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बुद्ध का धर्म ज्ञान

ओशो धर्म दो तरह के हो सकते हैं. तुम्हारे भीतर का पुरुष अस्तित्व में छिपी हुई स्त्री को खोजे, तो एक तरह का धर्म होगा और तुम्हारे भीतर की छिपी स्त्री अस्तित्व में छिपे पुरुष को खोजे तो दूसरी तरह का धर्म होगा. इसी से भक्ति और ज्ञान का भेद है. भक्ति का अर्थ हुआ, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 28, 2018 5:18 AM
ओशो
धर्म दो तरह के हो सकते हैं. तुम्हारे भीतर का पुरुष अस्तित्व में छिपी हुई स्त्री को खोजे, तो एक तरह का धर्म होगा और तुम्हारे भीतर की छिपी स्त्री अस्तित्व में छिपे पुरुष को खोजे तो दूसरी तरह का धर्म होगा. इसी से भक्ति और ज्ञान का भेद है. भक्ति का अर्थ हुआ, तुम्हारे भीतर की स्त्री जगत में छिपे पुरुष को खोज रही है. राधा, कृष्ण को खोज रही है. ज्ञान का अर्थ हुआ, तुम्हारे भीतर का छिपा पुरुष अस्तित्व में छिपी स्त्री को खोज रहा है.
बुद्ध का धर्म ज्ञान का धर्म है. नारद, मीरा, चैतन्य का धर्म भक्ति का, प्रेम का धर्म है. तुमने कभी ख्याल किया, हिंदू कभी भी ऐसा नहीं कहते- कृष्ण-राधा, वे कहते हैं- राधा-कृष्ण. राधा को पहले रखते हैं, कृष्ण को पीछे. कहते हैं- सीताराम. सीता को पहले रख देते हैं, राम को पीछे. यह अकारण नहीं है, यह चुनाव है. इसमें जाहिर है कि हमारे भीतर का स्त्रीत्तत्व जगत में छिपे पुरुषत्तत्व को खोज रहा है, इसलिए स्त्री पहले है. राधा पहले, कृष्ण पीछे.
ज्ञानी कुछ और ढंग से खोजता है. अगर सूफियों से पूछो कि परमात्मा का क्या रूप है, तो वे कहते हैं- परमात्मा प्रेयसी है. हिंदू भक्तों से पूछो तो वे कहते हैं, परमात्मा पुरुष है, प्रेयसी हम हैं. हम उसकी सखियां हैं. सूफी कहते हैं कि हम पुरुष, वह हमारी प्रियतमा. इसलिए सूफियों की कविता में पुरुष की तरह परमात्मा का वर्णन नहीं है, स्त्री की तरह वर्णन है, प्यारी, प्रियतमा की तरह.
ये दो संभावनाएं हैं धर्म की. बुद्ध का धर्म, तुम्हारे भीतर जो पुरुष है, तुम्हारे भीतर जो विचार, ज्ञान, विवेक, तुम्हारे भीतर तर्क, संदेह, उस सबको नियोजित करना है सत्य की खोज में.
बुद्ध के साथ तुम्हारी बुद्धि लगेगी काम में. तुम्हारे हृदय की कोई जरूरत नहीं. भावना, समर्पण इत्यादि की कोई जरूरत नहीं है. बुद्ध ने धर्म को एक नया आयाम दिया, ताकि तुम्हारे भीतर जो पुरुष छिपा है, वह कहीं वंचित न रह जाये.
तो तुम सोच लेना, अगर तुम्हारे भीतर संदेह की क्षमता है तो तुम श्रद्धा की झंझट में मत पड़ो. अगर तुम पाते हो संदेह में कुशल हो, तो श्रद्धा की बात भूलो. अगर तुम पाते हो कि तुम्हारे भीतर संकल्प का बल है, तो तुम समर्पण को छोड़ो. अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे पास तलवार की धार की तरह बुद्धि है, तो तुम उसका उपयोग कर लो. उसे ठीक से पहचान लो और उसका उपयोग कर लो.
(प्रस्तुति : ओशोधारा, मुरथल, हरियाणा)

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