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बुद्ध पूर्णिमा 30 अप्रैल को, स्वयं के अनुभवों से ही निकलेगा अपना सत्य

II डॉ मयंक मुरारी II चिंतक और लेखक murari.mayank@gmail.com महात्मा बुद्ध के जीवन की एक कथा है. गंधकुटी के चारों ओर जूही के फूल खिले थे. शास्ता ने भिक्षुओं से उन फूलों को दिखाकर कहा- इन फूलों को देखते हो. इन सुंदर, खिले और सुवासित फूलों को ध्यान से देखो. इनमें कई राज छिपे हैं. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 28, 2018 5:28 AM

II डॉ मयंक मुरारी II

चिंतक और लेखक

murari.mayank@gmail.com

महात्मा बुद्ध के जीवन की एक कथा है. गंधकुटी के चारों ओर जूही के फूल खिले थे. शास्ता ने भिक्षुओं से उन फूलों को दिखाकर कहा- इन फूलों को देखते हो. इन सुंदर, खिले और सुवासित फूलों को ध्यान से देखो.

इनमें कई राज छिपे हैं. ऐसे फूल तुम भी हो सकते हो. दूसरे फूल सुबह खिलते हैं, सांझ को मुरझा जाते हैं. ऐसा ही मनुष्य का जीवन है. यह आया है और चला जायेगा. इसी प्रकार हमारे जीवन का दुख क्या है? हमारे जीवन का मौलिक दुख यही है कि जो रुकेगा नहीं, उसे हम रोकना चाहते हैं. जो अस्थायी धन है, उसे हम स्थायी मान बैठे हैं. यह मौलिक दुख है कि जो हो नहीं सकता, उसको सदा-सर्वदा के लिए अपनाना चाहते हैं.

दरअसल, जीवन एक व्यवस्था है. ऐसी व्यवस्था, जो चेतन और गतिमान है. इसमें लगातार बदलाव होता रहता है. यही जिंदगी का दर्शन भी है. सनातन सत्य के आर्य सूत्र हमें यही बताते और दिखाते हैं कि जीवन की अर्थ किन बातों में सिमटा है. यह क्षणभंगुर को पकड़ने में नहीं, बल्कि सत्य को जानने में है. सार यह है कि जब सब चला जाना है, तो इतनी योजनाएं बनाने का अर्थ क्या है? अतीत चला गया, भविष्य भी चला आयेगा. वर्तमान सामने है. बस उसका उत्सव मनाया जाये.

इस सत्य के लिए ही एक राजकुमार गौतम ने संसार के समस्त ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया. राजपाट, पत्नी और पुत्र, यहां तक कि इस शरीर का मोह भी. समस्त को छोड़कर सालों सत्य की खोज में वह भटकता रहा. एक गुरु से दूसरे गुरु और अंतत: खुद में समाहित होकर. एक दिन पीपल के पेड़ के नीचे उसे ज्ञान प्राप्त हुआ और वह गौतम से महात्मा बुद्ध बन गया. बुद्ध के अंतिम दिनों में आनंद ने जिज्ञासा प्रकट की कि भंते अब सत्य के बारे में हमलोगों को कुछ बताएं.

बुद्ध ने सामने पतझड़ में बिखरी पत्तियों की ओर इशारा करते हुए बताया- आनंद, मैंने मुट्ठीभर सत्य तुम्हें दिये हैं, पर इन पत्तियों की तरह असंख्य सत्य बिखरे पड़े हैं. क्या यह सही नहीं कि इसी सत्य की रक्षा के लिए सुकरात विषपान कर गये, लेकिन सत्य पर अडिग रहे. लेकिन आज जब यह कहा जाता है कि हमारा सत्य तुम्हारे सत्य से बड़ा है.

सत्य की यह मृगमरीचिका ही है कि इस दौर में एक बार फिर से लोगों में संन्यास और अध्यात्म की बातें होने लगी हैं. यह कितना स्वत:स्फूर्त है और कितना दिखावा, कहना कठिन है. लेकिन बुद्ध के जीवन की एक कहानी है. श्रवस्ती का एक निर्धन पुरुष हल चलाकर किसी भांति जीवन यापन करता था. वह अत्यंत दुखी था, जैसे सभी प्राणी दुखी हैं.

बुद्ध की दृष्टि पड़ी, वह संन्यासी बन गया, लेकिन अतीत से उसका संबंध टूटता नहीं है. संन्यास लेने के बाद भी वह उदास रहता था. इस घटना के बाद अपनी देशना में महात्मा बुद्ध ने कहा कि मनुष्य अपना स्वामी आप है. आप ही अपनी गति है. यह सच है कि गरीब दुखी हैं अपनी गरीबी को लेकर और अमीर दुखी हैं अपनी अमीरी में. जिंदगी कब बीत गयी, पता ही नहीं चला. जब मां का देहांत हुआ, तो पता चला कि जीवन दो सांसों के बीच है.

बस, मॉनिटर पर मां के दिल की धड़कन, उसकी नब्ज, उसकी सांसें सब सपाट थीं, सीधी. यानी जीवन तभी है, जब उसमें उन्नति हो, अवनति हो. अंतिम समय यही संदेश दे रहा था- बेटा, जीवन आड़ा-तिरछा हो, वह अच्छा. घबराना क्या? सेकेंड के भावों ने मुझे फ्लैशबैक में कर दिया, जहां जीवन कभी भी सीधा और सपाट नहीं रहा. कदाचित इस कारण ही जीवन के कई झंझावतों को झेल गया.

बुद्ध के जीवन का सत्य था करुणा. हमारे जीवन का सत्य क्या है, कभी हमने यह सोचने का प्रयास किया है? तथागत जीवनभर यह कहते रहे कि जो मेरे पास है, ठीक उतना ही तुम भी लेकर पैदा हुए हो. हमारी बुद्धि, हमारी वाणी और चिंतन में कोई फासला नहीं है.

अंतर है कि बुद्ध ने अपने जीवन के तारों को कसा, ताकि संगीत पैदा हो सके. इस संगीत को जीवन में उतारने के लिए हमें अपना सत्य खुद खोजना होगा, जैसे राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा और नानक ने खोजा था. जीवन में सत्य बहुत मिलेंगे, लेकिन वह अपना सत्य नहीं होगा. अपना सत्य खुद खोजना होगा. वह स्वयं के अनुभव से निकलेंगे. एक सत्य की खोज हो. एक ज्ञान की बात हो. वह हमारे हजारों अनुभवों का निचोड़ होंगे. आधुनिक भारत में लोग अभी तक यह समझ नहीं पाये कि उधार के ज्ञान से सत्य की खोज नहीं की जा सकेगी.

बुद्ध पूर्णिमा : 30 अप्रैल

बुद्ध कहते हैं

अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।

तस्मा संज्जमयत्तानं अस्सं भद्रं व वाणिजो॥

अर्थात मनुष्य अपना स्वामी आप है. आप ही अपनी गति है. आप ही अपना दीप बनो.

वह सत्य क्या है?

जीवन से जुड़ना है, तो तनिक रुककर महात्मा बुद्ध की तरह सोचना होगा. प्यास तो हम सभी के भीतर है. भले यह बात किसी को पता है और किसी को नहीं, क्योंकि कई होश में हैं ही नहीं. मिलन कुंदेरा ने एक उपन्यास लिखी- स्लोनेस. उसमें वह पूछते हैं कि धीमी गति का आनंद क्यों खो गया है?

पहले हम आराम से आकाश को निहारते थे. प्रेम भी धीरे-धीरे ही परवान चढ़ता है, लेकिन लोग ध्यान और सुख को तत्काल या इंस्टेंट चाहते हैं. ऐसे ही महात्मा बुद्ध हमसे सवाल करते हैं कि वह सत्य क्या है? जीवन की गुत्थियों को सुलझाते हुए दिव्यता का आरोहण करना ही सत्य है. लोग सोचते हैं कि संन्यस्त हो गये तो सब हो गया, दीक्षा मिल गयी, तो आध्यात्मिक हो गये. यह तो शुरुआत है. यात्रा तो अंदर की करनी होगी.

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