का दौरा बना तो उन्होंने जगत प्रसिद्ध देवघर आना जरूरी नहीं समझा. अलबत्ता वे जिला मुख्यालय दुमका आये और चले गये. पं नेहरु की पुत्री और भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी के साथ भी इस शहर का संबंध एक समय संघर्षपूर्ण ही रहा था. अलबत्ता, वह एक नीतिगत मामला था, जिसे भारतीय राजनीति के एक स्याह अध्याय ‘आपातकाल’ (1975-77) के रूप में जाना जाता है. यह आपातकाल उस जुझारु नायक के संघर्ष के दमन का भी एक बड़ा रणनीतिक उपकरण था, जो आज ‘जेपी आंदोलन’ (1974-77) के रूप में प्रतिष्ठित है. उस दौर के अनेक नौजवानों ने जेपी की संपूर्ण क्रांति के आहवान पर इंदिरा जी की दमनकारी नीतियों का विरोध किया था. उस ऐतिहासिक विरोध में देवघर भी था और यहां के परिवर्तनकारी युवा भा. इन युवाओं ने ‘संघर्ष और रचना’ का पाठ साथ-साथ पढ़ा था, इसलिए उनकी दृष्टि में प्रतिपक्षी (इंदिराजी) सिर्फ तानाशाह नहीं, बल्कि एक भावशील महिला भी थीं. इसी कारण उनके व्यक्तित्व का वह दुर्लभ रंग तत्कालीन प्रतिपक्षी (संपूर्ण क्रांति सेनानी) गंगा खवाड़े देख सके थे.

मौका था पटना के गंगाघाट पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अंतिम संस्कार का. अपने राजनीतिक जीवन के प्रबलतम सैद्धांतिक विरोधी के महाप्रयाग से इंदिराजी काफी मायूस थीं. गंगा खवाड़े (दुमका जिला छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष) वहां देवघर की सकल संवेदना के साथ मौजूद थे. आज उन स्मृतियों से गुजरते गंगा बाबू बताते हैं कि इंदिराजी शोक-संतप्त भाव से अंत तक गंगा घाट पर खड़ी रहीं. इस घटना के कुछ साल बाद उनका देवघर आगमन हुआ. उस समय वे लोकप्रियता के शीर्ष पर आसीन थीं. उनका लोकप्रिय दौरा मार्च, 1980 का है जब वे बाबा बैद्यनाथ के दर पर उनके अनुग्रह के उपस्थित हुईं. श्रुति परंपरा का हवाला देते एक भिन्न प्रांत के पंडाजी पहले उनके पास पहुंचे. लेकिन, जब कश्मीरी पंडितों के पुश्तैनी पुरोहित पुतुल बाबा तनपुरिये ने अपने बही-खाते में इंदिराजी के पूर्वजों के नाम/हस्ताक्षर आदि दिखलाये तो उन्होंने तनपुरिये बाबा की ही देख-रेख में पूजा-पाठ किया. इसकी पुष्टि वर्तमान पुरोहित सुनील तनपुरिये भी करते हैं. जिला कांग्रेस कमिटि के वरीय उपाध्यक्ष रवींद्रनाथ मिश्रा उर्फ दद्दू जी तब बाबाब मंदिर के गर्भगृह में इंदिराजी के साथ थे. दद्दूजी बताते हैं कि इंदिराजी विलक्षण रूप से कांतिवान और विदुषी थीं. पंडाजी द्वारा उच्चरित श्लोक के एक अंतरे को उन्होंने बड़ी कोमलता से परिशुद्ध कर उसका हृदयग्राही पाठ किया था. उस समय मधुपुर के युवा विधायक कृष्णानंद जी उनके साथ मुस्तैदी से मौजूद थे.

बिहार सरकार के अनेक मंत्री, आला अधिकारी एवं देवघर विधायक बैद्यनाथ दास जी तो थे ही. इंदिरा जी की झलक पाने को तब लोग मंदिरों के छज्जों पर चढ़ गये थे. इसकी दो जीवंत तसवीर हिंदी विद्यापीठ के तत्कालीन कुलपति डॉ नवल किशाेर गौड़ की अध्यक्षता में बनी समिति द्वारा प्रकाशित देवघर जिला स्मारिका (1983) के द्वितीय छवि पत्रक पर मुद्रित है. तत्कालीन जन समागम को ये श्याम-श्वेत तसवीरें बड़ी शिद्दत से उकेरती है. बाबा की पूजा के बाद इंदिराजी पोखनाटिल्हा स्थित कृष्णानंद झा के घर गयीं. कांग्रेस के महान नेता पंडित विनोदानंद झा के घर जलपान आदि ग्रहण कर वे हिंदी विद्यापीठ पहुंची और वहां एक महती सभा को संबोधित किया. देवघर को जिला के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व दिलाने में भी इंदिराजी ने अपनी सहमति दी थी. इस कारण भी देवघर के संदर्भ में इंदिराजी की अपनी महत्ता है. दरअसल 27 जनवरी 1973 से 20 दिसंबर 1973 तक ‘देवघर जिला बनाओ समिति ‘ काफी सक्रिय थी. इस समिति में अधिवक्ता चंद्रमौलेश्वर प्रसाद सिंह अध्यक्ष, प्राचार्य कृष्णनंदन सहाय, अधिवक्ता विनय कुमार, शंकर प्रसाद तुलस्यान तथा आनंद नारायण सिंह उपाध्यक्ष, प्राध्यापक प्रो धर्मराज बहादुर सचिव, प्रध्यापक प्रो नित्यानंद मिश्रा, अधिवक्ता सह वामपंथी नेता उपेंद्र चौरसिया, मजदूर नेता अनिरुद्ध आजाद तथा सत्यनारायण जोतकी संयुक्त सचिव तथा तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष कृष्णानंद झा कोषाध्यक्ष थे. अनेक प्रबुद्ध लोग सहयोगी की भूमिका में थे. जब इंदिरा जी के नेतृत्व में कांग्रेस आइ की सरकार बनी तो प्रो धर्मराज बहादुर के नेतृत्व में प्रो डीपी बरनवाल और रामप्रसाद पांडेय का एक शिष्टमंडल सन 1982 ई में दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री इंदिरा जी से मिला.

उन्हें देवघर जिला बनाने संबंधी मांग-पत्र सौंपा. इसके बाद मानों सपनों की तितली कांटों से निकल गयी और 16 जून 1983 को दुमका से कट कर देवघर जिला का स्वतंत्र अस्तित्व कायम हो गया.

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