पुरुषोत्तम की यात्रा में मर्यादा की कसौटी

II डॉ मयंक मुरारी II चिंतक और लेखक राम के दर्शन से अहल्या भाव विभोर है. वह देखी रही है. ब्रह्मस्वरूप राम भूमि से उठाकर माता अहल्या का चरण स्पर्श कर रहे हैं. अपने उदार गैरिक वसन से अहल्या के भस्माच्छादित शरीर से धूल पोंछ रहे हैं. अहल्या सोचती है कि ऐ स्पर्श! तेरे कितने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 24, 2018 6:46 AM
II डॉ मयंक मुरारी II
चिंतक और लेखक
राम के दर्शन से अहल्या भाव विभोर है. वह देखी रही है. ब्रह्मस्वरूप राम भूमि से उठाकर माता अहल्या का चरण स्पर्श कर रहे हैं. अपने उदार गैरिक वसन से अहल्या के भस्माच्छादित शरीर से धूल पोंछ रहे हैं. अहल्या सोचती है कि ऐ स्पर्श! तेरे कितने रूप हैं- कितने आकर्षण हैं!
उनके समक्ष इंद्र की वासना और गौतम की रसना के चित्र स्मृति पटल पर नाच जाते हैं. अहल्या अपने शरीर की धूल श्रीराम के शरीर से पोंछने के लिए हाथ बढ़ाती है, तो श्रीराम उनको रोक देते हैं. कहते हैं कि देवि! छोड़ दीजिए. यह धूल मेरे कठोर अनुशासित यात्रा पथ का पाथेय है. आर्यावर्त के एक छोर से दूसरे छोर तक इस तपोनिष्ठ धूलि से ही पृथ्वी को पवित्र करूंगा.
जीवन में मर्यादा के उच्चतम आदर्श की स्थापना श्रीराम के जीवन का लक्ष्य रहा. राम का जीवन सदैव सत्ता और व्यवस्था की मजबूती तथा उसके विस्तार के विरोध में व्यक्ति की गरिमा और उसके संघर्ष के साथ जोड़ता है, जो समाज के वास्तविक विकास का वाहक है. आज से सात हजार साल पूर्व इस महापुरुष ने एक साथ चुनौती दी इंद्र और रावण को. भोग को और शक्ति को. जन-गण का सपना सजाया, साथ लिया, सहयात्राएं कीं और विजयी हुए.
राम का संपूर्ण जीवन दैहिक संस्कृति से मुकाबला करते बीत गया. जब समाज में देह और उसके भोग एवं शक्ति की ही केंद्रीय भूमिका थी, तब उन्होंने इस परिभाषा को बदलने के लिए सफल एवं सार्थक प्रयास किया और विचार एवं विवेक की मर्यादा को प्रतिस्थापित किया. इसका प्रकटीकरण कृषि सभ्यता के विकास एवं विस्तार से हुआ, जो पतनशील दैहिक सभ्यता के अंत का कारण बना.
विचार एवं विवेक का आचरण जिसमें मर्यादा का संतुलन था, उसकी शुरुआत उनके बचपन से ही गयी. राम जब पंद्रह वर्ष के थे, तो उनके मन में तीर्थाटन के लिए बड़ी गहरी रुचि पैदा हुई. वे पिता से अनुमति लेकर भारत भ्रमण को निकल गये. यात्रा के दौरान श्रीराम ने नदी, वन, आश्रम, जंगल एवं सीमांत समुद्र एवं पहाड़ों की यात्राएं कीं. नदियों में गंगा से लेकर झेलम और चेनाब तथा केदारनाथ से लेकर श्री शैल, पुष्कर आदि तीर्थों की यात्रा की. उन्होंने विष्णु एवं शिव के चौंसठ स्थलों एवं चारों सागरों के तटों को देखा. ऐसी यात्राओं के बाद श्रीराम के जीवन में कोमलता का जन्म होता और पूर्वाग्रह खत्म होते हैं. इन यात्राओं के बाद श्रीराम अंतर्विवेक को उपलब्ध हो जाते हैं. उनमें वैराग्य का जन्म होता है, तब दशरथ उनको वशिष्ठ के पास भेजते हैं.
श्रीराम और वशिष्ठ का संवाद योग वशिष्ठ में दर्ज है. इस संवाद से पता चलता है कि राम सदा ही एक विचारशील तत्वदर्शी की तरह बड़ा नपा-तुला व्यवहार करते हैं. आचरण में विवेक यानी मर्यादा के माध्यम से श्रीराम भारत की आत्मा को प्रकट करते हैं, जो उन्होंने तीर्थाटन एवं यात्रा के परिणाम स्वरूप सीखा.
तीर्थाटन के माध्यम से वैराग्य भाव की अभिव्यक्ति एवं पूर्णता योगवशिष्ठ में होता है. यहां वशिष्ठ समझाते हैं कि- न मन को दुनिया के काम में लगाकर शांति मिलती है और न ही परे हटाकर. जो कोई मन की इन दो स्थितियों को अपने विचार-विवेक से एक साथ देख लेता है, वहां से ऊपर उठकर ब्रह्मसत्य के दर्शन का अधिकारी हो जाता है.
राम के व्यक्तित्व में विचार-विवेक और आचरणगत मर्यादा की बात जिस तरह केंद्रीय भूमिका में है, उसके चलते उनका दूसरों से संबंध भक्त और भगवान का नहीं होता है. राम का समस्त व्यवहार, विचार एवं विवेक पूरित है. विनयशील एवं आदरभाव से भरे श्रीराम अपने से छोटे को भी अपने जैसा व्यवहार करने की पूरी स्वतंत्रता देते हैं.
राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक
राम जिस अंतर-रूपांतरण को सहज एवं सबके लिए सुलभ बना रहे थे, उसकी परंपरा विश्वामित्र ने शुरू की थी. देश निर्माण की यात्रा को सार्थक एवं सहभागी बनाने के लिए उन्होंने वशिष्ठ का साथ लिया, जो उनके वैचारिक विरोधी थे. एक राज्याश्रित ऋषि, तो दूसरा सामाजिक ऋषि विश्वामित्र.
श्रीराम की विचार चेतना को कर्मभूमि पर सार्थक उपयोग के लिए वशिष्ठ ने पृष्ठभूमि तैयार की, तो उस कर्मपथ पर सफलता पूर्वक चलने में विश्वामित्र ने सहयोग दिया और एक सफल सामाजिक व्यवस्था को रूपांतरिक करने में सहभागी हो सके. जिस गौतम के श्राप ने अहल्या को पत्थर बनाया, उस न्यायशास्त्र के अध्येता को श्रीराम ने उल्टा खड़ा कर दिया. वे भारत की अस्मिता, सांस्कृतिक अखंडता और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक बन गये.
विचारों की तीव्रता से अध्यात्म में प्रवेश
सांस्कृतिक रूपांतरण की विराट प्रक्रिया में मर्यादा के साथ गौतम का न्याय दर्शन, भारद्वाज की वैज्ञानिक खोज और अगस्त्य का सांस्कृतिक संश्लेषण सहायक साधन बना. विश्व इतिहास में किसी एक महापुरुष के निर्माण के माध्यम से राष्ट्र जागरण के कार्य में इतने महान ऋषियों जैसा योगदान देखने को नहीं मिलता.
अपने व्यवहार एवं विचार-विवेक की आधारशीला से मर्यादित श्रीराम एक मानवीय एवं गतिशील राजनैतिक चेतना का निर्माण करते हैं. वह विचारों की तीव्रता और सूक्ष्मता के माध्यम से अध्यात्म में प्रवेश करते हैं. जीवन के साथ हरदम कदमताल कर चलते हैं. इस कारण वे सामान्य लोगों के साथ सहज संबंध बना लेते हैं. वह हर कर्म एवं व्यवहार को सामाजिक संगति और न्याय तथा औचित्य की कसौटी पर परखते हैं.

Next Article

Exit mobile version