9.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आदिवासी ज्ञान-परंपरा को सहेजने की है जरूरत

II सावित्री बड़ाईक II भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों के आदिवासियों ने स्थानीय परिवेश व प्रकृति के साहचर्य में अपनी ज्ञान-परंपरा को विकसित किया है. अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए आदिवासी पांच हजार वर्षों से निरंतर संघर्षरत हैं. आदिवासी जनों का सीधा जुड़ाव जल, जंगल, जमीन, जैव-विविधता, जड़ी-बूटियों, जीव-जंतुअों, जलस्रोतों से होता है. […]

II सावित्री बड़ाईक II

भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों के आदिवासियों ने स्थानीय परिवेश व प्रकृति के साहचर्य में अपनी ज्ञान-परंपरा को विकसित किया है. अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए आदिवासी पांच हजार वर्षों से निरंतर संघर्षरत हैं. आदिवासी जनों का सीधा जुड़ाव जल, जंगल, जमीन, जैव-विविधता, जड़ी-बूटियों, जीव-जंतुअों, जलस्रोतों से होता है.

सिंचाई के लिए छोटानागपुर और संथालपरगना में बांध-आहर की प्रणाली थी. ये बांध या आहर आदिवासियों के सामूहिक जीवन और सामाजिक संगठन पर आधारित होते थे. इस प्रणाली का पतन आदिवासियों के सामाजिक संगठन के टूटने के साथ प्रारंभ हो गया, क्योंकि इनका निर्माण और रख-रखाव गांव के लोग मिलजुल कर सामूहिक रूप से करते थे.

छोटानागपुर की पहाड़ियों में पानी के अनगिनत स्रोत थे. चट्टानों के नीचे पझरा बन कर रिसते रहते थे. हमारे पुरखों ने सामूहिक श्रम से अपने क्षेत्र में जल-प्रबंधन करके भावी पीढ़ी के लिए अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है.

बेड़ो के पड़हा राजा पद्मश्री सिमोन उरांव ने 144 एकड़ क्षेत्र जंगल को हरा करके और छोटे बांध बना कर और नालों का पानी खेतों तक पहुंचा कर पूरे क्षेत्र में क्रांति ला दी है.आदिवासी जो जल प्रबंधन करते हैं उससे जल तो स्वच्छ रहता ही है, साथ ही भूजल अर्थात भूमिगत जल पर दबाव नहीं पड़ता. सूखे और जल संकट की समस्या से भा बचाव होता है.

मैंने सिमडेगा के संसवई का बांध देखा है जिससे नीचे के सारे खेत बरसात के बाद भी चने की खेती के लिए उपयुक्त होते हैं और इसकी अच्छी खेती होती है. उसी तरह झुनमुर (बीरमित्रापुर) के रानीबांध से आसपास के खेतों को अच्छी नमी मिलती है. बागवानी के साथ-साथ अन्य फसलें भी अच्छी होती हैं. कहने का आशय यह है कि तालाब, डाड़ी या आहर आदिवासी क्षेत्रों के परंपरागत सिंचाई प्रणाली का अच्छा उदाहरण है.

सभी आदिवासी क्षेत्रों के लोग बीजों की प्रजातियों के चयन में स्थानीय भूमि, संस्कृति और पारिस्थितिकी का ख्याल रखते हैं. मौसम और स्थान परिवेश के अनुरूप बीजों का चयन करते हैं.

पारंपरिक बीजों का संग्रहण और प्रयोग सदियों से किया जा रहा है और प्राकृतिक तरीकों से ही फसलों को बीमारियों और तरह-तरह के कीटों से बचाया जा रहा है. कम पानी और तेज गर्मी में भी इनकी उत्पादकता समाप्त नहीं होती है. जैविक खाद बनाने के लिए गोबर, पत्ते और घर की बची सब्जियों का प्रयोग किया जाता था. धान के खेतों में करम के दूसरे दिन कीटों से बचाव के लिए भेलवा की टहनियां डाली जाती हैं.

इससे धान की बालियों तरह-तरह के कीटों से पूरी तरह सुरक्षित हो जाती हैं. खाद में भी करंज के फूल मिलाये जाते हैं जिससे खेतों के अनावश्यक कीट खेती को नुकसान नहीं पहुंचाते. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीज आदिवासी क्षेत्रों में पहुंचने से उनके पारंपरिक बीज प्रभावित हो रहे हैं. हमें धान, मकई, महुआ, गंगई, गोंदली, अरहर, कुरथी, जटंगी, गोड़ा धान पुरखों से मिले थे. नये किस्म के बीजों से खेती का स्वरूप भी छटका में संग्रहित करते हैं.

अकाल के समय बंगाल के बड़े हिस्से में भूख से लाखों लोग मर गये परंतु छोटानागपुर और संथालपरगना में आदिवासियों की भूख से मौत नहीं हुई. इसका पहला कारण तो यह है कि उन्होंने अपने खेतों की सिंचाई के लिए स्थानीय परिवेश के अनुसार वर्षा, जल और पानी के प्राकृतिक स्रोतों के आधार पर खेतों में सिंचाई की व्यवस्था की थी. कम वर्षा होने पर भी इनकी फसलें मरती नहीं थी.

साथ ही जंगल इनके लिए जीविका के आधार थे. साग-पात, फल-फूल, कंद-मूल, रुगड़ा, मशरूम और जड़ी-बूटी जंगलों से प्राप्त करते थे. छह महीने के भोजन जंगल से और बाकी छह महीने का भोजन खेती से प्राप्त होता था. आदिवासी प्रारंभ से ही जैविक तरीके से खेती करते आये हैं. जंगलों के साथ खेतों की भी सुरक्षा करते आये हैं और अकाल से भी बचते आये हैं. परंतु अब कुपोषण की समस्या आदिवासी क्षेत्र में विशेष देखी जा रही है, जिसका कारण पारंपरिक आहार से दूर होना है और जंगल कटने और खनन के कारण समीन का बंजर होना है.

मानवशास्त्री वेरियर एल्विन ने सुझाव दिया था कि शिक्षा और पाठशालाओं को आदिवासी संस्कृति, परंपरा और सामाजिक संस्थाअों के साथ जोड़ने की आवश्यकता है. इन सबको पाठ्यक्रम में शामिल न किये जाने से आदिवासी विद्यार्थी उस पाठ्यक्रम से स्वयं को जुड़ा हुआ नहीं पाते. आदिवासी क्षेत्रों में विद्यार्थियों के विद्यालय छोड़ने (ड्रॉप आउट) की जो समस्या है उसका एक कारण यह भी है. पंडित नेहरू ने पंचशील में इस बात पर जोर दिया था कि जंगल और जमीन पर आदिवासियों का पूरी तरह हक हो और उनके विकास में उनकी मनोदशा और परंपराओं का ध्यान रखा जाये.

आदिवासी समाज के युवा पीढ़ी को अपने पुरखों के ज्ञान विज्ञान, कला संस्कृति, खान-पान, अौषध ज्ञान, पर्यवारण, मौसम के ज्ञान से परिचित होना आवश्यक है. तभी ये अपनी अानेवाली पीढ़ी को ये सारे ज्ञान हस्तांतरित कर पायेंगे. इससे न सिर्फ उनमें अपनी संस्कृति, अपने समाज के प्रति आत्म गौरव का बोध होगा बल्कि समाज की दूसरी संस्कृतियां भी आदिवासियों में हीन भावना पैदा नहीं कर पायेंगी.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें