फिक्शन में साल की सबसे खूबसूरत फिल्म ‘ए डेथ इन दि गंज’
मिहिर पंड्या, फिल्म क्रिटिक मेरे लिए फिक्शन में साल की सबसे खूबसूरत फिल्म ‘ए डेथ इन दि गंज’ तथा नॉन-फिक्शन में ‘एन इनसिग्निफिकेंट मैन’ रही. पर पता नहीं आलोचक इन्हें हिंदी फिल्में मानेंगे भी या नहीं. लेकिन, इन दोनों फिल्मों ने आधुनिक भारतीय समाज आैर उसकी दो सबसे आधारभूत संरचनाअों ‘परिवार’ आैर ‘चुनाव’ में छिपी […]
मिहिर पंड्या, फिल्म क्रिटिक
मेरे लिए फिक्शन में साल की सबसे खूबसूरत फिल्म ‘ए डेथ इन दि गंज’ तथा नॉन-फिक्शन में ‘एन इनसिग्निफिकेंट मैन’ रही. पर पता नहीं आलोचक इन्हें हिंदी फिल्में मानेंगे भी या नहीं. लेकिन, इन दोनों फिल्मों ने आधुनिक भारतीय समाज आैर उसकी दो सबसे आधारभूत संरचनाअों ‘परिवार’ आैर ‘चुनाव’ में छिपी छुद्रताअों आैर संभावनाअों, वादों आैर छलनाअों को जिस खूबसूरती से खोला, कोई अन्य हिंदी फिल्म ऐसा नहीं कर पायी.
एक असहज करनेवाले ट्रेंड में इस साल कई ‘रेप रिवेंज ड्रामा’ फिल्में देखी गयीं. हिंदी में ‘काबिल’, ‘भूमि’, ‘मॉम’ आैर ‘मातृ’ जैसी फिल्में देखी गयीं, उधर मराठी फिल्म ‘अज्जी’ पर फेस्टिवल सर्किल्स में जमकर बहस हुई. यह फिल्में सकारात्मक संकेत हैं कि दिसंबर 2012 के बाद स्त्री स्वातंत्र्य आैर सुरक्षा के प्रश्न भारतीय जनमानस की चिंताअों के केंद्र में आये हैं. लेकिन, सार्वजनिक जीवन में स्त्री अधिकार आैर बराबरी पर बहस को बदले की अापराधिक कहानियों तक सीमित कर देना अंतत: कल्पनाशीलता की हार है. इसके बरक्स ‘अनारकली आॅफ आरा’ आैर ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ जैसी फिल्में ‘पिंक’ की खींची उजली लकीर को लंबा करनेवाली साबित हुईं.
पहली बार फिल्म निर्देशित कर रहे अविनाश दास आैर अलंकृता श्रीवास्तव ने अपनी फिल्मों में गजब के आत्मविश्वास के साथ मुखरता से अपनी बात रखी. स्वतंत्र प्रयासों से बनी ‘अनारकली आॅफ आरा’ तथा रिलीज के लिए सीबीएफसी की मध्ययुगीन सोच से लड़नेवाली ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ असहज करनेवाली फिल्में हैं. वे अपनी भाषा में लाउड लगती हैं, बेशक बहसतलब फिल्में हैं. लेकिन, दोनों ही बिना किसी अपराधबोध के अपनी कथा नायिकाअों की आकांक्षाअों आैर अधिकारों को सामने रखती हैं. बताती हैं कि स्त्री के लिए हर व्यक्तिगत ‘ना’ भी राजनीतिक लड़ाई है आैर हर निजी ‘हां’ भी. पर्सनल इज आॅलवेज पॉलिटिकल. इन्हीं दोनों फिल्मों से सबसे शानदार अभिनय की सूची में सबसे ऊपर रत्ना पाठक शाह आैर स्वरा भास्कर का नाम चमकता रहेगा. इससे इतर अभिनय में ये साल राजकुमार राव का रहा. संयोग कुछ ऐसा बना कि इस कैलेंडर ईयर में आश्चर्यजनक रूप से उनकी सात फिल्में रिलीज हुईं. इनमें आॅल्ट बालाजी की महत्वाकांक्षी डिजिटल सीरीज ‘बोस- डेड आॅर अलाइव’ को भी जोड़ लें, तो राजकुमार छाये रहे हैं. लेकिन, इस क्वांटिटी ने उनके काम की क्वाॅलिटी पर जरा भी आंच नहीं आने दी.
‘ट्रैप्ड’ आैर ‘बरेली की बर्फी’, दोनों ही फिल्मों में उनके किरदार ने जो संपूर्ण कैरेक्टर ग्राफ जिया है, उसके लिए नामी अभिनेता सालों तरसते हैं. साल की सबसे उल्लेखनीय फिल्म ‘न्यूटन’ में वह नायक रहे आैर परदे पर उनकी पंकज त्रिपाठी के साथ जुगलबंदी इस साल की सबसे बेहतरीन अभिनय प्रदर्शनी थी. पंकज त्रिपाठी को भी याद रखा जायेगा. स्टारपुत्रों से भरी इस फिल्मी नगरी में उन्होंने अनुभवों की घोर तपस्या से हासिल हुई अपनी अभिनय की पूंजी को स्टार बनाया है.
हॉलीवुड की चुनौती लगातार बड़ी होती जा रही है. इस साल भी कई बेसिर-पैर की हॉलीवुड ब्लॉकबस्टर्स ने भारतीय बॉक्स आॅफिस पर करोड़ों रुपये कमाये. इस साल यह आकर्षण दीपिका पादुकोण आैर प्रियंका चोपड़ा जैसी सेल्फमेड मुख्यधारा नायिकाअों को भी ‘रिटर्न आॅफ जेंडर केज’ आैर ‘बेवाच’ जैसी वाहियात फिल्मों की अोर ले गया. तकनीक आैर पैसे के बल पर इससे जीतना मुश्किल है. यह ऐसी चुनौती है, जिसका मुकाबला हिंदी सिनेमा मौलिक कंटेंट के द्वारा ही कर सकता है, करता आया है. अपनी जड़ों की आैर बेहतर पहचान तथा जमीन से निकली मौलिक कहानियां ही इस हॉलीवुड के हमले से बचा सकती हैं.
इधर इंडस्ट्री में बहुत से लोग ‘नेटफ्लिक्स’ आैर ‘अमेजन’ जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को बहुत उम्मीद की नजर से देख रहे हैं. प्रचार के लिए बड़े पैसे के खेल में फंसे बॉलीवुड के बरक्स मौलिक कंटेंट के लिए इन्हें सबसे मुफीद माना जा रहा है. साल 2017 में इनकी पहली धमक भारतीय बाजार में सुनायी दी. ‘अमेजन’ ने रिचा चड्ढा आैर विवेक आेबराय अभिनीत ‘इनसाइड ऐज’ के साथ मौलिक कंटेंट की दुनिया में कदम रखा. अगले साल नवाजुद्दीन सिद्दीकी, इरफान खान आैर सैफ अली खान जैसे सितारा अभिनेता स्पेशली डिजिटल मीडियम के लिए तैयार सीरीज में नजर आनेवाले हैं. लेकिन, यहां भी सावधान रहने की जरूरत है. भारतीय सिनेमा की ताकत इसकी विविधता आैर कुछ हद तक अराजक लगती अव्यवस्थित उर्वर जमीन है. उस तमाम रचनाशीलता को किसी एक हाथ में दे देना भविष्य में घातक भी साबित हो सकता है. कहीं हमारे सिनेमा का भी वही हश्र ना हो, जो आज नयी सदी में हमारे टेलीविजन का हुआ है.