वर्ष 2018 में आपका स्वागत है. हम उम्मीद करते हैं कि इस वर्ष आप सभी को जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का भी जश्न मनाने का अवसर मिले. नव वर्ष की पहली सुबह की तरह इस वर्ष का हर सवेरा उत्साह से भरा हो. इन्हीं उम्मीदों और प्रेरणादायी कथाओं के साथ चलिए हम नव वर्ष का शुभारंभ करें.
संग्रह की भावना से समाज में पैदा होती है विषमता
एक बार गांधीजी के पौत्र कांति भाई सेवा ग्राम में आश्रमवासी होने आये. उन्होंेने गांधीजी से निवेदन किया, बापू, दो धोतियों से काम नहीं चलेगा, कम-से- कम एक धोती और दी जाए. गांधी जी ने कहा, दो धोतियों में तो मेरा और सभी आश्रमवासियों का अच्छी तरह काम चल जाता है, तुम्हें तीसरी धोती की जरूरत क्यों? यहां हम सब काफी सादगी से रहते हैं.
कांति भाई ने गांधीजी को आश्वस्त करना चाहा कि प्रवास आदि के लिए एक धोती साथ में अतिरिक्त रखी जाए, तो ठीक रहेगा. लेकिन गांधीजी ने कांति भाई से साफ कह दिया कि यह देश का काम है, जनता को पाई-पाई का हिसाब देना होता है. गांधीजी का यह व्यवहार देख कर वहां मौजूद एक पत्रकार ने उनसे पूछा, बापू एक धोती की ही तो बात है.
इस छोटी-सी बात पर इतना जोर क्यों? गांधीजी ने तब उन सज्जन को कहा, इसे छोटी-सी बात मत समझो. यह संस्कारों की बात है. संग्रह की भावना इसी से उपजती है और समाज में विषमता पैदा करती है. हम कहते हैं कि हमारा काम गरीबों की सेवा करना है, तो उसका अर्थ है कि हम जनता से अल्प से अल्प प्राप्त करें और बदले में अधिक से अधिक दें.
जरूरतमंद की मदद करना ही है ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा
महाराष्ट्र के विख्यात संत एकनाथ एक बार प्रयाग के त्रिवेणी संगम से कांवड़ में जल भर कर अपने साथी संतों के साथ रामेश्वरम जा रहे थे. संतों का यह समूह, यात्रा के मध्य में ही था कि मार्ग में एक गधा दिखाई दिया. वह प्यास से तड़प रहा था और चल भी नहीं पा रहा था.
सभी के मन में दया उपजी, किंतु उनके कांवड़ का जल तो रामेश्वरम के निमित्त था इसलिए सबने मन को कड़ा कर लिया, लेकिन एकनाथ से रहा नहीं गया. उन्होंने तत्काल अपनी कांवड़ से पानी निकाल कर गधे को पिला दिया. प्यास बुझने के बाद गधे को मानो नवजीवन प्राप्त हो गया. वह उठ कर सामने घास चरने लगा. संतों ने एकनाथ से कहा, आप तो रामेश्वरम जाकर तीर्थ जल चढ़ाने से वंचित हो गये. एकनाथ बोले, ईश्वर तो सभी जीवों में व्याप्त है.
मैंने कांवड़ से एक प्यासे जीव को पानी पिलाकर उसकी प्राण की रक्षा की. इसी से मुझे रामेश्वरम जाने का पुण्य मिल गया. वस्तुत: धार्मिक विधि-विधानों के पालन से बढ़ कर मानवीयता का पालन है, जिसके निर्वाह पर ही सच्चा पुण्य प्राप्त होता है. सभी धर्मग्रंथों में परोपकार को श्रेष्ठ धर्म माना गया है. सही मायने में परोपकार से ही पुण्य फलित होता है.
पत्नी के लिए जुटाया गया धन अस्पताल को दिया
एक बार मौलाना अबुल कलाम को अंग्रेज सरकार ने अहमदाबाद की जेल में बंद कर दिया था. इसी दौरान कोलकाता में उनकी पत्नी का अवसान हो गया. उन्होंने इस दुख को शांति से झेला. कृतज्ञ राष्ट्रवासियों ने बेगम आजाद की स्मृति में एक स्मारक बनाने का निश्चय किया और इस कार्य को अंजाम देने के लिए बेगम आजाद स्मृति कोष बना कर धन एकत्रित करना प्रारंभ कर दिया.
धीरे-धीरे कोष में धन इकट्ठा होता रहा और मौलाना आजाद के जेल से बाहर आने तक उसमें बड़ी रकम जमा हो गयी. आजाद की रिहाई के बाद उन्हें इस कोष के बारे में बताया गया.
उन्हें जब इस तरह चंदे से धन इकट्ठा करने और उसके पीछे के मकसद का पता चला तो वे बहुत नाराज हुए. उन्होंने कहा, इसी समय यह सब बंद कर दीजिए. कोष में अब तक जमा हुई रकम इलाहाबाद के कमला नेहरू अस्पताल को दे दी जाए.
मौलाना जी की इस बात को सिर माथे पर लिया गया और सारा एकत्र धन कमला नेहरू अस्पताल को दे दिया गया. यह मौलाना अबुल कलाम आजाद का देशप्रेम था जिसने उन्हें देश का धन लोकहित में व्यय करने हेतु प्रेरित किया.
देने का आनंद, पाने के आनंद से बहुत बड़ा होता है
अमेरिका में प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ा एक प्रसंग है. भ्रमण करने और भाषण देने के बाद स्वामी जी अपने निवास स्थान पर आराम करने के लिए लौटे थे.
वे अपने ही हाथों से वहां भोजन बनाते थे. भोजन करने की तैयारी कर ही रहे थे कि कुछ बच्चे उनके पास आकर खड़े हो गये. उनके कुशल व्यवहार के कारण काफी संख्या में बच्चे उनके पास आते थे. वहां पहुंचे सभी बच्चे भूखे थे. बच्चों की स्थिति को देख कर स्वामी जी ने तैयार अपना सारा भोजन उनके बीच बांट दिया. वहीं पर बैठी एक महिला सभी क्रियाकलाप को ध्यान से देख रही थी.
उसके मन एक बात घूमने लगी कि आखिर स्वामी जी अब क्या खायेंगे. उसने स्वामी जी से आश्चर्य से पूछा कि आपने सारा भोजन बच्चों को दे दिया, आप क्या खायेंगे? महिला के प्रश्न पर विनम्रता से स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, रोटी तो मात्र पेट की आग शांत करनेवाली वस्तु है. इस पेट में न सही, तो बच्चों के पेट में ही सही. यानी, देने का आनंद, पाने के आनंद से बहुत बड़ा होता है. अपने बारे में सोचने से पहले दूसरों के बारे में सोचना ज्यादा सुखदायक होता है.
प्रगति में समय की पाबंदी महत्वपूर्ण
गांधीजी के साबरमती आश्रम में प्रवास के दौरान ग्रामीण इलाके के कुछ लोग मुखिया के साथ बापू के पास आये और कहा कि कल हमारे गांव में एक सभा होनी है.गांधी जी ने पूछा कि सभा का समय कब है? मुखिया ने कहा, चार बजे निश्चित किया गया है.
इसके बाद उन्होंने अनुमति दे दी. मुखिया ने कहा, मैं गाड़ी से एक व्यक्ति को भेज दूंगा, जो आपको ले आयेगा. गांधी जी मुस्कराते हुए बोले, कल तय समय पर मैं तैयार रहूंगा. अगले दिन जब पौने चार बजे तक कोई नहीं पहुंचा, तो गांधी जी चिंतित हो गये. उन्होंने सोचा अगर मैं समय से नहीं पहुंचा, तो लोग क्या कहेंगे. कुछ समय बाद मुखिया गांधी जी को लेने आश्रम पहुंचा, तो उन्हें वहां नहीं पाकर आश्चर्य हुआ. लेकिन, वह क्या कर सकते थे. मुखिया सभा स्थल पर पहुंचे, तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि गांधीजी भाषण दे रहे हैं. गांधीजी साइकिल से वहां पहुंचे थे. मुखिया बहुत शर्मिंदा हुआ. उन्हें एहसास हुआ कि समय मूल्यवान होता है.
मन के बदलाव से है धर्म का संबंध
पंद्रह सौ वर्ष पूर्व बोधिधर्म नामक एक भिक्षु चीन की यात्रा पर गया. उस वक्त चीन का राजा वू था. राजा ने पूरे देश में बहुत सारे मंदिर बनवाये थे, मूर्तियां लगवायी थीं. जब उसने सुना कि भारत से विलक्षण योगी आया है, तो वह उसके स्वागत के लिए आया. बोधिधर्म के पहले जितने भी भिक्षु चीन आये, सभी ने राजा वू से कहा, तुम अत्यंत धार्मिक हो, बहुत पुण्यशाली हो, स्वर्ग में तुम्हारा स्थान सुरक्षित है. खुश होकर राजा भिक्षुकों को निशुल्क भोजन कराता था. जब वह बोधिधर्म से मिला तो स्वागत की औपचारिकता पूरी होने के बाद उसने एकांत में बोधिधर्म से पूछा, मैंने मंदिर बनवाये, इससे मुझे क्या मिलेगा?
बोधिधर्म ने कहा- कुछ भी नहीं. राजा चौंका, फिर बोला- ऐसा क्यों? तब बोधिधर्म ने कहा, चूंकि तुमने पाने की इच्छा से सारे धर्म-कर्म किये और इसका तुम्हें अहंकार भी है. इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. धर्म का संबंध तो मन के बदलने से है.