वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी का विश्लेषण : कुछ कमजोरियों के साथ सोनिया की कई उपलब्धियां भी
नीरजा चौधरी वरिष्ठ पत्रकार सोनिया गांधी के राजनीतिक जीवन से संन्यास के बाद सबसे अहम बात यही होगी कि उनकी राजनीतिक उपलब्धियां क्या रहीं. मेरे ख्याल में उनकी दो मुख्य उपलब्धियां रही हैं- पहली यह कि जब उन्होंने कांग्रेस की कमान संभाली थी, उस दौरान पार्टी बिखर रही थी और बड़े-बड़े नेता कांग्रेस छोड़ रहे […]
नीरजा चौधरी
वरिष्ठ पत्रकार
सोनिया गांधी के राजनीतिक जीवन से संन्यास के बाद सबसे अहम बात यही होगी कि उनकी राजनीतिक उपलब्धियां क्या रहीं. मेरे ख्याल में उनकी दो मुख्य उपलब्धियां रही हैं- पहली यह कि जब उन्होंने कांग्रेस की कमान संभाली थी, उस दौरान पार्टी बिखर रही थी और बड़े-बड़े नेता कांग्रेस छोड़ रहे थे. ममता बनर्जी पहले छोड़कर जा चुकी थीं, शरद पवार ने कांग्रेस छोड़ दी, अन्य कई नेता भी पार्टी से अलग हो गये थे. लेकिन, कांग्रेस की कमान संभालने के बाद उन्होंने पार्टी को एकजुट किया, जो उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी.
तमाम राजनीतिक चुनौतियों का सामना करते हुए उन्होंने बहुत बुरी हार भी देखी और शानदार जीत भी दर्ज की. दूसरी बड़ी उपलब्धि थी नेशनल एडवाइजरी काउंसिल गठन, जिसमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी और वे इसकी अध्यक्ष बनायी गयीं. सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा और मनरेगा जैसी उपलब्धियां भी सोनिया के कार्यकाल में ही हासिल हुईं.
यूपीए के दोनों कार्यकाल में एक बड़ी हानि यह रही कि कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगा, जो एक हद तक सही भी है, जिसे सोनिया गांधी संभाल नहीं पायीं. सोनिया गांधी हिंदू जनमानस को समझ नहीं पायीं और इस जनमानस में एक प्रतिक्रियावादी स्वरूप उभरकर सामने आया कि कांग्रेस सिर्फ मुसलमानों का भला करती है.
हालांकि, इस दौरान मुसलमानों को कुछ खास भला नहीं हुआ, लेकिन इसका फायदा जरूर साल 2014 आते-आते भाजपा और मोदी को मिल गया. इस तरह से देश की एक पुरानी पार्टी महज 44 लोकसभा सीटों के साथ केंद्र में बेहद कमजोर स्तर पर पहुंच गयी. सोनिया गांधी इस परिस्थिति को पहचान नहीं पायीं, जिसका खामियाजा कांग्रेस की बुरी हार के रूप में भुगतना पड़ा.
यूपीए के दौरान हुए घोटालों को लेकर भी उनकी समझ कमजोर ही दिखी और आरोपियों पर पार्टी की तरफ से कोई कार्रवाई होती नजर नहीं आयी, जिसकी वजह से मनमोहन सिंह को एक कमजोर प्रधानमंत्री तक कहा गया. जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली थी, तब राजनीतिक चुनौतियां बहुत थीं. अब जब राहुल गांधी ने कमान संभाली है, तब भी उनके सामने कई चुनौतियां हैं. सोनिया गांधी के समय में लोग पार्टी छोड़कर जा रहे थे, लेकिन उन्होंने पार्टी को खड़ा करके दिखा दिया.
जब सोनिया कांग्रेस अध्यक्ष बनी थीं, तो उनके सामने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी थे. आज जब राहुल कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं, तो इनके सामने नरेंद्र मोदी और अमित शाह हैं. मोदी-शाह के पास चुनाव जीतने की एक मजबूत मशीनरी है, जिसका सामना राहुल को करना है.
यह बात सोनिया गांधी अच्छी तरह जानती हैं. ऐसे में राहुल को कमान सौंपने का निर्णय एक साहसी निर्णय तो है ही. ऐसा ही साहस उन्होंने तब भी दिखाया था, जब वे प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गयीं. चाहे जितने भी कारण क्यों न हों, चाहे जितनी भी मजबूरी क्यों न हो, भारत का कोई भी नेता प्रधानमंत्री बनने के मौके को कभी नहीं गंवाना चाहेगा. आज तक कोई भी ऐसा राजनेता नहीं, जिसने प्रधानमंत्री पद को ना कहा हो. लेकिन, सोनिया गांधी ने ऐसा करके दिखाया और यह उनकी निर्णय क्षमता का बेहतरीन उदाहरण है. उसके बाद से उनकी छवि एक गंभीर नेता की बनी.
यह अजीब विडंबना है कि एक ‘विदेश बहू’ सोनिया गांधी ने अपने पति राजीव के राजनीति में आने से रोकना चाहा था, वही सोनिया एक नेता के रूप में उभरकर आयीं और 19 साल तक कांग्रेस का नेतृत्व किया. अब क्या राजनीति में उनकी भूमिका बिल्कुल नहीं हाेगी, ऐसा अभी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे राहुल को दिशा-निर्देश तो करेेंगी ही. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उन्हें सचमुच ही रिटायर करने दिया जायेगा? सकता है कि सोनिया वे राहुल को कांग्रेस में नेतृत्व की पूरी आजादी देना चाहती हों.
और शायद वे यह भी सोचती हों कि राहुल को अब अपनी छवि की छाया से मुक्त कर दें, ताकि राहुल अपने आप को खुद ही सशक्त बना सकें. कांग्रेस के लिए यह दौर ऐसा है, जिसमें उसके सामने चुनौतियां बहुत हैं, ऐसे में सोनिया का राजनीतिक संन्यास इस बात की पड़ताल करता है कि आखिर विपक्ष को फिर से खड़ा करने में बड़ी भूमिका कौन निभायेगा. साल 2019 की तैयारी भी करनी है, जिसमें राहुल को भी अच्छे मार्गदर्शन की जरूरत होगी, इसकी जिम्मेदारी कौन निभायेगा. बहरहाल, अभी कई सवाल हैं, लेकिन इतना जरूर है कि सोनिया गांधी ने तमाम राजनीतिक चुनौतियाें का सामना करते हुए अपनी हिम्मत नहीं हारी और कांग्रेस को एकजुट बनाये रखा. अब बारी राहुल गांधी की है.
राजनीतिक जीवन की शुरुआत
वर्ष 1996 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हार गयी. पार्टी के सत्ता से हटते ही लोगों के बीच पैठ कम होने लगी. उस वक्त कांग्रेस पार्टी में अनेक बड़े नेता उभर चुके थे, और उनमें से अधिकतर में खुद पार्टी का बड़ा नेता बनने की महत्वाकांक्षा घर कर गई थी. ऐसे में सोनिया गांधी कांग्रेस का नेतृत्व संभालने के लिए आगे बढ़ते हुए सामने आयीं.
हालांकि, शुरुआत में कांग्रेस के बड़े नेताओं ने साेनिया गांधी को अनुभव की कमी बताते हुए अध्यक्ष बनाने से इनकार कर दिया था, लेकिन पार्टी की दशा दिनों-दिन खराब होते देख और सभी महत्वाकांक्षी नेताओं को एकजुट बनाये रखने के लिए इन्हें वर्ष 1997 में नेतृत्व सौंप दिया गया. इसके बाद धीरे-धीरे कांग्रेस मजबूत होती गयी और सोनिया गांधी का राजनीतिक कद बढ़ता गया.