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हथियारों की वैश्विक होड़ भारत सबसे बड़ा खरीदार

मुमकिन है देश में हथियारों का निर्माण भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है और इसकी सेना की गिनती दुनिया की बड़ी सेनाओं में होती है. और यह सेना दो पड़ोसी देशों की सीमा पर ज्यादा सक्रिय रहती है. इस कारण दूसरे देशों के मुकाबले भारत के लिए खतरे ज्यादा रहते हैं. इसके लिए बहुत […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 18, 2018 12:01 AM

मुमकिन है देश में हथियारों का निर्माण

भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है और इसकी सेना की गिनती दुनिया की बड़ी सेनाओं में होती है. और यह सेना दो पड़ोसी देशों की सीमा पर ज्यादा सक्रिय रहती है. इस कारण दूसरे देशों के मुकाबले भारत के लिए खतरे ज्यादा रहते हैं. इसके लिए बहुत बड़ी सेना और ज्यादा हथियारों का प्रबंध करना बहुत जरूरी है. अब सवाल यह है कि यह प्रबंध कैसे हो? एक तो यह कि या तो हम हथियार बनाएं, या दूसरे यह कि हम हथियारों का आयात करें यानी दूसरे देशों से खरीदें.

चूंकि हम बड़े पैमाने पर हथियार नहीं बना पाते हैं और हमारे पास इच्छाशक्ति के साथ तकनीक का भी कुछ अभाव है, इसलिए हम बड़े पैमाने पर हथियार खरीदकर काम चलाते हैं. यही वजह है कि हम हथियारों के सबसे बड़े आयातक देश बन जाते हैं. यह अभी और बढ़ेगा, क्योंकि हमने रॉकेट बनाना, सेटेलाइट लांच करना सीख लिया है, लेकिन हथियार बनाना नहीं सीखा है. न हमने अत्याधुनिक राइफल बनाये, न फाइटर प्लेन बनाये, न सबमरीन बनाये. चूंकि हम नहीं बना पा रहे हैं, इसलिए हमारी जरा सी भी खरीद से लगता है कि हम ज्यादा हथियार खरीद रहे हैं.

महंगी होती है खरीदी चीज

हथियार बनाने के बजाय खरीदने से नुकसान भी होता है. वे हथियार महंगे दाम पर खरीदे जाते हैं. जाहिर है, बाहर से जो भी सामान आता है, उसकी कीमत ज्यादा होती है, खासकर हथियार की तो और भी ज्यादा होती है. चूंकि हमारी मजबूरी होती है, इसलिए वे मनमाना कीमत वसूलते हैं, और इसके लिए दलाली होती है, जिससे घोटाले और भ्रष्टाचार पनपते हैं. दूसरे यह कि अगर लड़ाई के दौरान वे खराब हुए, या सही से काम नहीं कर पाये, तो उनका रिप्लेसमेंट नहीं होता. हथियार निर्यातक इन्हें वापस लेने की गारंटी नहीं देते, जो एक बड़ा रिस्क होता है.

जाहिर है, हमारी सेना का इन दोनों तथ्यों से प्रभावित होना मुमकिन है. हालांकि, हम चाहें तो अच्छे हथियार बना सकते हैं. सरकारी और प्राइवेट सेक्टर दोनों चाहें, तो मिल कर इस क्षेत्र में काम कर सकते हैं और देश में ही आसानी से हथियार बनाये जा सकते हैं. लेकिन, इस बारे में हमारी सरकारें ध्यान नहीं देती आयी हैं, यही वजह है कि भारत का फोकस दूसरे देशों से हथियार खरीदने पर ज्यादा रहता है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि हर पांच साल में हथियारों की मारक क्षमता प्रभावित हो जाती है,

इसलिए उन्हें बदलकर अत्याधुनिक हथियार इस्तेमाल करने की जरूरत होती है. ऐसे में अगर दुश्मन ज्यादा सक्रिय हो जाये और उसके पास अत्याधुनिक हथियार हों, तो उससे मुकाबला करने में सेना को परेशानी होती है. इसलिए भी हमें ज्यादा हथियार खरीदने पड़ते हैं, क्योंकि हम बना तो रहे नहीं हैं.

विकसित करनी होगी क्षमता

हथियार बनाने की भारत की क्षमता बहुत कम है और जो बनाये भी जाते हैं, उसके लिए भी ज्यादातर सामान बाहर से ही खरीदना पड़ता है. कुछ लोग भले यह कहें कि हमने ये बना दिया, वो बना दिया, लेकिन उसमें भी बाहरी सामानों का ही योगदान होता है. इसलिए हमें खुद हथियार बनाने के लिए इस बात को भी समझना चाहिए कि हर छोटी-से-छोटी चीज को बनाने की तकनीक हम विकसित करें. यह बात समझ में नहीं आती कि हमारी सरकारें इस ओर ध्यान क्यों नहीं देती हैं,

जबकि हथियार खरीदने में ज्यादा पैसा खर्च होता है. पूरी दुनिया में भारत के लोग हर क्षेत्र में बेहतरीन काम कर रहे हैं, फिर इस क्षेत्र में क्यों नहीं कर सकते, यह सोचनेवाली बात है और सरकार की इच्छाशक्ति पर शक करनेवाली बात है. दरअसल, दूसरे देशों में किसी भी क्षेत्र में काम करने के लिए लोगों को बहुत सुविधाएं मिलती हैं,

जिससे वे बिना किसी परेशानी के दिल से काम करते हैं और सफलता अर्जित करते हैं. उनका वहां उत्साहवर्धन भी होता है. लेकिन, ये सारी चीजें यहां नहीं हो पातीं और उनके ऊपर ब्यूरोक्रेसी आकर बैठ जाती है और योजनाओं के क्रियान्वयन या पास होने में एक अरसा लग जाता है.

मजबूत इच्छाशक्ति की जरूरत

दूसरे देशों से हथियार खरीदने के बजाय खुद हथियार बनाने के कई फायदे हैं. एक तो वे सस्ते पड़ेंगे, दूसरे कि वे समय पर मौजूद भी रहेंगे. इससे हमारी सेना का मनोबल भी बढ़ेगा और हमारे पैसे की बचत भी होगी. सेना को बहुत ज्यादा सफर करना पड़ता है और इसके लिए उसके पास अपडेटेड हथियार चाहिए ही.

वहीं इसके दूसरे पहलू को देखें, तो एक समय के बाद अगर हमने अपने उपयोग की सीमा से ज्यादा हथियार बना लिये, यानी सरप्लस कर लिये, तो हम निर्यात भी कर सकते हैं. इसकी पूरी संभावना है कि अगर सरकार आज अपनी इच्छाशक्ति मजबूत कर ले, तो आगामी पांच साल में हम अत्याधुनिक हथियार बना सकते हैं. इसी सरकार ने तकनीक की बड़ी से बड़ी सीमाओं को लांघा है, जैसे मिसाइल बनाये हैं, रॉकेट बनाये हैं, सेटेलाइट लांचर बनाये हैं,

अंतरिक्ष में मंगलयान भेजा है, फिर हथियार क्यों नहीं बना सकती. देश में ही हथियारों का निर्माण देश हित में है, लेकिन हथियार खरीदने में यानी रक्षा सौदों में होनेवाली दलाली कुछ लोगों के हित में है. इन कुछ लोगों की वजह से ही बड़े घोटाले होते हैं, और देश की छवि खराब होती है. अगर हम खुद हथियार बनाने लगें, तो इससे देश का ही फायदा होगा.

वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित

हथियारों के वैश्विक कारोबार में 2008-12 और 2013-17 के बीच 10 फीसदी की बढ़त अमन-चैन की उम्मीद को गंभीर झटका है. सिपरी की रिपोर्ट के मुताबिक, दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व और अफ्रीका के विकासशील देश सबसे बड़े आयातक हैं, जो पश्चिम के धनी देशों से हथियार खरीदते हैं. भारत का हिस्सा वैश्विक आयात में 12 फीसदी है,

जबकि 10 बड़े आयातकों के हिसाब में हिस्सा 48 फीसदी है. संघर्ष और तनाव के माहौल को देखते हुए ताबड़तोड़ खरीद के मौजूदा सिलसिले के थमने के आसार भी दूर-दूर तक नहीं दिखते. हथियार कारोबार के बड़े आर्थिक एवं राजनीतिक लाभ होने के कारण इसके नियमन की अंतरराष्ट्रीय कोशिशें भी बेअसर रही हैं.

बढ़ रही हथियारों के खरीद-फरोख्त की हाेड़

10 प्रतिशत अधिक रही हथियारों की खरीद-फरोख्त 2008-2012 के मुकाबले 2013-2017 के बीच.

74 प्रतिशत हथियार निर्यात किये गये कुल निर्यात का अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी और चीन द्वारा 2013- 2017 के बीच.

2008- 2012 अौर 2013- 2017 में एशिया, ओशनिया और मध्य-पूर्व में हथियारों के आमद में वृद्धि हुई है, जबकि अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप में इसमें कमी आयी है.

हथियार निर्यात का नेतृत्व कर रहा अमेरिका

34 प्रतिशत अमेरिकी भागीदारी रही 2013-2017 के बीच कुल निर्यात किये गये हथियारों में. अमेरिका द्वारा किया गया यह निर्यात पूर्व के पांच वर्षों के मुकाबले 25 प्रतिशत और हथियारों के दूसरे बड़े निर्यातक रूस के मुकाबले 58 प्रतिशत अधिक रहा.

98 राष्ट्रों को 2013-2017 के बीच हथियारों की आपूर्ति की थी अमेरिका ने, जिनमें मध्य-पूर्व देशों को की गयी आपूर्ति 49 प्रतिशत थी.

7.1 प्रतिशत की गिरावट आयी है रूस के हथियार निर्यात में, जबकि फ्रांस द्वारा किये जाने वाले निर्यात में 27 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है.

109 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जर्मनी द्वारा मध्य-पूर्व के देशों को निर्यात किये जाने वाले हथियारों में.

हथियारों के निर्यात के मामले में फ्रांस का स्थान विश्व में तीसरा है, जबकि जर्मनी का चौथा और चीन का पांचवां है.

चीनी हथियारों का मुख्य आयातक देश पाकिस्तान है, लेकिन इस दौरान अल्जीरिया और बांग्लादेश को भी चीन द्वारा हथियार मुहैया कराये गये थे.

मध्य-पूर्व देशों में दोगुना हुआ आयात

103 फीसदी की वृद्धि हुई हथियारों के आयात में मध्य-पूर्व देशों में.

32 प्रतिशत रहा इस क्षेत्र में हथियारों का आयात, वैश्विक हथियार आयात का इस दौरान.

225 फीसदी की वृद्धि 2013-2017 के दौरान सउदी अरब के आयात में.

215 प्रतिशत बढ़ा इस दौरान मिस्र का हथियार आयात.

< इस अवधि में सबसे बड़े हथियार आयातकों में भारत पहले, सऊदी अरब दूसरे, मिस्र तीसरे और संयुक्त अरब अमीरात चौथे स्थान पर रहा, जबकि कतर 20वां सबसे बड़ा हथियार आयातक देश रहा.

अमेरिका व यूरोप बड़े हथियार निर्यातक

मध्य-पूर्व में बड़े पैमाने पर होनेवाले हिंसक संघर्षों और मानवाधिकार हनन के कारण पश्चिमी यूरोप व उत्तरी अमेरिका में हथियार बिक्री पर प्रतिबंध को लेकर राजनीतिक स्तर पर चर्चा भी हुई. लेकिन इसके बावजूद अमेरिका और यूरोपीय देश इस क्षेत्र के प्रमुख हथियार निर्यातक देश बने रहे. इस दौरान इन देशों ने सऊदी अरब को तकरीबन 98 प्रतिशत हथियार मुहैया कराये.

संयुक्त राष्ट्र समझौते की विफलता

छोटे हथियारों से लेकर युद्धक टैंकों के अंतरराष्ट्रीय कारोबार के नियमन के लिए संयुक्त राष्ट्र में 24 दिसंबर, 2014 को हथियार व्यापार समझौते पर सहमति बनी थी. इस पर हस्ताक्षर की प्रक्रिया तीन जून, 2013 को शुरू हुई थी. समझौते पर 130 देशों ने सहमति दी है और अब तक इसे 89 देशों ने अंगीकार किया है. पांच ऐसे देश भी हैं जिन्होंने समझौते पर हस्ताक्षर तो नहीं किया है, पर इसे मान्यता दी है. इस तरह से समझौते में फिलहाल 94 देश हैं.

परंपरागत हथियारों के बढ़ते जमावड़े और अशांति के खतरे को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र का यह समझौता बहुत अहम है, लेकिन कई अन्य अंतरराष्ट्रीय समझौतों और संकल्पों की तरह यह भी प्रभावी नहीं है. दुनिया के बड़े हथियार निर्यातक- ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी- इसे अंगीकार कर चुके हैं. अमेरिका और इजरायल ने हस्ताक्षर तो किया है, पर अंगीकार नहीं किया है. रूस और चीन ने न तो हस्ताक्षर ही किया है और न ही अंगीकार किया है. पिछले साल 100 से अधिक देश हथियार कारोबार समझौते की विफलता पर चर्चा करने के लिए जेनेवा में जमा हुए थे. समझौते पर राजी होने के बावजूद अशांत क्षेत्रों में हथियार पहुंचते रहते हैं.

नैतिक प्रतिबद्धता के बावजूद सऊदी अरब को हथियार बेचे जा रहे हैं. दुनियाभर में करीब पांच लाख लोग बंदूकों से मारे जाते हैं और अलग-अलग हिस्सों में लाखों लोग हथियारों की गैर-जिम्मेदाराना बढ़त से हिंसक संघर्षों में जीने के लिए अभिशप्त हैं. जर्मनी जैसे कुछ देशों ने अपने लिए कुछ दिशा-निर्देश जरूर तैयार किये हैं, पर उनका पालन शायद ही होता है. देशों ने इस संबंध में कोई कानून नहीं बनाया है. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुतेरेस ने जेनेवा में पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र निरस्त्रीकरण सम्मेलन में बोलते हुए इस दिशा में नयी पहलों का आह्वान किया था.

40 फीसदी के करीब हिस्सा है वैश्विक हथियार उद्योग का पूरी दुनिया में लेन-देन के भ्रष्टाचार में. वर्ष 2011 में सिपरी की रिपोर्ट में बताया गया था कि हथियारों के कारोबार में संगठित और व्यापक तौर पर भ्रष्टाचार होता है. इसका सबसे बड़ा कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर पारदर्शिता से परहेज है. रिपोर्ट में इस समस्या से निपटने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत बताते हुए नागरिकों से निवेदन किया गया था कि वे यथास्थिति इसके विरोध में आवाज उठाएं.

मेजर जनरल अफसर करीम (रिटायर्ड)

देश में ही हथियारों का निर्माण राष्ट्र हित में है, लेकिन हथियार खरीदने में होनेवाली दलाली कुछ लोगों के हित में है. इन कुछ लोगों की वजह से ही बड़े घोटाले होते हैं और देश की छवि खराब होती है. यदि हम खुद हथियार बनाएं, तो इससे देश का ही फायदा होगा.

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