कर्नाटक चुनाव 2018 : जीत और हार के उलझे आयाम, तीन बड़े क्षेत्रों में पिछड़ गयी कांग्रेस

कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने से मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर मुकाबला बड़े ही रोचक मुकाम पर जा पहुंचा है. इस चुनाव ने पूर्ववर्ती आकलनों को भी गलत साबित किया है. राज्य के विभिन्न इलाकों में मतदाताओं की राजनीतिक पसंद और रुझान में भी बड़े बदलाव दिख […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 16, 2018 4:53 AM
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कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने से मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर मुकाबला बड़े ही रोचक मुकाम पर जा पहुंचा है. इस चुनाव ने पूर्ववर्ती आकलनों को भी गलत साबित किया है. राज्य के विभिन्न इलाकों में मतदाताओं की राजनीतिक पसंद और रुझान में भी बड़े बदलाव दिख रहे हैं.
तीन मुख्य पार्टियांे के प्रचार-प्रसार और अलग-अलग क्षेत्रों के मुद्दों के अलावा राज्य सरकार के प्रति मतदाताओं की नाराजगी भी एक कारक रही. चुनाव परिणामों के विविध पहलुओं के विश्लेषण से राज्य की राजनीति के वर्तमान और भविष्य को समझा जा सकता है. जानकारों की राय के साथ प्रस्तुत है विशेष पेज…
तीन बड़े क्षेत्रों में पिछड़ गयी कांग्रेस
आरती जेरथ
वरिष्ठ पत्रकार
भाजपा के बड़ी पार्टी बनने के चुनावी पहलुओं को देखें, तो कर्नाटक चुनाव में सबसे अच्छे परिणाम तीन जगहों से आये हैं: मुंबई-कर्नाटक से, कोस्टल-कर्नाटक से और सेंट्रल-कर्नाटक से. चुनावों में जहां कोस्टल-कर्नाटक में हिंदू वाेटों का काफी ध्रुवीकरण हुआ है, जिसने भाजपा को बढ़त दिलायी है. वहीं मुंबई-कर्नाटक और सेंट्रल-कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के वोटर भाजपा की ओर गये हैं.
हालांकि, पूरे कर्नाटक में भाजपा का वोट शेयर ज्यादा नहीं है, लेकिन अगर इन तीन क्षेत्रों से भाजपा का वोट शेयर देखते हैं, तो वह ज्यादा नजर आता है. ऐसे में जब हम यह देखते हैं कि कांग्रेस का वोट शेयर ज्यादा होते हुए भी भाजपा को ज्यादा सीटें क्यों मिलीं, तो यह थोड़ा मिसलीडिंग लगता है.
इसलिए, कर्नाटक चुनाव परिणाम को कई क्षेत्रों में बांटकर देखना होगा, तभी समझ में आयेगा कि भाजपा को बढ़त कैसे मिली. इस लिहाज से मुंबई-कर्नाटक से, कोस्टल-कर्नाटक से और सेंट्रल-कर्नाटक, ये तीनों क्षेत्र बहुत ही अहम हो जाते हैं.
सिद्धारमैया सरकार ने चुनावों से पहले लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने की मांग मान ली थी. इसको भाजपा ने बांटने की राजनीति से जोड़ दिया और लिंगायत समुदाय के लोग शायद गुमराह हो गये. इसलिए कांग्रेस को इससे कोई फायदा नहीं मिला.
दरअसल, कर्नाटक में येदियुरप्पा सबसे बड़े लिंगायत नेता हैं, इसलिए जब भाजपा ने येदियुरप्पा को सीएम उम्मीदवार बनाया, तो लिंगायतों ने भाजपा की तरफ रुख कर लिया. मुंबई-कर्नाटक में तो भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया है.
सिर्फ लिंगायत ही नहीं, कुछ दलित और मुस्लिम वोट भी भाजपा की ओर गये हैं. कर्नाटक का पूरा मुद्दा कास्ट का था और लिंगायत का मुद्दा भी कास्ट पॉलिटिक्स से निकला मुद्दा है.
जिस तरह से जेडीएस को वोक्कालिंगा का वोट मिला है, उससे साफ है कि कास्ट फैक्टर ने भाजपा की सीटें बढ़ायी हैं और कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है. सीटों को जीतने के मामले में कांग्रेस की चुनावी रणनीति बहुत ज्यादा कामयाब नहीं हो पायी.
एक दूसरी बात यह भी है कि जिस तरह से नरेंद्र मोदी नौजवानों को संबोधित करते हैं, उस तरह से कांग्रेस का कोई नेता नहीं करता. और शुरू से ही मोदी युवाओं को फोकस करके बात करते रहे हैं, उन्हें आकर्षित करते रहे हैं. चुनावी रैलियों में यह बात स्पष्ट देखी गयी थी. यही वजह है कि कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में या यह कह लें कि शहरी क्षेत्रों में यह बात साफ दिखती है और वहां युवाओं को लुभाने में भाजपा कामयाब रही है.
शहरी युवा हमेशा से मोदी के नाम पर वोट देने की शर्तों पर ही अपने आस-पास की राजनीति को देखता रहा है. कांग्रेस इन छोटी-बड़ी बातों को लेकर नहीं चल पायी, इसलिए उसे पिछली बार की तरह जीत दोहराने का मौका नहीं मिल पाया.
जहां तक गांवों से कांग्रेस के कट जाने या विमुख होने का मसला है, तो यह बात कांग्रेस-भाजपा दोनों पर लागू होती है. लेकिन, शहरी कर्नाटक में कांग्रेस को ज्यादा नुकसान हुआ और एंटीइन्कंबेंसी भी इसमें एक बड़ा फैक्टर देखा जा सकता है.
दक्षिण में भाजपा की बड़ी धमक
कर्नाटक के चुनाव में अन्य मुद्दों के साथ दक्षिण भारत की अस्मिता का प्रश्न भी बहस में था. चुनाव से पहले 15वें वित्त आयोग द्वारा राज्यों को राशि के आवंटन पर दक्षिणी राज्य अपनी आपत्ति जता चुके हैं. कुछ महीने पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और तेलुगू देशम पार्टी के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू ने भाजपानीत एनडीए से अपना नाता तोड़ लिया था. उन्होंने कर्नाटक के मतदाताओं से भाजपा को हराने की अपील भी की थी.
हैदराबाद-कर्नाटक इलाके में बड़ी संख्या में तेलुगू मतदाता हैं और यह उम्मीद जतायी जा रही थी कि इन पर नायडू की अपील का असर होगा, किंतु इस क्षेत्र में भाजपा अपने छह सीट के आंकड़े को 20 के करीब ले लायी है. भाजपा को बुनियादी रूप से उत्तर भारत की पार्टी के रूप में चिह्नित करने के प्रयास भी हुए थे. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कुछ सभाओं में कहा था कि इस चुनाव को वह दक्षिण में प्रवेश के द्वार के रूप में देख रहे हैं. निश्चित रूप से यह नतीजे उनके लिए बहुत उत्साहवर्द्धक हैं.
तमिलनाडु के उप मुख्यमंत्री और अन्ना द्रमुक के नेता ओ पनीरसेल्वम ने तो ‘दक्षिण भारत में शानदार प्रवेश’ कह कर अमित शाह को बधाई भी दी है. दक्षिण भारत में कर्नाटक के अलावा भाजपा को आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में अपनी स्थिति मजबूत करने की जरूरत हैं, जहां उसकी कुछ जमीन पहले से बनी हुई है.
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव कांग्रेस और भाजपा से इतर विपक्षी पार्टियों का एक गठबंधन बनाने के प्रयास में हैं. दक्षिण भारत के पांच राज्यों में लोकसभा की 130 सीटें हैं और ये 2019 के लिए बहुत मायने रखती हैं. कर्नाटक की जीत से भाजपा को निश्चित रूप से हौसला मिला है, साथ ही यह राहत भी मिली है कि आम चुनाव में उत्तर भारत की कुछ संभावित नुकसानों की भरपाई वह दक्षिण से कर सकती है.
राज्यपाल जिसका दावा उचित मानेंगे, उसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगे. यह उम्मीद की जानी चाहिए िक वह इस आधार पर फैसला लेंगे कि सदन में किस दल के पास पूर्ण बहुमत है. वह उस व्यक्ति को ही सीएम नियुक्ति करेंगे, जिसके पास पूर्ण बहुमत की दावेदारी होगी.
-सुभाष कश्यप, संविधानविद्
भाजपा बहुमत से दूर रह गयी. कांग्रेस और जेडीएस मिलकर गठबंधन सरकार बनाने की अपनी इच्छा जाहिर कर चुके हैं. ऐसे में राज्यपाल को उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए. अगर भाजपा को आमंत्रित किया जाता है, तो इससे जोड़-तोड़ को बढ़ाने का प्रयास माना जायेगा, और यह गोवा-मणिपुर से भी ज्यादा खराब होगा.
-प्रशांत भूषण, वरिष्ठ अधिवक्ता
रोचक तथ्य
वर्ष 1996 में जब एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने, तो सबसे बड़ी पार्टी रही भाजपा, दूसरे नंबर की पार्टी रही कांग्रेस और फिर जनता दल. आज 22 साल बाद भाजपा सबसे बड़ी पार्टी, फिर कांग्रेस और जेडीएस. सवाल है िक क्या उनके बेटे एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनेंगे? फिलहाल ऐसा नहीं लगता.
-दिबांग, वरिष्ठ टीवी पत्रकार
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