दक्षिणपूर्व एशिया में रामायण की विभिन्न व्याख्याएं

पंद्रहवीं सदी में थाईलैंड की राजधानी जिस शहर में थी, उसका नाम ‘अयुत्थाया’ था, स्थानीय भाषा में जो अयोध्या का ही रूपांतरण था. जब 18वीं सदी में बर्मा के सैनिकों ने इस शहर को जीत लिया, तो वहां राजगद्दी पर एक नया राजा आसीन हुआ, जिसने अपना नाम राम-क रखा, आज के बैंकाक की स्थापना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 24, 2018 11:54 PM

पंद्रहवीं सदी में थाईलैंड की राजधानी जिस शहर में थी, उसका नाम ‘अयुत्थाया’ था, स्थानीय भाषा में जो अयोध्या का ही रूपांतरण था. जब 18वीं सदी में बर्मा के सैनिकों ने इस शहर को जीत लिया, तो वहां राजगद्दी पर एक नया राजा आसीन हुआ, जिसने अपना नाम राम-क रखा, आज के बैंकाक की स्थापना की और ‘रामकीयन’ नामक महाकाव्य लिखा, जो स्थानीय भाषा में रामायण का ही नाम है.

उसने इसे राष्ट्रीय महाकाव्य का दर्जा दिया और ‘पन्ना (एमेराल्ड) बुद्ध’ के उस मंदिर की दीवारों पर भित्तिचित्र बनवा कर इसे चित्रित करा दिया, जिसे राज परिवार का संरक्षण प्राप्त था. तात्पर्य यह कि स्वयं एक बौद्ध होते हुए भी इस राजा ने राम के साथ स्वयं की पहचान स्थापित कर अपनी राजकीय विश्वसनीयता स्थापित की.

ब्रिटिश प्राच्यवेत्ताओं और औपनिवेशिक फूट डालो, राज करो की नीति के बहुत पहले उन दिनों बौद्ध और हिंदू धर्म में भेद नहीं माना जाता था. दक्षिणपूर्व एशिया में राम उसी तरह एक नायक थे, जैसे वे दक्षिण एशिया के हिंदुओं के लिए थे. जल्दी ही, वे स्थानीय राजाओं के लिए आदर्श बन गये. रामायण के माध्यम से राजत्व का यह वैधानिकीकरण एक हजार वर्षों से भी पहले आरंभ हुआ. ‘मोन’ भाषा में उत्कीर्ण 11वीं सदी के बर्मा के एक शिलालेख में, बगान वंश के राजा क्यांजित्था ने यह घोषणा की कि अपने किसी पूर्व जन्म में वह अयोध्या के राम का एक निकट संबंधी था.

कंबोडिया में रामायण के संस्करण

कंबोडिया के अंकोरवाट में 12वीं सदी में निर्मित मंदिरों के वर्तमान खंडहरों में चित्रित राजकीय जुलूस के पार्श्ववर्ती एक गलियारे में रामायण के ख्मेर संस्करण, ‘रामकेर’ की घटनाएं उत्कीर्ण दिखती हैं. नोमपेन्ह के राजमहल की दीवारों पर रामायण आधारित भित्तिचित्र बने हैं. उनमें से एक कहानी ध्यान आकृष्ट करती है, जिसमें हम हनुमान को एक टूटे सेतु से श्रीलंका के तट तक विस्तारित देखते हैं, ताकि रथारूढ़ राम और उनकी बानर सेना आसानी से सागर लांघ सके. रामायण की जिस कथा से हम भारतीय परिचित हैं,

उसमें यह कहानी नहीं मिलती. यह कहानी हमें जातक की उस कथा की याद दिलाती है, जिसमें राजा के शिकारियों से बचने को बंदर एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष तक फैले अपने राजा की पीठ पर कूद कर प्राणरक्षा करते हैं. दरअसल एक कथा है कि कपिराज ‘सुन वुकोंग’ ने ताओ देवताओं को भयभीत कर रखा था और बुद्ध ने उसे इस हेतु बाध्य किया कि वह एक बौद्ध भिक्षु, जुआनजांग को भारत की यात्रा कर मूल बौद्ध धर्मग्रंथों की खोज करने में सहायता करे. उपर्युक्त कहानियां इसी कहानी का दक्षिणपूर्व एशियाई स्वरूप है, जिसके पीछे बौद्ध अथवा चीनी प्रेरणा काम कर रही है.

थाईलैंड तथा म्यांमार की ही तरह, कंबोडिया के वर्तमान राजा भी थेरावदा बौद्धधर्म को मानते हैं, पर कई सदियां पूर्व वे महायान बौद्धधर्म के अनुयायी हुआ करते थे. उसके भी पूर्व वे हिंदू थे. ये धर्म भारत में पैदा हुए और उन ओडिया तथा तमिल समुद्री व्यवसायियों के माध्यम से दक्षिणपूर्व एशिया पहुंचे, जो मानसून हवाओं की मदद से वहां तक की अपनी सालाना यात्राएं किया करते थे.

वहां वे व्यापारिक वस्तुओं के विनिमय के साथ ही ये कहानियां भी सुनते-सुनाते. कहा जाता है कि रातों को उनके दीपों से प्रकाशित उनकी नौकाओं के पाल ने ही कहानी सुनानेवालों को इस हेतु प्रेरित किया कि वे चर्मपुतलियों के छाया रंगमंच का सृजन करें. यही वजह है कि कोरोमंडल तट तथा दक्षिणपूर्व एशिया के अधिकतर हिस्से में छायापुतली कला इतनी फली-फूली, जैसे ओडिशा में रावण छाया और इंडोनेशिया में वायंग.

एक हजार वर्ष पूर्व, लगभग उस वक्त जब भारत में बौद्धधर्म क्षीण होने लगा था, यह प्रत्यक्ष संपर्क तब टूट गया और समुद्री यात्रा निषिद्ध हो गयी, जब हिंदू इस संभावना से डरने लगे कि उसका नतीजा उन्हें उनके सामाजिक बहिष्कार तक पहुंचा देगा. फिर तो व्यापार अरब समुद्री व्यापारियों के हवाले चला गया, जो इस्लाम को दक्षिणपूर्व एशिया तक ले गये.

यह घटनाक्रम लगभग निश्चित-सा लगता है, क्योंकि दक्षिणपूर्व एशिया में रामायण का जो रूप प्रचलित है, उसमें भक्ति का वह तत्व नहीं मिलता, जो भारत में रामायण के साथ अविच्छिन्न है और जिसका स्पष्ट स्वरूप 9वीं सदी के कंब रामायण में दिखता है.

हनुमान के विविध रूप

जावा का काकाविन रामायण

देवदत्त पटनायक

पौराणिक कथाओं के िवशेषज्ञ

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