बड़ी जीत से चूक गयी भारतीय जनता पार्टी
II प्रीति नागराज II वरिष्ठ पत्रकार कर्नाटक चुनाव के नतीजों से यह स्पष्ट दिख रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के अनेक केंद्रीय नेताओं के धुआंधार प्रचार के बावजूद उसे बहुमत नहीं हासिल हो पाया है. बीते चुनावों पर यदि नजर डालें, तो वर्ष 2008 में येदियुरप्पा ने जब भाजपा की सरकार बनायी थी, तो […]
II प्रीति नागराज II
वरिष्ठ पत्रकार
कर्नाटक चुनाव के नतीजों से यह स्पष्ट दिख रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के अनेक केंद्रीय नेताओं के धुआंधार प्रचार के बावजूद उसे बहुमत नहीं हासिल हो पाया है.
बीते चुनावों पर यदि नजर डालें, तो वर्ष 2008 में येदियुरप्पा ने जब भाजपा की सरकार बनायी थी, तो उन्होंने अकेले दम पर इससे कुछ अधिक सीटें (करीब 110) भाजपा को जिताने में कामयाबी हासिल की थी. उस लिहाज से देखा जाये, तो इस बार जिस तरह से भाजपा का पूरा केंद्रीय नेतृत्व राज्य विधानसभा चुनाव प्रचार में जुटा था, नतीजे उस अनुरूप नहीं आये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस विधानसभा चुनाव के दौरान करीब 21 रैलियां की थीं. लेकिन इसके बावजूद भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पायी है.
यह इस बात को इंगित करता है कि क्षेत्रीय नेतृत्व को बढ़ावा दिया जाना चाहिए था. दरअसल, भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व यहां की समस्याओं और भाषा से खुद को जोड़ नहीं पा रहा था. संवाद कायम करने के लिए उन्हें अनुवादक की जरूरत होती थी. भाजपा के वक्ताओं ने मतदाताओं को यह नहीं बताया कि राज्य के लोगों की समस्याओं का उनके पास किस तरह का समाधान है और वे इसे किस प्रकार से लागू करेंगे. पार्टी के पास दक्षिण भारत में आगे बढ़ने का यह अच्छा मौका था, लेकिन जिन चीजों पर उसे फोकस करना चाहिए था, उन पर नहीं किया गया.
भाजपा के शीर्ष नेता राज्य के मतदाताओं को यह नहीं बता पाये कि सत्ता में आने के बाद वे पड़ोसी राज्यों से किस तरह अपना संवाद बनायेंगे और उन सभी से जुड़ी साझा समस्याओं का हल कैसे कर पायेंगे. इससे लोगों में यह संदेश गया कि पड़ोसी राज्यों से निबटने में शायद ये कामयाब नहीं हो पायेंगे.
खासकर ऐसे दौर में जब तमिलनाडु और अन्य पड़ोसी राज्यों के साथ नदी जल बंटवारे में व्यापक विवाद कायम रहा हो. जबकि इस राज्य की यह एक बड़ी समस्या रही है. मतदाताओं को इन सब के बारे में स्पष्ट नजरिया प्रदान करने में शायद भाजपा कामयाब नहीं हुई.
हालांकि, भाजपा की ओर से योगी आदित्यनाथ की रैलियों के आयोजन के रूप में सांप्रदायिक छवि का फायदा उठाने की पूरी कोशिश की गयी, और 40 के करीब उन्होंने सभाएं की, लेकिन उम्मीद के अनुकूल नतीजे नहीं आये. वैसे कर्नाटक में योगी की लोकप्रियता इतनी नहीं है कि मतदाताओं पर उसका खास असर हो सके.
कांग्रेस का वोट शेयर जरूर बढ़ा है, लेकिन हमारे यहां चुनाव के गणित का अपना अलग हिसाब है, जिसके मुताबिक भाजपा को अधिक सीटें मिली हैं.
फिलहाल ऐसा लगता है कि सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से अलग रखने के लिए कांग्रेस और जेडीएस साथ आ सकते हैं. वैसे भी चुनाव संपन्न हो जाने के बाद विरोधी दलों के बीच की खटास काफी कम हो जाती है और वे भविष्य के बारे में ज्यादा सोचते हैं.
इन चुनावों में लिंगायत वोट अधिकांश भाजपा को मिले. हालांकि, कांग्रेस ने इस मामले में बढ़त लेने के लिए अपनी ओर से ऐन मौके पर रणनीति बनायी, लेकिन वह उसके विपरीत काम कर गयी.
दूसरी ओर, येदियुरप्पा उसी समुदाय से आते हैं, लिहाजा भाजपा को शायद उसका पूरा फायदा मिल गया. मुस्लिमों का पूरा वोट कांग्रेस को नहीं मिल पाया है. कुछ इलाकों में भाजपा को भी मुस्लिम वोट मिले हैं. चूंकि येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय से आते हैं, ऐसे में इस समुदाय का अधिकांश वोट भाजपा के पक्ष में गया है.
इस चुनाव में लोकल फैक्टर की बात की जाये, तो भाजपा की ओर से यदि व्यापक संख्या में प्रमुख नेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों समेत प्रधानमंत्री की रैली नहीं हुई होती, तो शायद 10 से 20 सीटें और कम आतीं. ऐसे में कांग्रेस के लिए सत्ता के समीकरण तक पहुंचने में आसानी होती. इसलिए इतना तो तय है कि लोकल फैक्टर से यह चुनाव बहुत अधिक प्रभावित नहीं हुआ है, जैसाकि आम तौर पर विधानसभा के चुनाव में होता रहा है.