राजनीति की बिसात पर सरकारी बैंकों की टूटी कमर
देश में लगातार बनी हुई समस्याओं में हमारे सरकारी बैंकों की अनर्जक परिसंपत्तियों (एनपीए) की विकराल स्थिति सबसे अहम मानी जा सकती है. ये न केवल लगातार नीति-निर्माताओं को उलझाये रखती है, बल्कि आर्थिक समीक्षा की मानें, तो भारत में मृत पड़ी निजी निवेश दरों हेतु भी ये जिम्मेदार है. यह समस्या आयी कहां से, […]
देश में लगातार बनी हुई समस्याओं में हमारे सरकारी बैंकों की अनर्जक परिसंपत्तियों (एनपीए) की विकराल स्थिति सबसे अहम मानी जा सकती है. ये न केवल लगातार नीति-निर्माताओं को उलझाये रखती है, बल्कि आर्थिक समीक्षा की मानें, तो भारत में मृत पड़ी निजी निवेश दरों हेतु भी ये जिम्मेदार है. यह समस्या आयी कहां से, और सरकार बदल जाने के बाद भी बनी कैसे रही, यह समझना आवश्यक है.
सरकारी बैंकों में ज्यादा, निजी में कम
एनपीए की स्थिति को बारीकी से देखें, तो पता चलेगा कि निजी बैंकों की हालत इतनी खराब नहीं रही, जितनी सरकारी बैंकों की. जनवरी, 2018 के आंकड़े बताते हैं कि सरकारी बैंकों का सकल अनर्जक परिसंपत्ति अनुपात (जीएनपीए) लगभग 10 प्रतिशत तक आ गया है. अनेक सरकारी बैंकों का नेट वर्थ ही खत्म हो चुका है और मार्केट में भूकंप केवल इसलिए नहीं आया, क्योंकि इन बैंकों के पीछे संप्रभु गारंटी लिए भारत सरकार खड़ी दिखती है. लेकिन एक बात तय है कि जिस प्रबंधन संस्कृति से सरकारी बैंके चलाये गये हैं,
वह पूरी तरह से सवालों के घेरे में है. हर प्रकार की राजनीतिक दखलंदाजी और ऋण वितरण में ‘क्रेडिट अप्रैजल’ के मानकों का पूरा नहीं किया जाना स्पष्ट दिख रहा है. निजी बैंकों पर दबाव उतना काम नहीं करते, और उनकी बैलेंस शीटों में इसका प्रभाव स्पष्ट दिखता है.
2002 से 2008 के शानदार वर्ष
विश्व में उदारीकरण और वैश्वीकरण से उपजे समृद्धि के असीमित तूफान से जोखिम समाप्त कर अनंत सुख-चैन की दुनिया के निर्माण का सपना 1990 के बाद से ही देखा जाने लगा था. अनेक मायनों में ऐसा हुआ भी. चीन एक महाशक्ति बनने की कगार पर पहुंचा, तो केवल एक खुले विश्व की बदौलत, जिसने उसके निर्यातों को प्यार से गले लगा लिया. भारत भी सूचना-प्रौद्योगिकी शक्ति इसी वजह से बना. 2002 के बाद तो लगने लगा, मानो दुनिया केवल तरक्की ही कर सकती है, और कभी वित्तीय जोखिम जैसी कोई दुर्घटना होगी ही नहीं. उसी अतिरेकी उत्साह (ईरेशनल एक्सयूबरेंस) के चलते भारत में भी, अनेक बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स धड़ाधड़ 2005 के बाद आना शुरू हुए, जिनके लिए बड़े पैमाने पर धन की जरूरत थी. वर्ष 2004-05 में भारतीय बैंकों की काॅरपोरेट लोनबुक रुपये 4.27 लाख करोड़ थी, जो बढ़कर 2014 में रुपये 26.6 लाख करोड़ हो गयी. लेकिन 2017 में यह केवल रुपये 26.8 लाख करोड़ ही रही!
बड़ी गलतियां और बुलबुला फूटा
विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए दुनियाभर में सामान्यतः लॉन्ग टर्म डेवलपमेंट फाइनेंस से काम किया जाता है. उसके विशेष संस्थान भी हैं, मसलन एडीबी, आईएफसी आदि. भारत के सरकारी बैंकों को न तो बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में फंडिंग का अनुभव था, न उनकी उतनी जोखिम-क्षमता ही थी. लेकिन लगातार अतिरेकी उत्साह, विश्व अर्थव्यवस्था में उछाल और सरकारी (राजनीतिक) दखलंदाजी से 2005 के बाद से ऐसे लोन लगातार दिये जाते रहे.
इन सरकारी बैंकों के पास इन प्रोजेक्ट्स के सही आकलन का भी पूरा अनुभव कभी नहीं था. लेकिन उम्मीद यह थी कि सब ठीक चलता रहेगा, प्रोजेक्ट्स बनकर पूरे होंगे, और यूजर चार्जेज आना शुरू होंगे, जिससे लोन चुकते रहेंगे. अनुमान है कि एक ट्रिलियन डॉलर (एक हजार अरब डॉलर) के ऐसे लोन लगातार देते रहने की बात तब आम थी, क्योंकि भारत को उन्नत देशों जैसा इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना था! यह सच था कि हम एक भीषण जोखिम उठा रहे थे.
2008 का सब-प्राइम अमेरिकी धमाका
लेकिन दुनिया में यदि एक सत्य है, तो वह कि लगातार अच्छे दिन कभी बने नहीं रहते! अमेरिका की विस्तारवादी मौद्रिक नीति (जो 2000 के बाद एलन ग्रीनस्पैन लाये थे) उसने ऐसा भूकंप लाया कि पूरी दुनिया हिल उठी. जोश-जोश में धंधा करने वाले अमेरिकी बैंकों ने अनेक बेकार ग्राहकों को लोन बांटें, जो सब-प्राइम बने और अंततः बैंके डूबने लगीं. अंधे वैश्वीकरण की आग अब जलने लगी थी. भारत बचा रहा, क्योंकि हमारी बैंकों ने अमेरिकी प्रतिभूतियों में निवेश नहीं के बराबर किया था,
किंतु आर्थिक मंदी एक बिल्कुल ही अलग शिकार करने वाली थी. जी हां, भारत के विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स भी इस मंदी की चपेट में आ गये, और सारे ग्रोथ के अनुमान धरे के धरे रह गये. तो लोन चुकाना अब संभव नहीं होने वाला था! सरकार ने 2008 के बाद अचानक से रास्ता बदला, और उद्योगों को मंदी से बचाने हेतु अपना खजाना खोला (फिस्कल टारगेट रिलैक्सेशन). वहां से सब बिगड़ने वाला था.
एनपीए का निर्माण
धीरे-धीरे 2010 तक यह स्पष्ट हो गया था कि बड़े-बड़े अनेक अकाउंट धीरे-धीरे एनपीए होते जायेंगे. होना यह चाहिए था कि उस वक्त की यूपीए सरकार को तुरंत ऐसे एकाउंट्स पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर, समाधान खोजना चाहिए था, और इस समस्या को विकराल बनने देना ही नहीं चाहिए था. ऐसा करने से कुछ उद्योगपति अपनी कंपनियों से हाथ धो बैठते, लेकिन एनपीए की समस्या तभी समाप्त हो जाती. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. हर वर्ष बिगड़े हुए लोन आगे बढ़ते रहे. बाद में आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने नाटकीय अंदाज में कहा था कि यह ‘एक्सटेंड एंड प्रिटेंड’ का खेल अब और नहीं चलेगा. अर्थात, बैंक अब ‘आगे बढ़ाओ और नाटक करते रहो’ नहीं कर सकेंगे, चूंकि 2015 से आरबीआई एसेट क्वालिटी रिकग्निशन (एक्यूआर) ले आया था. सारा खेल खत्म होने वाला था. सारे आंकड़े सामने आ गये.
मोदी सरकार का आगमन
जब 2014 में सरकार बदली, तब आर्थिक सुधारों की बड़ी उम्मीद थी. विशेषज्ञ यह मानकर बैठे थे कि दो सुधार तो तुरंत आएंगे. एक श्रम कानून सुधार (सरलीकरण), जिससे नौकरी के अवसरों के पैदा होने का मध्यावधि रास्ता खुलेगा, और दूसरा एनपीए पर तेज हमला होगा, जिससे वह समस्या कम-से-कम विकराल न होने पाती. दुर्भाग्यवश दोनों ही सुधार नहीं हुए! जो एनपीए 2014 में तीन लाख करोड़ रुपये तक थे, वह बढ़ते-बढ़ते 2018 तक करीब 10 लाख करोड़ रुपये हो चुके हैं! वर्ष 2016 में सरकार ने एक दूरगामी कदम उठाते हुए इस समस्या को समाप्त करने हेतु ब्रह्मास्त्र चलाया.
आईबीसी कानून अर्थात दिवालियापन संहिता, जिससे अब बेकार पड़े लोन्स वाली कंपनियों को अंतिम समाधान की ओर ले जाने का अंतिम कानूनी रास्ता खुल गया. यह ऐतिहासिक कदम था, और अब बैंकों को एक-एक कर, अपने खराब पड़े अकाउंट्स को ‘रेसोल्यूशन प्रोसेस’ में लेकर जाना अनिवार्य हो गया! ‘एक्सटेंड एंड प्रिटेंड’ का खेल खत्म. प्रमोटर्स का अपनी कभी लोन न चुकाने वाली कंपनियों पर से नियंत्रण समाप्त! लेकिन इस सबमें बहुत समय जाता गया, और अनेक नये-नये कानूनी और नैतिक सवाल उठते रहे (मसलन उसी प्रमोटर को उसी एनपीए वाली कंपनी की रेसोल्यूशन बोली में हिस्सा लेने-देने या नहीं का अहम प्रश्न).
फिर नये नियम, नये संशोधन और समय का गुजरना. और यह एक न्यायिक प्रक्रिया बन चुकी है, जो अनेक वर्षों में ही सुलझेगी. जो 2.11 लाख करोड़ रुपये का पुनर्पूंजीकरण बांड्स कार्यक्रम लाया गया है, वह भी राशि के मान से बेहद कम है, और बैंकों की ऋण न दे सकने की अक्षमता को पूरी तरह सुलझाने में कारगर तुरंत नहीं होगा.
अब हम कहां
सन 2014 में सरकारी बैंकों द्वारा दिया गया सकल ऋण 52 लाख करोड़ रुपये था (जिसे प्रधानमंत्री हाल ही में संसद में गलती से एनपीए बता बैठे). और 2013-14 में एनपीए था 3.8 फीसदी. यह आज बढ़ते-बढ़ते ढाई गुना हो गया है! इसने पिछले चार वर्षों में नये उद्योग, नयी परियोजनाओं और अंततः औपचारिक क्षेत्र में नयी नौकरियों के बनने की दर पर पूरा ब्रेक लगा रखा है. इसके खुलने और सुलझने में अभी कम से कम तीन वर्ष और लगेंगे. आईबीसी तो अपना रास्ता तय करेगा, लेकिन जिस मूल समस्या ने इस बीमारी को जन्म दिया. राजनेता- कॉरपोरेट- चुनावी- फंडिंग गठजोड़, जिससे जन्मे रिश्तों की आग में पहले बैंक झुलसे, फिर अर्थव्यवस्था, और फिर आम नागरिक (आर्थिक धीमेपन और कम नौकरी सृजन से), क्या उसे जड़ से मिटने की पहल कोई नेता करेगा?
क्या सरकारी बैंकों को पेशेवर ढंग से स्वतंत्र निर्णय लेने-देने की ताकत कोई देगा? क्या कुछ सरकारी बैंको के निजीकरण की हिम्मत कोई दिखायेगा? भारत के जटिल राजनीतिक अर्थतंत्र में अभी तो ऐसा नहीं दिख रहा. जो दिख रहा है, वह है नये चुनाव की आहट में एनपीए का एक व्यापक हथियार बनना.
बढ़ते हुए एनपीए के कारण पिछले चार वर्षों में औपचारिक क्षेत्र में नयी नौकरियों के अवसर कम पैदा हुए हैं. इसके सुलझने में अभी कम-से-कम तीन वर्ष लगेंगे. क्या कुछ सरकारी बैंकों के निजीकरण की हिम्मत कोई दिखायेगा? ऐसा दिख नहीं रहा. जो दिख रहा है, वह है चुनाव की आहट में एनपीए का एक हथियार बनना.
महत्वपूर्ण तथ्य
देश में जून, 2017 तक कुल एनपीए में 22.7 प्रतिशत की सबसे बड़ी हिस्सेदारी भारतीय स्टेट बैंक की थी.
भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, आईडीबीआई बैंक लिमिटेड और बैंक ऑफ बड़ौदा समेत पांच शीर्ष बैंकों का कुल एनपीए 393,154 करोड़ रुपये यानी 47.4 प्रतिशत है.
एनपीए के मामले में शीर्ष 12 बैंकों में 11 बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के हैं. इस सूची में केवल आईसीआईसीआई बैंक ही निजी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है.
कुल एनपीए में इन 12 शीर्ष बैंकों की हिस्सेदारी 75.7 प्रतिशत है.
एनपीए के मामले में शीर्ष 15 बैंकों में निजी क्षेत्र के केवल दो बैंक- आईसीआईसीआई और एक्सिस बैंक ही शामिल हैं और कुल एनपीए में उनकी संयुक्त हिस्सेदारी 7.9 प्रतिशत है.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का ग्रॉस एनपीए (फीसदी में)
बैंक का नाम 2016 2015 2014 2013 2012
भारतीय स्टेट बैंक 6.7 4.36 5.04 4.89 4.57
पंजाब नेशनल बैंक 13.53 6.75 5.4 4.36 2.96
बैंक ऑफ बड़ौदा 10.55 3.79 2.99 2.43 1.55
ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स 9.87 5.27 4.03 3.24 3.19
केनरा बैंक 9.74 3.95 2.51 2.58 1.73
(स्रोत : बिजनेस वर्ल्ड डॉट इन)
टॉप एनपीए वाले देश
देश एनपीए (% में)
ग्रीस 36.4
इटली 16.4
पुर्तगाल 15.5
आयरलैंड 11.9
भारत 9.9
रूस 9.7
स्पेन 5.3
पांचवें नंबर पर भारत
एनपीए के मामले में भारत दुनिया में पांचवीं रैंकिंग पर पहुंच चुका है. ब्रिक्स देशों में तो वह शीर्ष पर है. केयर रेटिंग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत 9.9 फीसदी एनपीए अनुपात के साथ पांचवें नंबर पर है. ग्रीस इस मामले में सबसे ऊपर है. एनपीए सूची में शीर्ष पर रहे देशों को पिग्स यानी पीआईआईजीएस (पुर्तगाल, इटली, आयरलैंड, ग्रीस और स्पेन) के नाम से जाना जाता है. हालांकि, इसमें स्पेन सातवें स्थान पर है, जो रैंकिंग में भारत और रूस के बाद आता है.
कम एनपीए वाले देश
एक फीसदी एनपीए वाले देश : इसमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, हॉन्गकाॅन्ग, रिपब्लिक ऑफ कोरिया और यूनाइटेड किंगडम है.
दो फीसदी से कम : चीन, जर्मनी, जापान और अमेरिका.
दो फीसदी से अधिक एनपीए वाले देश : ब्राजील, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की.