वीर कुंवर सिंह की 160वें विजयोत्सव पर विशेष : वह 80 साल का नौजवान
आज 160वां विजयोत्सव है. आज के ही दिन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा कुंवर सिंह ने जगदीशपुर को अंग्रेजों के कब्जे से आजाद कराया था और वहां राष्ट्रीय ध्वज फहराया था. कुंवर सिंह 1857 की क्रांति के ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपनी छोटी-सी रियासत की सेना के दम पर आरा से लेकर रोहतास, कानपुर, […]
आज 160वां विजयोत्सव है. आज के ही दिन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा कुंवर सिंह ने जगदीशपुर को अंग्रेजों के कब्जे से आजाद कराया था और वहां राष्ट्रीय ध्वज फहराया था. कुंवर सिंह 1857 की क्रांति के ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपनी छोटी-सी रियासत की सेना के दम पर आरा से लेकर रोहतास, कानपुर, लखनऊ, रीवां, बांदा और आजमगढ़ तक में अंगरेजी सेना से निर्णायक लड़ाइयां लड़ीं और कई जगह जीत हासिल की.
80 साल की उम्र में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जिस अदम्य साहस का उन्होंने परिचय दिया, वह अतुलनीय है. वे एक अच्छे राजा, महान योद्धा व बेहतरीन इंसान भी थे. उनका प्रभाव वर्तमान झारखंड से लेकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तक फैला हुआ था. इस मौके पर उनके जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियों पर विशेष रपट.
प्रस्तुति
II पवन प्रत्यय व पुष्यमित्र II
जार्ज ट्रिविलियन नामक एक अंग्रेज ने लिखा है, हमें अपने आप को सौभाग्यशाली समझना चाहिए कि बुढ़ापे के कारण कुंवर सिंह की सैन्य शक्ति और दृढ़ता कम हो गयी थी. अगर वे 1857 के विद्रोह के वक्त 40 साल के होते तो आरा की रक्षा में हमें उससे काफी अधिक कठिनाई होती, जो आज हुई.
एक अन्य अंग्रेज इतिहासकार ने लिखा है, अगर आरा और कानपुर के बीच कुंवर सिंह जैसा ही कोई और विद्रोही होता, तो अंग्रेजों का भारत में रहना मुश्किल हो जाता.
एक छोटी-सी रियासत के शासक जिसकी उम्र 80 साल हो गयी थी, जिसकी रियासत बुरी तरह कर्ज में डूबी थी और उस पर अंग्रेजों का नियंत्रण था. ऐसे राजा ने 26 जुलाई, 1857 से लेकर 26 अप्रैल, 1858 तक तकरीबन नौ महीने जिस अदम्य साहस, शूरवीरता और युद्ध कौशल का उदाहरण पेश किया और अंग्रेजी सेना को जिस तरह छकाया, उसकी उपमा इतिहास में दुर्लभ है.
संताल परगना और पूर्णिया से लेकर रीवां, कानपुर, आजमगढ़ तक उनका प्रभाव फैला था और उनकी मौजूदगी में व उनके नाम पर जगह-जगह लड़ाइयां लड़ी गयीं और अपने इलाके को अंग्रेजों के प्रभाव से सीमित अवधि के लिए ही सही, मुक्त कराया गया. यही वजह थी कि 12 अप्रैल, 1858 को अंग्रेज सरकार के विदेश विभाग ने पत्र जारी कर कुंवर सिंह की जिंदा गिरफ्तारी के लिए 25 हजार रुपये का इनाम घोषित किया और सूचना देनेवाले बागियों को साथ ही साथ क्षमादान का भी ऑफर दिया गया. यह पत्र भारत सरकार के गवर्नर जनरल के आदेश से जारी हुआ था.
वैसे तो 1857 के विद्रोह के वक्त कुंवर सिंह की हैसियत एक साधारण राजा की थी, जिस पर ढेर सार कर्ज हो गया था और वह दिवालिया होने की हालत में था.
पटना के तत्कालीन कमीश्नर उसके मित्र थे और वे मानते थे कि कुंवर सिंह कभी बागी नहीं होंगे. मगर दानापुर छावनी के सिपाहियों को कुंवर सिंह पर काफी भरोसा था. इसलिए 25 जुलाई, 1857 को दानापुर के सिपाहियों ने विद्रोह किया तो वे आरा की तरफ चल पड़े.
वे चाहते थे कि जगदीशपुर के राजा कुंवर सिंह उनका नेतृत्व करें. और सिपाहियों के इस भरोसे को 80 साल के उस बुजुर्ग राजा ने अंत-अंत तक बरकरार रखा. पहले आरा शहर को आजाद कराया गया, हालांकि एक हफ्ते के लिए ही सही. फिर वहां से जगदीशपुर, सासाराम, रोहतास, रीवां, बांदा, कानपुर, लखनऊ होते हुए आजमगढ़ पहुंचे. उन्होंने आजमगढ़ को भी आजाद कराया और वहां दो बार अंग्रेजी सेना को पराजित किया. फिर वहां से अपने इलाके जगदीशपुर लौटे और 22 अप्रैल, 1858 को अपने इलाके को आजाद कराया.
हालांकि कुंवर सिंह के बांह में गोली लगी थी और हाथ काट कर उन्होंने गंगा को अर्पित कर दिया था. आजाद जगदीशपुर में वे अधिक दिनों तक जिंदा नहीं रह सके. 26 अप्रैल, 1858 को उनकी मौत हो गयी.युद्धनीति के पारंगत कुंवर सिंह
कुंवर सिंह की एक बड़ी खूबी यह रही कि वे युद्धनीति के पारंगत थे. आरा शहर पर कब्जा करने के बाद उन्होंने अपनी सेना को बिल्कुल अंग्रेजी सेना की तरह सजाया और उसी पदनाम के अधिकारी रखे.
आरा शहर को मुक्त कराने जब दानापुर से सैनिक पहुंचे, तो कुंवर सिंह ने उन्हें आम के बगीचे में घेर कर पराजित कर दिया. हालांकि बाद में उनकी हार भी हुई और उन्हें जगदीशपुर भी छोड़ना पड़ा.
मगर वे आगे बढ़ते रहे. आजमगढ़ के पास उनकी दो जीत उनकी युद्धनीति का नमूना मानी जाती हैं. पहली बार उन्होंने जान-बूझकर अपनी सेना को पीछे हटा लिया. अंग्रेजी सेना जब जीत के उल्लास में खुश होकर जलपान करने बैठी तो पीछे से उन्होंने हमला कर दिया. अगली बार उनकी मदद के लिए फिर जब सेना आयी, तो उसे भी अपने चातुर्य से पराजित कर दिया.
आजमगढ़ की आजादी
अपने अभियान के दौरान कुंवर सिंह ने आरा शहर और जगदीशपुर को तो आजाद कराया ही, साथ ही आजमगढ़ को भी आजाद कराया. आजमगढ़ को आजाद कराने में भी उनकी सूझबूझ कारगर साबित हुई. उन्होंने देखा कि आजमगढ़ से सैनिक लखनऊ भेजे गये हैं, तो उन्होंने मौके का फायदा उठाकर आजमगढ़ पर कब्जा कर लिया और उनकी वजह से आजमगढ़ 81 दिनों तक आजाद रहा.
आरा की सरकार और जगदीशपुर की आजादी
25 जुलाई, 1857 को जब आरा शहर पर विद्रोहियों का कब्जा हो गया था तो कुंवर सिंह ने तत्काल आरा शहर के प्रशासन को सुव्यवस्थित किया. हालांकि आजादी चंद दिनों की ही थी. मगर उनके शासन प्रबंध की लोग खूब तारीफ करते थे. उनकी आखिरी जीत जगदीशपुर की आजादी थी. आजमगढ़ से जब वे लौटे तो सीधे जगदीशपुर पहुंचे.
हालांकि रास्ते में एक युद्ध के दौरान उनकी बांह में गोली लग गयी थी और जैसा कि हर कोई जानता है कि संक्रमण से बचने के लिए उन्होंने खुद ही अपनी बांह काटकर गंगा को अर्पित कर दिया था. फिर वे जगदीशपुर पहुंचे और शानदार जीत हासिल की. 26 अप्रैल तक वे जीवित रहे. ये चार दिन आजादी के थे.
धरमन बाई के लिए मसजिदें बनवायीं
आज कुंवर सिंह को देखने का हमारा नजरिया बदल गया है. हम उन्हें खास जाति तक सीमित कर देखते हैं, मगर जब जानेंगे कि उस वक्त उनके अगल-बगल सहयोगी कौन थे, तो नजरिया बदल जायेगा. उनकी दूसरी पत्नी धरमन बाई मुसलिम थीं. धरमन उनके साथ युद्ध अभियान में भी गयी थीं. उन्होंने कुंवर सिंह को आर्थिक सहयोग भी किया. कुंवर सिंह ने धरमन के लिए आरा शहर में दो मसजिदें बनवायीं.
उनकी बहन करमन बाई के नाम पर आज भी आरा शहर में एक मोहल्ला है. युद्ध व प्रशासन में उनके सहयोगी सभी समुदाय के थे. वे सवर्ण थे, मगर अंग्रेजों ने कई जगह लिखा है कि आरा के विद्रोह में ज्यादातर निचले तबके के लोगों ने सक्रिय भागीदारी की थी. उनमें कुंवर सिंह को लेकर गजब का क्रेज था.
किताबों और फिल्मों में कुंवर सिंह
कुंवर सिंह पर कई किताबें लिखी गयीं. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण काली किंकर दत्त द्वारा लिखित पुस्तक बायोग्राफी ऑफ कुंवर सिंह एवं अमर सिंह है, जिसे पटना के केपी जायसवाल इंस्टीट्यूट ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी वर्ष के मौके पर 1957 में प्रकाशित किया था. नेशनल बुक ट्रस्ट ने हिंदी में कुंवर सिंह और 1857 की क्रांति नामक पुस्तक का प्रकाशन किया था, जिसके तीन लेखक हैं- डॉ सुभाष शर्मा, अनंत कुमार सिंह और जवाहर पांडेय.
श्रीनिवास कुमार सिन्हा ने पुस्तक लिखी है, वीर कुंवर सिंह, द ग्रेट वारियर ऑफ 1857. इसे कोणार्क प्रकाशन ने 1997 में प्रकाशित किया है. कुंवर सिंह के जीवन पर प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने एक धारावाहिक का निर्माण भी किया था. 1992 में बने इस धारावाहिक का नाम था विद्रोह. इस धारावाहिक की शूटिंग बेतिया में हुई थी. विजय प्रकाश इसके लेखक थे और सतीश आनंद ने कुंवर सिंह की भूमिका निभायी थी.
जब अदालत में लगी पुकार-आरा शहर हाजिर हो
कटघरे में शहर : स्वतंत्रता संग्राम में पूरे भारत में एकमात्र किसी शहर पर चला था बगावत का मुकदमा
पूरे भारत में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एकमात्र शहर आरा पर बगावत के आरोप में मुकदमा चला था. इसमें अभियुक्त कोई व्यक्ति नहीं, आरा शहर था.
शहर पर 1858 के अधिनियम x के तहत बगावत का आरोप था. सुनवाई कर रहे मजिस्ट्रेट डब्ल्यू जे हर्शेल के सामने आरोप से संबंधित सबूत व गवाह पेश किये गये थे. ‘गवर्नमेंट वर्सेस द टाउन ऑफ आरा’ मुकदमा 1859 में चला.
दरअसल, अंग्रेज पूरे आरा शहर से आरा हाउस की घेराबंदी का बदला लेना चाहते थे. आरा पर कब्जा के बाद 6 अगस्त, 1857 को ड्रम-हेड कोर्ट मार्शल के तहत 16 लोगों को फांसी देने के बाद भी अंग्रेजों की नाराजगी शांत नहीं हुई थी.
आंदोलन में पूरे शहर के लोगों की भागीदारी से वे काफी नाराज थे. उस वक्त आरा के सत्र न्यायाधीश आर्थर लिटिलडेल थे. वे 26 जुलाई से 2 अगस्त तक आरा हाउस में घिरे हुए थे. 3 अगस्त को मेजर विन्सेंट आयर के फैजी दल द्वारा गजराजगंज-बीबीगंज में मुठभेड़ के बाद आरा पर फिर से कब्जा कर लेने के दिन से कोर्ट मार्शल की डायरी लिटिलडेल ने रखनी शुरू की.
6 अगस्त के कोर्ट मार्शल का वर्णन डायरी में था. जिन 16 लोगों को फांसी दी गयी थी, उनमें से तीन आरा शहर के थे. फांसी पर चढ़े गुलाम याह्मया कुंवर सिंह के वकील थे और उन्हें आरा का प्रोभेस्ट मार्शल कुंवर सिंह ने नियुक्त किया था. विद्रोहियों द्वारा गठित सरकार में मजिस्ट्रेट की भूमिका इन्होंने निभायी थी.
मैं आरा शहरवासियों को आरोपमुक्त करता हूं
सबूतों और गवाहों के बाद मजिस्ट्रेट हर्शेल ने फैसले में कहा- उस समय शहर जो भी सजा का अधिकारी रहा हो, दो साल बीत जाने के बाद मामला बदल गया है. शहर ने क्या नहीं किया, उसकी जगह इस बात पर जोर देना चाहिए कि शहर ने क्या किया था. प्रामाणिक रूप से यह बात स्थापित हो चुकी है कि लोगों ने देसी अधिकारियों की उस समय रक्षा की जब सारा शहर बागी सिपाहियों से भरा हुआ था.
इन अधिकारियों की सरगर्मी से तलाश की जा रही थी. शहर के लोगों ने उस समय क्षतिग्रस्त मकान की मरम्मत के लिए खर्च करने की पेशकश की. बाद में सरकारी सैनिकों की अनुपस्थिति का फायदा उठा कर विद्रोहियों ने शहर पर फिर हमला बोला, तो शहर के लोगों ने प्रतिरोध किया. लोगों ने कुछ अवसरों पर जो उदासीनता दिखायी, वह दुखद है.
मेरे विचार में शहर अौर वासियों का आचरण अन्य जिले-शहर की तुलना में बेहतर है, इसलिए मैं शहरवासियों को आरोपमुक्त करता हूं. प्रदेश सरकार ने हर्शेल के निर्णय को न्यायपूर्ण बताया और आयुक्त को निर्देश दिया कि आरा शहर पर दंड लगाने के पहले प्रस्ताव पर अब आगे और कार्यवाही न की जाये.
गदर के सहयोगी
पीर अली
1857 आंदोलन के संगठक थे. पटना में अंगरेजी राज के विरोध में पहली बार निकलनेवाले जुलूस का नेतृत्व किया था.
जिवधर सिंह
अरवल के खुमैनी के रहनेवाले जिवधर गया, जहानाबाद और पलामू के इलाकों में अंग्रेजों के विरोध में हथियार उठाया था.
निशान सिंह
सासाराम के रहनेवाले निशान कुंवर सिंह के प्रधान सहयोगियों में से एक थे. उन पर एक हजार रुपये इनाम की घोषणा की गयी थी.
राजा मेंहदी अली खां
नवादा के अंतीपुर के रहनेवाले राजा मेंहदी अली खां का नाम विद्रोहियों के नाम की सूची में पहले स्थान पर था.
हरकिशन सिंह
शाहाबाद के बढ़ारी गांव के हरकिशन सिंह की भूमिका विद्रोह में कमांडर की थी. इनके चार भाई भी विद्रोह में शामिल थे.
राज अर्जुन सिंह
पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह ने विद्रोह का एलान किया था. उन्होंने कहा था जाकर साहबों से कह दो कि हमलोग युद्ध करने को तैयार हैं.
अमर सिंह
कुंवर सिंह के छोटे भाई अमर सिंह ने रोहतास की पहाड़ियों में मजबूत छापामार युद्ध चलाया था. उन पर अंग्रेजों ने पांच हजार रुपये इनाम रखा था.
वारिस अली
पटना के मुसलमानों के साथ राजद्रोहात्मक पत्र व्यवहार के कारण अंग्रेजों ने इन्हें 23 जून,1857 को गिरफ्तार किया. बाद में फांसी दे दी.
लुत्फ अली खां
1857 विद्रोह के दौरान इन पर अपने मकान में गुप्त बैठक करने का आरोप कमिश्नर विलयम टेलर ने लगाया. लुत्फ अली पटना के मशहूर बैंकर थे.
अली करीम
वारिस अली की गिरफ्तारी के बाद इन पर सरकार के खिलाफ बगावत का आरोप लगा. अंग्रेजी सरकार ने इन पर दो हजार रुपये इनाम रखा था.
जवाहिर रजवार
नालंदा व नवादा में 1857 में छापामार युद्ध इन्होंने शुरू की थी. देवघर के विद्रोहियों का जत्था नवादा होकर गुजरा, तो बगावत का झंडा बुलंद किया.
हैदर अली
विद्रोह के दौरान हैदर अली ने राजगीर को कब्जे में ले लिया था. वे नालंदा के पहले व्यक्ति थे , जिन्हें फांसी की सजा दी गयी थी.
रंजीत ग्वाला
शाहाबाद के शाहपुर के रंजीत को विद्रोह के आरोप में काला पानी की सजा मिली. बयान में कहा- मेरा नाम रंजीत राम है, मैं जाति का ग्वाला हूं.
जग्गू दीवान
सिंहभूम के जग्गू ने अंग्रेजी राज का पुरजोर विद्राेह किया. भाषणों से जग्गू आदिवासियों में जोश भरते थे. कोल विद्रोह भड़काने का भी आरोप लगा.
भुट्टो दुसाध
राजगीर परगना के भुट्टो को विद्रोह के आरोप में 14 साल की सजा मिली. एक हजार लोगों के साथ राजगीर पुलिस चौकी पर हमला करने का आरोप था.
जय मंगल पांडेय
छपरा के खिरगांव जय मंगल पांडेय रामगढ़ छावनी में सूबेदार थे. इन्हीं के नेतृत्व में डाेरंडा बटालियन ने विद्रोह किया. ये डोरंडा से रांची बागी सैनिकों के साथ निकले थे.
जमादार माधव सिंह
शेरघाटी के डुमरी गांव के माधव ने पलामू से सम्मलपुर के लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट किया. इन पर एक हजार इनाम की घोषणा थी.
नादिर अली
जयमंगल व माधव सिंह के साथ अंग्रेजों के छक्के छुड़ाये. बिहारशरीफ के चरकोसा गांव के नादिर की चतरा, हजारीबाग, डोरंडा, रांची में विद्रोह में मुख्य भूमिका थी.
सरनाम सिंह
राेहतास के सरनाम ने अमर सिंह के साथ छापामार युद्ध में सक्रिय भूमिका निभायी थी. उन पर आठ अधिकारियों पर हत्या का आरोप था.
गणपत राय
छोटानागपुर के पोठकया के गणपत ने हजारीबाग और रांची में विद्रोह शुरू होने की खुशी में साथियों को संदेश भेजा. विद्रोह में जमीन जब्त कर ली गयी.
नीलांबर-पीतांबर
पलामू के जंगलों में नीलांबर-पीतांबर भाइयों ने छापामार युद्ध शुरू की. लोगों को संगठित किया. नीलांबर को अक्तूबर, 1859 में फांसी दे दी गयी थी.
खुशियाल सिंह
अंग्रेजी राज को टैक्स नहीं देने की घोषणा वजीरगंज के 14 गांवों ने कर दी थी. इन गांवों में विद्रोह का बिगुल खुशियाल सिंह ने फूंका था.
अयोध्या सिंह
20 रेजिमेंट नेटिव इंफैंट्री के अयोध्या सिपाही थे. वे भोगता विद्रोहियों के साथ हथियार उठा कर पलामू व कैमूर की पहाड़ियों में झंडा बुलंद करते रहे.
कुरबान अली
रांची समाहरणालय में कुरबान नाजीर के रूप में कार्यरत थे. 1857 के विद्रोह के बाद सरकारी संपत्ति की लूट व अन्य आरोप में काला पानी की सजा हुई.
ठाकुर विश्वनाथ
छोटानागपुर में 1857 के विद्रोह में विश्वनाथ ने महती भूमिका निभायी थी. 31 जुलाई, 1857 को हजारीबाग में रामगढ़ बटालियन में विद्रोह हुआ था.
सलामत-अमानत
देवघर के रोहिनी में 12 जून, 1857 के विरोध के महानायक सलामत अली -अमानत अली थे. मेजर मैकडोनाल्ड व कई अधिकारियों पर हमला किया था.