नाट्य महोत्सव और भारतीय रंगमंच
अमितेश , रंगकर्म समीक्षक कला माध्यमों में रंगमंच अपने समय में सबसे सशक्त हस्तक्षेप करता है, क्योंकि यह वर्तमान की कला है और इस पर प्रासंगिक होने का दबाव भी बहुत है. लेकिन, प्रस्तुति-दर-प्रस्तुति हम देखते हैं कि रंगमंच बिना किसी सुनयोजित दृष्टि के हो रहा है, करनेवाले खुद भ्रम में रहते हैं कि वह […]
अमितेश , रंगकर्म समीक्षक
कला माध्यमों में रंगमंच अपने समय में सबसे सशक्त हस्तक्षेप करता है, क्योंकि यह वर्तमान की कला है और इस पर प्रासंगिक होने का दबाव भी बहुत है. लेकिन, प्रस्तुति-दर-प्रस्तुति हम देखते हैं कि रंगमंच बिना किसी सुनयोजित दृष्टि के हो रहा है, करनेवाले खुद भ्रम में रहते हैं कि वह नाटक क्यों कर रहे हैं. इससे प्रस्तुतियों की संख्या बढ़ती रहती है, लेकिन ऐसी प्रस्तुतियां कम होती हैं, जिसे हम साल के अंत में उल्लेखनीय कह सकें. रंगमंच में एक प्रस्तुति को आकार लेने में भी समय लगता है और यह समय आज के रंगकर्मी देने के लिए तैयार नहीं है. फिर भी कुछ निर्देशक प्रयास करते हैं कि वह अपनी प्रस्तुतियां ऐसे करें, जिनमें उनका समय प्रतिबिंबित हो, समय के सवाल दर्ज हों और वे लंबे समय तक चले भीं.
फिरोज अब्बास खान के निर्देशन में ‘मुगल-ए-आजम’ की प्रस्तुति ने भव्यता के प्रतिमान गढ़े और कथ्य की धार भी ऐसी रखी, जिसमें हमारा समय प्रतिबिंबित हुआ. हेमंत पांडेय निर्देशित ‘लहसनवाला’ और रणधीर निर्देशित ‘आउटकास्ट’ में जाति की समस्या को दो भिन्न दृष्टियों से संबोधित किया गया. ‘लहसनवाला’ जहां एक पतनशील ब्राह्मण परिवार के जड़ मूल्यों के जरिये इस समस्या को देखता है, वहीं ‘आउटकास्ट’ में वर्ण व्यवस्था के बाहर की जाति से संबंध रखनेवाले शरण कुमार लिंबाले की आत्मकथा के माध्यम से. पूर्वा नरेश निर्देशित ‘बंदिश 20 से 20,000 हर्ट्ज’ हिंदुस्तानी संगीत में हुए पिछले डेढ़ सदी के बदलावों की संगीतमय यात्रा को गायकों की तीन पीढ़ियों के संवाद के जरिये पेश करती है. वहीं दिलीप गुप्ता ‘नेटुआ’ में बिहार के लौंडा नाच शैली के कलाकार के संघर्ष को दिखाते हैं. काॅरपोरेट कल्चर, नौकरी करनेवालों की असुरक्षा, काम करने के तरीके, उनके तनाव को आकर्ष खुराना ने ‘धूम्रपान’ में स्मोकिंग रूम में होनेवाली बातचीत में रोचकता से दर्ज किया है. जयंत देशमुख निर्देशित विवि शिरवाडकर के नाटक ‘नटसम्राट’ में आलोक चटर्जी अपने अभिनय का लोहा मनवाते हैं.
इस साल की शुरुआत में एनएसडी में नंदकिशोर आचार्य के नाटक ‘देहांतर’ की प्रस्तुति में निर्देशक त्रिपुरारी शर्मा ने देह, भोग, यौवन के शाश्वत विमर्श को सत्ता संरचना के केंद्र में रखकर व्याख्यायित किया और भोग के मनोविज्ञान को उद्घाटित किया. अनुरूपा राय निर्देशित ‘महाभारत’ और अभिषेक मजूमदार निर्देशित ‘मुक्तिधाम’ चर्चित प्रस्तुतियां रहीं.
इस साल दिल्ली सरकार के अंतर्गत साहित्य कला परिषद का विज्ञापन विवादों में रहा जिसमें रंगकर्मियों के लिए प्रस्तुति योग्य विषयों का निर्देश था, लेकिन विवाद के बाद इस पर अनधिकारिक रूप से अमल नहीं किया गया. आठवें थियेटर ओलंपिक की मेजबानी भारत को मिल गयी. इसको 2017 में रंगमंच की सबसे बड़ी घटना के तौर पर प्रचारित किया गया, लेकिन तैयारी की शुरुआत में ही विवादों ने स्वागत किया, जब ओलंपिक की अंतरराष्ट्रीय आयोजन समिति ने रतन थियम के फेस्टिवल निदेशक नहीं रहने की सूरत में आयोजन से अलग होने की चिट्ठी एनएसडी को भेजी. रतन थियम एनएसडी सोसाइटी के अध्यक्ष पद से अपना कार्यकाल समाप्त कर चुके थे. चूंकि प्रेस के सामने संस्कृति मंत्री ने खुद घोषणा की थी, तो रतन थियम को मनाया गया और आयोजन का मार्ग प्रशस्त हुआ. अब इसका भारतीय रंगमंच पर क्या असर पड़ता है, यह 2018 में पता चलेगा. पिछले कुछ सालों में इसके नाटकों के चयन में ऐसा ढीलापन आया है कि दर्शक इससे छिटकते जा रहे हैं.
भारतीय रंगमंच आजकल महोत्सवों से चलता है, जिसमें प्रस्तुति करने की प्रेरणा से रंगकर्मी नाटक तैयार करते हैं. आर्थिक सुधारों का असर रंग महोत्सवों पर भी पड़ा और कुछ देरी से आयोजित हुए या उनका आकार छोटा हुआ. संजय उपाध्याय के रंगकर्म पर पटना, इंदौर और उज्जैन में उत्सव का आयोजन हुआ. मध्य प्रदेश के शहर सीधी के रंगकर्मियों ने सक्रिय रंगकर्म से देश का ध्यान खींचा है. इस साल अरुण कुकरेजा और टॉम आल्टर का निधन हुआ, टॉम रंगमंच में सर्वाधिक सक्रिय अभिनेताओं में से थे. आधुनिक रंग प्रयोगों की शरणस्थली पृथ्वी थियेटर को बनानेवाले अभिनेता शशि कपूर का देहांत भी रंगमंच की बड़ी क्षति है.