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कृष्ण – द्रौपदी सखा-सखी ही क्यों रहे ? पढ़ें डॉ राममनोहर लोहिया का विशेष आलेख

भारतीय जनता पार्टी के महासचिव राम माधव ने महाभारत कालीन किरदार द्रौपदी पर एक टिप्पणी की है, जिसके बाद एक बार फिर महाभारत के दो कैरेक्टर कृष्ण और द्रौपदी के संबंधों पर चर्चा शुरू हो गयी है. राम माधव ने कहा है – "द्रौपदी के पांच पति थे वो और पांचों में से किसी की […]

भारतीय जनता पार्टी के महासचिव राम माधव ने महाभारत कालीन किरदार द्रौपदी पर एक टिप्पणी की है, जिसके बाद एक बार फिर महाभारत के दो कैरेक्टर कृष्ण और द्रौपदी के संबंधों पर चर्चा शुरू हो गयी है. राम माधव ने कहा है – "द्रौपदी के पांच पति थे वो और पांचों में से किसी की बात नहीं सुनती थीं. वो सिर्फ अपने दोस्त की बात सुनती थीं और वो थे श्रीकृष्ण." उन्होंने द्रौपदी को दुनिया की पहली फेमिनिस्ट थीं और कहा कि महाभारत का युद्ध सिर्फ उनकी जिद की वजह से हुआ, जिसमें 18 लाख लोग मारे गये.

भारतीय राजनीति में अपने समाज के सांस्कृतिक नायकों का बेहतरीन विश्लेषण करने में डॉ राममनोहर लोहिया के समानांतर बहुत ही कम लोग हैं. उन्होंने भगवान श्री कृष्ण पर एक अदभुत लेख लिखा है. लगभग 6,000 शब्दों का. यह इतना रोचक, प्रवाहमय और स्फूर्तिदायक है कि बार-बार पढ़ने की इच्छा होगी. पढ़ें डॉ राममनोहर लोहिया का यह आलेख-
कृष्ण – कृष्णा सखा-सखी ही क्यों रहे ?
कुरु – धुरी की आधार – शिला थी कुरु – पांचाल संधि . आसपास के इन इलाकों का वज्र समान एका कायम करना था सो कृष्ण ने उन लीलाओं के द्वारा किया , जिनसे पांचाली का विवाह पांचों पाण्डवों से हो गया . यह पांचाली भी अद्भुत नारी थी . द्रौपदी से बढ़ कर भारत की कोई प्रखर – मुखी और ज्ञानी नारी नहीं . कैसे कुरु पक्ष के सभी को उत्तर देने के लिए ललकारती है कि जो आदमी अपने को हार चुका है क्या दूसरे को दांव पर रखने की उसमें स्वतंत्र सत्ता है ?
अर्जुन समेत पांचों पांडव उसके सामने फीके थे. यह कृष्णा तो कृष्ण के ही लायक थी. महाभारत का नायक कृष्ण , नायिका कृष्णा. कृष्णा और कृष्ण का संबंध भी विश्व – साहित्य में बेमिसाल है. दोनों सखा – सखी ही क्यों रहे. कभी कुछ और दोनों में से किसी ने होना चाहा ? क्या सखा – सखी का सम्बन्ध पूर्व रूप से मन की देन थी या उसमें कुरु – धुरी के निर्माण और फैलाव का अंश था ? जो हो , कृष्ण और कृष्णा का यह संबंध राधा और कृष्ण के संबंध से कम नहीं , लेकिन साहित्यकारों और भक्तों की नजर इस ओर कम पड़ी है. हो सकता है कि भारत की पूर्व – पश्चिम एकता के इस निर्माता को अपनी ही सीख के अनुसार केवल कर्म , न कि कर्मफल का अधिकारी होना पड़ा , शायद इसलिए कि यदि वह वस्य कर्मफल-हेतु बन जाता , तो इतना अनहोना निर्माता हो ही नहीं सकता था. उसने कभी लालच न की कि अपनी मथुरा को ही धुरी – केंद्र बनाये , उसके लिए दूसरों का हस्तिनापुर ही अच्छा रहा. उसी तरह कृष्णा को भी सखी रूप में रखा , जिसे संसार अपनी कहता है , वैसी न बनाया. कौन जाने कृष्ण के लिए यह सहज था या इसमें भी उसका दिल दुखा था .
कृष्णा अपने नाम के अनुरूप सांवली थी , महान सुंदरी रही होगी. उसकी बुद्धि का तेज , उसकी चकित हरिणी आंखों में चमकता रहा होगा. गोरी की अपेक्षा सांवली, नखशिख और अंग में अधिक सुडौल होती है . राधा गोरी रही होगी. बालक और युवक कृष्ण राधा में एकरस रहा. प्रौढ़ कृष्ण के मन पर कृष्णा छायी रही होगी, राधा और कृष्ण तो एक थे ही. कृष्ण की संतानें कब तक उसकी भूल दोहराती रहेंगी- बेखबर जवानी में गोरी से उलझना और अधेड़ अवस्था में श्यामा को निहारना. कृष्ण – कृष्णा संबंध में और कुछ न हो , भारतीय मर्दों को श्यामा की तुलना में गोरी के प्रति अपने पक्षपात पर मनन करना चाहिए .

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रामायण की नायिका गोरी है. महाभारत की नायिका कृष्णा है. गोरी की अपेक्षा सांवला अधिक सजीव है. जो भी हो , इसी कृष्ण – कृष्णा संबंध का अनाड़ी हाथों फिर पुनर्जन्म हुआ. न रहा उसमें कर्मफल और कर्मफल हेतु त्याग. कृष्णा पांचाल यानी कनौज के इलाके की थी , संयुक्ता भी. धुरी – केन्द्र इन्द्रप्रस्थ का अनाड़ी राजा पृथ्वीराज अपने पुरखे कृष्ण के रास्ते न चल सका . जिस पांचाली द्रौपदी के जरिये कुरु – धुरी की आधार – शिला रखी गयी , उसी पांचाली संयुक्ता के जरिये दिल्ली – कनौज की होड़ जो विदेशियों के सफल आक्रमणों का कारण बना. कभी – कभी लगता है कि व्यक्ति का तो नहीं लेकिन इतिहास का पुनर्जन्म होता है , कभी फीका कभी रंगीला. कहां द्रौपदी और कहां संयुक्ता , कहां कृष्ण और कहां पृथ्वीराज , यह सही है. फीका और मारात्मक पुनर्जन्म , लेकिन पुनर्जन्म तो है ही .

कृष्ण की कुरु – धुरी के और भी रहस्य रहे होंगे. साफ़ है कि राम आदर्शवादी एकरूप एकत्व का निर्माता और प्रतीक था. उसी तरह जरासंध भौतिकवादी एकत्व का निर्माता था. आजकल कुछ लोग कृष्ण और जरासंध युद्ध को आदर्शवाद – भौतिकवाद का युद्ध मानने लगे हैं. वह सही जंचता है ,किंतु अधूरा विवेचन. जरासंध भौतिकवादी एकरूप एकत्व का इच्छुक था. बाद के मगधीय मौर्य और गुप्त राज्यों में कुछ हद तक इसी भौतिकवादी एकरूप एकत्व का प्रादुर्भाव हुआ और उसी के अनुरूप बौद्ध धर्म का . कृष्ण आदर्शवादी बहुरूप एकत्व का का निर्माता था.जहां तक मुझे मालूम है ,अभी तक भारत का निर्माण भौतिकवादी बहुरूप एकत्व के आधार पर कभी नहीं हुआ. चिर चमत्कार तो तब होगा जब आदर्शवाद और भौतिकवाद के मिलेजुले बहुरूप एकत्व के आधार पर भारत का निर्माण होगा.

अभी तक तो कृष्ण का प्रयास ही सर्वाधिक माननीय मलूम होता है , चाहे अनुकरणीय राम का एकरूप एकत्व ही हो.कृष्ण की बहुरूपता में वह त्रिकाल – जीवन है जो औरों में नहीं.कृष्ण यादव-शिरोमणि था , केवल क्षत्रीय राजा ही नहीं , शायद क्षत्रीय उतना नहीं था , जितना अहीर. तभी तो अहीरिन राधा की जगह अडिग है ,क्षत्राणी द्रौपदी उसे हटा न पायी. विराट विश्व और त्रिकाल के उपयुक्त कृष्ण बहुरूप था. राम और जरासंध एकरूप थे , चाहे आदर्शवादी एकरूपता में केन्द्रीयकरण और क्रूरता कम हो , लेकिन कुछ न कुछ केन्द्रीयकरण तो दोनों में होता है. मौर्य और गुप्त राज्यों में कितना केन्द्रीयकरण था , शायद क्रूरता भी.

बेचारे कृष्ण ने इतनी नि:स्वार्थ मेहनत की , लेकिन जन-मन में राम ही आगे रहा है.सिर्फ बंगाल में ही मुर्दे – ” बोलो हरि , हरि बोल ” के उच्चारण से – अपनी आख़री यात्रा पर निकाले जाते हैं , नहीं तो कुछ दक्षिण को छोड़ कर सारे भारत में हिन्दू मुर्दे – ” राम नाम सत्य है ” के साथ ही ले जाये जाते हैं. बंगाल के इतना तो नहीं , फिर भी उड़ीसा और असम में कृष्ण का स्थान अच्छा है. कहना मुशकिल है कि राम और कृष्ण में कौन उन्नीस , कौन बीस है. सबसे आश्चर्य की बात है कि स्वयं ब्रज के चारों ओर की भूमि के लोग भी वहां एक – दूसरे को ‘ जैरामजी ” से नमस्ते करते हैं. सड़क चलते अनजान लोगों को भी यह ” जैरामजी ” बड़ा मीठा लगता है , शायद एक कारण यह भी हो.
राम त्रेता के मीठे , शान्त और सुसंस्कृत युग का देव है.कृष्ण पके , जटिल , तीखे और प्रखर बुद्धि युग का देव है.राम गम्य है. कृष्ण अगम्य है.कृष्ण ने इतनी अधिक मेहनत की उसके वंशज उसे अपना अंतिम आदर्श बनाने से घबड़ाते हैं , यदि बनाते भी हैं तो उसके मित्रभेद और कूटनीति की नकल करते हैं , उसका अथक निस्व उनके लिए असाध्य रहता है.इसीलिए कृष्ण हिन्दुस्तान में कर्म का देव न बन सका.कृष्ण ने कर्म राम से ज्यादा किये हैं.कितने सन्धि और विग्रह और प्रदेशों के आपसी सम्बन्धों के धागे उसे पलटने पड़ते थे . यह बड़ी मेहनत और बड़ा पराक्रम था.

इसके यह मतलब नहीं की प्रदेशों के आपसी सम्बन्धों में में कृष्णनीति अब भी चलायी जए.कृष्ण जो पूर्व – पश्चिम की एकता दे गया ,उसी के साथ – साथ उस नीति का औचित्य भी खतम हो गया.बच गया कृष्ण का मन और उसकी वाणी.और बच गया राम का कर्म.अभी तक हिन्दुस्तानी इन दोनों का समन्वय नहीं कर पाये हैं. करें , तो राम के कर्म में भी परिवर्तन आये. राम रोऊ है , इतना कि मर्यादा भंग होती है. कृष्ण कभी रोता नहीं. आंखें जरूर डबडबाती हैं उसकी , कुछ मौकों पर , जैसे जब किसी सखी या नारी को दुष्ट लोग नंगा करने की कोशिश करते हैं .

कैसे मन और वाणी थे उस कृष्ण के.अब भी तब की गोपियां और जो चाहें वे ,उसकी वाणी और मुरली की तान सुन कर रस विभोर हो सकते हैं और अपने चमड़े के बाहर उछल सकते हैं. साथ ही कर्म-संग के त्याग , सुख-दुख,शीत-उष्ण,जय-पराजय के समत्व के योग और सब भूतों में एक अव्यव भाव का सुरीला दर्शन ,उसकी वाणी में सुन सकते हैं . संसार में एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया.
वाणी की देवी द्रौपदी से कृष्ण का संबंध कैसा था. क्या सखा – सखी का संबंध स्वयं एक अन्तिम सीढ़ी और असीम मैदान है , जिसके बाद और किसी सीढ़ी और मैदान की जरूरत नहीं ? कृष्ण छलिया जरूर था , लेकिन कृष्णा से उसने कभी छल न किया. शायद वचन – बद्ध था , इसलिए. जब कभी कृष्णा ने उसे याद किया , वह आया. स्त्री – पुरुष की किसलय – मित्रता को , आजकल के वैज्ञानिक , अवरुद्ध रसिकता के नाम से पुकारते हैं. यह अवरोध सामाजिक या मन के आन्तरिक कारणों से हो सकता है.

पांचों पाण्डव कृष्ण के भाई थे और द्रौपदी कुरु – पांचाल संधि की आधार- शिला थी. अवरोध के सभी कारण मौजूद थे. फिर भी , हो सकता है कि कृष्ण को अपनी चित्तप्रवृत्तियों का कभी विरोध न करना पड़ा हो. यह उसके लिए सहज और अंतिम संबंध था अगर यह सही है , तो कृष्ण – कृष्णा के सखा – सखी संबंध के ब्योरे पर दुनिया में विश्वास होना चाहिए और तफ़सील से , जिससे से स्त्री – पुरुष संबंध का एक नया कमरा खुल सके. अगर राधा की छटा निराली है, तो कृष्ण की घटा भी. छटा में तुष्टिप्रदान रस है , घटा में उत्कंठा-प्रधान कर्त्तव्य. राधा – रस तो निराला है ही. राधा – कृष्ण एक हैं , राधा – कृष्ण का स्त्री रूप और कृष्ण राधा का पुरुष रूप. भारतीय साहित्य में राधा का जिक्र बहुत पुराना नहीं है , क्योंकि सबसे पहली बार पुराण में आता है ” अनुराधा ” के नाम से. नाम ही बताता है प्रेम और भक्ति का वह स्वरूप , जो आत्म विभोर है , जिससे सीमा बांधने वाली चमड़ी रह नहीं जाती.

आधुनिक समय में मीरा ने भी उस आत्मविभोरता को पाने की कोशिश की.बहुत दूर तक गयी मीरा , शायद उतनी दूर गयी जितना किसी सजीव देह को किसी याद के लिए जाना संभव हो.फिर भी , मीरा की आत्मविभोरता में कुछ गर्मी थी. कृष्ण को तो कौन जला सकता है , सुलझा भी नहीं सकता , लेकिन मीरा के पास बैठने में उसे जरूर कुछ पसीना आये , कम से कम गर्मी तो लगे.राधा न गरम है , न ठंडी , राधा पूर्ण है.मीरा की कहानी एक और अर्थ में बेजोड़ है.पद्मिनी मीरा की पुरखिन थी.दोनों चित्तौड़ की नायिकाएं हैं.करीब ढाई सौ वर्ष का अन्तर है. कौन बड़ी है , वह पद्मिनी जो जौहर करती है या वह मीरा जिसे कृष्ण के लिए नाचने से कोई मना न कर सका. पुराने देश की यही प्रतिभा है. बड़ा जमाना देखा है इस हिन्दुस्तान ने. क्या पद्मिनी थकती – थकती सैंकड़ों बरस में मीरा बन जाती है ? या मीरा ही पद्मिनी का श्रेष्ठ स्वरूप है ? अथवा जब प्रताप आता है , तब मीरा फिर पद्मिनी बनती है. हे त्रिकालदर्शी कृष्ण ! क्या तुम एक ही में मीरा और पद्मिनी नहीं बन सकते ?

राधा – रस का पूरा मजा तो ब्रज – रज में मिलता है. मैं सरयू और अयोध्या का बेटा हूं. ब्रज – रज में शायद कभी न लौट सकूंगा. लेकिन मन से तो लौट चुका हूं.श्री राधा की नगरी बरसाने के पास एक रात रह कर मैंने राधारानी के गीत सुने हैं. कृष्ण बड़ा छलिया था.कभी श्यामा मालिन बन कर , राधा को फूल बेचने आता था.कभी वैद्य बन कर आता था , प्रमाण देने कि राधा अभी ससुराल जाने लायक नहीं है. कभी राधा प्यारी को गोदाने का न्योता देने के लिए गोदनहारिन बन कर आता था. कभी वृन्दा की साड़ी पहन कर आता था और जब राधा उससे एक बार चिपट कर अलग होती थी , शायद झुंझला कर , शायद इतरा कर , तब श्री कृष्ण मुरारी को ही छट्ठी का दूध याद आता था , बैठ कर समझाओ राधारानी को कि वृन्दा से आंखें नहीं लड़ायी.
मैं समझता हूं कि नारी अगर कहीं नर के बराबर हुइ है , तो सिर्फ ब्रज में और कान्हा के पास. शायद इसीलिए आज भी हिन्दुस्तान की औरतें वृन्दावन में जमुना के किनारे एक पेड़ में रुमाल जितनी चुनड़ी बांधने का अभिनय करती हैं. कौन औरत नहीं चाहेगी कन्हैया से अपनी चुनड़ी हरवाना , क्योंकि कौन औरत नहीं जानती कि दुष्ट जनों द्वारा चीर हरण के समय कृष्ण ही उनकी चुनड़ी अनन्त करेगा. शायद जो औरतें पेड़ में चीर बांधती हैं , उन्हें यह सब बताने पर वह लजाएंगी , लेकिन उनके पुत्र पुण्य आदि की कामना के पीछे भी कौन – सी सुषुप्त याद है.
ब्रज की मुरली लोगों को इतना विह्वल कैसे बना देती है कि वे कुरुक्षेत्र के कृष्ण को भूल जायें और फिर मुझे तो लगता है कि अयोध्या का राम मनीपुर से द्वारका के कृष्ण को कभी भुलाने न देगा.जहां मैंने चीर बांधने का अभिनय देखा उसी के नीचे वृन्दावन के गंदे पानी का नाला बहते देखा , जो जमुना से मिलता है और राधा रानी के बरसाने की रंगीली गली में पैर बचा – बचा कर रखना पड़ता है कि कहीं किसी गंदगी में न सन जाये. यह वही रंगीली गली है , जहाँ से बरसाने की औरतें हर होली पर लाठी ले कर निकलती हैं और जिनके नुक्कड़ पर नन्द गांव में मर्द मोटे साफे बांध और बड़ी ढालों से अपनी रक्षा करते हैं.

राधा रानी अगर कहीं आ जाए , तो वह इन नालों और गंदगियों को तो खतम करे ही , बरसाने की औरतों के हाथ में इत्र , गुलाल और हल्के , भीनी महक वाले , रंग की पिचकाली थमाये और नन्द गांव के मरदों को होली खेलने के लिए न्योता दे. ब्रज में महक और नहीं है, कुंज नहीं है , केवल करोल रह गये हैं. शीतलता खतम है. बरसाने में मैंने राधारानी की अहीरिनों को बहुत ढूंढ़ा. पांच – दस घर होंगे. वहां बनियाइनों और ब्राह्मणियों का जमाव हो गया है , जब किसी जात में कोई बड़ा आदमी या बड़ी औरत हुई , तीर्थ – स्थान बना और मंदिर और दुकानें देखते – देखते आयीं , तब इन द्विज नारियों के चेहरे भी म्लान थे , गरीब , कृश और रोगी , कुछ लोग मुझे मूर्खतावश द्विज – शत्रु समझने लगे हैं. मैं तो द्विज – मित्र हूं , इसलिए देख रहा हूं कि राधारानी की गोपियां , मल्लाहिनों और चमाइनों को हटा कर द्विजनारियों ने भी अपनी कांति खो दी है. मिलाओ ब्रज की रज में पुष्पों की महक , दो हिन्दुस्तान को कृष्ण की बहुरूपी एकता , हटाओ राम का एक रूपी द्विज – शूद्र धर्म , लेकिन चलो राम के मर्यादा वाले रास्ते पर , सच और नियम पालन कर .

सरयू और यमुना कर्त्तव्य की नदियां हैं. कर्त्तव्य कभी – कभी कठोर हो कर अन्यायी हो जाता है और नुकसान कर बैठता है.जमुना और चंबल , केन तथा दूसरी जमुना – मुखी नदियां रस की नदियां हैं. रस में मिलन है , कलह मिटाता है. लेकिन लास्य भी है , जो गिरावट में मनुष्य को निकम्मा बना देता है. इसी रसभरी इतराती जमुना के किनारे कृष्ण ने अपनी लीला की , लेकिन कुरु धुरी का केन्द्र उसने गंगा के किनारे ही बसाया. बाद में , हिन्दुस्तान के कुछ राज्य जमुना के किनारे बने और एक अब भी चल रहा है.जमुना क्या तुम कभी बदलोगी , आखिर गंगा में ही तो गिरती हो. क्या कभी इस भूमि पर रसमय कर्त्तव्य का उदय होगा.कृष्ण ! कौन जाने तुम थे या नहीं.कैसे तुमने राधा – लीला को कुरु लला से निभाया. लोग कहते हैं कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नहीं. बताते हैं कि महाभारत में राधा का नाम तक नहीं. बात इतनी सच नहीं , क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण की पुरानी बातें साधारण तौर पर बिना नामकरण के बतायी हैं. सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नहीं किया करते , जो समझते हैं वे , और जो नहीं समझते हैं वे भी. महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता है. राधा का वर्ण्न तो वही होगा जहां तीन लोक का स्वामी उसका दास है. रास का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक हैं. न जाने हजारों वर्ष से अभी तक पलड़ा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है ? बताओ कृष्ण !

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