मोदी सरकार के 4 साल : अर्थव्यवस्था का उभार सकारात्मक, प्रगति और परिवर्तन का रहा दौर
मोदी सरकार के चार वर्षों में नीतियों, पहलों और घोषणाओं का निरंतर सिलसिला रहा है. अनेक स्तरों पर प्रगति और परिवर्तन का दौर रहा है, तो कुछ क्षेत्रों में अपेक्षित सफलताएं हासिल नहीं हो सकी हैं. नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक फैसले लिये गये, वहीं इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में तेजी से काम हो रहा […]
मोदी सरकार के चार वर्षों में नीतियों, पहलों और घोषणाओं का निरंतर सिलसिला रहा है. अनेक स्तरों पर प्रगति और परिवर्तन का दौर रहा है, तो कुछ क्षेत्रों में अपेक्षित सफलताएं हासिल नहीं हो सकी हैं. नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक फैसले लिये गये, वहीं इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में तेजी से काम हो रहा है.ऊर्जा क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां रहीं. मैनुफैक्चरिंग और आयात-निर्यात में कमजोरी के बावजूद अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी जारी है. प्रमुख क्षेत्रों में चार सालों के कामकाज का विशेष विश्लेषण…
संदीप बामजई
आर्थिक मामलों के जानकार
यूपीए की सरकार के दौरान अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं थी. सरकार पॉलिसी पैरालिसिस की शिकार थी. और भी कई कारण थे कि कांग्रेस के खिलाफ एंटी-इनकम्बैंसी की लहर दौड़ पड़ी. उसका खामियाजा यह हुआ कि साल 2014 के आम चुनाव के बाद केंद्र में मोदी की सरकार बनी और एक नया दौर शुरू हुआ.
मोदी सरकार ने शुरू में एक नीति बनायी कि अध्यादेश लाकर छह-छह महीने में पिछली सरकार की पॉलिसियों को बदलेंगे. लेकिन मोदी सरकार को यह समझना चाहिए था कि जब भी अध्यादेश लाया जाता है, तब उसे छह महीने के बाद उसको संसद में संशोधन करना पड़ता है.
जब तक संसद उसको संशोधित नहीं करेगी, तब तक वह पॉलिसी कानून नहीं बनेगी. यही सब करते-करते मोदी सरकार ने डेढ़ साल बरबाद कर दिये.
डेढ़ साल के बाद जब अर्थव्यवस्था कुछ-कुछ ठीक होने की कगार पर थी, तब सरकार ने कोई नीतिगत फैसला नहीं लिया, ताकि अर्थव्यवस्था को मजबूती मिल सके. ऐसे नीतिगत फैसले, जिनसे यह लगे कि सरकार यह दिखाना चाहती हो कि भारत की अर्थव्यवस्था को अगले चार-पांच-दस साल तक के लिए वह क्या चाहती है.
जिस तरह से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने बड़े पैमाने पर सड़कों को बनाने की नीति बनायी और विनिवेश बढ़ाने पर जोर दिया, इस तरह का कोई नीतिगत फैसला मोदी सरकार ने नहीं लिया, जो आगामी आठ-दस साल तक के लिए हो. बस वही छोटे-छोटे फैसले लिये गये (मसलन स्टार्टअप इंडिया वगैरह), जिनके सफल होने की कोई बड़ी संभावना नहीं थी.
दक्षिणपंथी विचारधारा में यह बात बहुत मायने रखती है कि सरकार की आर्थिक हालत कहीं से भी कमजोर न हो. यानी इनके लिए पैसा बहुत मायने रखता है और ये कभी नहीं चाहेंगे कि अर्थव्यवस्था कमजोर हो.
इसलिए इनकी प्राथमिकता सोशल वेलफेयर में कम, सरकार की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने में ज्यादा रहती है. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने जब अपना नाम लिखा कोट पहना, जिसे लेकर कांग्रेस ने मोदी सरकार को सूट-बूट की सरकार तक कह दिया, वहीं से नरेंद्र मोदी ने लेफ्ट टर्न ले लिया और दक्षिणपंथ की मजबूत आिर्थकी वाली अवधारणा के विरुद्ध जाकर यूपीए सरकार की तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं जैसे, मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, डायरेक्ट बेनीफिट प्लान, आदि को आगे बढ़ाने की बात की.
और तब से लेकर आज तक मोदी सरकार पिछली सरकार की योजनाओं को ही रीपैकेज करती रही है. उसके बाद मोदी सरकार ने डायरेक्ट बेनीफिट को बढ़ावा दिया, मनरेगा को बढ़ावा दिया, गैस सिलिंडर लोगों को दिया, स्वच्छ भारत में कुछ काम हुआ, और इनके साथ छोटी-छोटी सैकड़ों योजनाएं ले आयी, जिन्हें एक लंबी अवधि के लिए नीतिगत योजना नहीं कहा जा सकता. यही सब करते-करते सरकार को चार साल गुजर गये.
इस बीच डीजल को डीकंट्रोल तो कर दिया, लेकिन शुरू में जब विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम थी, तब सरकार ने तेल भंडारण की कोई योजना नहीं बनायी. आज हम उसका खामियाजा भुगत रहे हैं कि तेल के दाम आसमान छू रहे हैं.
वहीं दूसरी तरफ सरकार ने तेल पर आठ-नौ बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी, जो आज 19-20 रुपये पर पहुंच गयी है. इससे सरकार को दो लाख तिरासी हजार करोड़ रुपये की आमदनी हुई, जिसे सरकार ने कहां खर्च किया, इसका कोई हिसाब-किताब जनता के सामने नहीं है. एक लाख चौहत्तर हजार करोड़ रुपये सेस यानी उपकर (सेस किसी मुख्य टैक्स के ऊपर लगनेवाला एक अतिरिक्त कर है) से मिला, उसका सरकार ने क्या किया, यह किसी को कुछ पता नहीं है.
इस तरह सरकार की अपनी आमदनी तो बढ़ती रही, लेकिन अर्थव्यवस्था को मजबूत करनेवाले क्षेत्र लगातार कमजोर होते चले गये. निर्माण क्षेत्र, कृषि क्षेत्र, एफडीआई, इन्फ्रास्ट्रक्चर, उद्योग और अन्य क्षेत्र कमजोर होते गये. हालांकि, कृषि क्षेत्र के लिए बीते सालों में सूखा भी जिम्मेदार रहा है.
मोदी सरकार की दो बड़ी उपलब्धियों में डिमोनेटाइजेशन और जीएसटी को रखा जा सकता है! जिस साल डिमोनेटाइजेशन की घोषणा हुई थी, उस वक्त भारत की अर्थव्यवस्था कुछ पटरी पर आ रही थी, लेकिन उसको फिर से पटरी से उतार दिया गया. न कालाधान आया और न ही भ्रष्टाचार कम हुआ. डिमोनेटाइजेशन ने मांग में जबरदस्त कमी कर दी, बाजार ठप्प पड़ गये और लघु एवं मझोले उद्योग पूरी तरह से बर्बादी के कगार पर पहुंच गये.
नौकरियां खत्म होती चली गयीं. और अभी इस मार से हम उबरे भी नहीं थे कि एक कच्चा मसौदा वाला बिना किसी ठोस तैयारी के जीएसटी पास कर दिया, जिसने व्यापारियों को सबसे ज्यादा परेशान किया. जीएसटी के आने के बाद कुछ और नौकरियां भी चली गयीं. कहां तो एक करोड़ नौकरियां देने का वादा था, और लाखों नौकरियां भी चली गयीं, जिसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा.
किसी समाज में जितनी ज्यादा नौकरियां होंगी, उसकी खरीद क्षमता भी उतनी ज्यादा होगी और इससे उसकी अर्थव्यवस्था मजबूत होगी. अंत में, रही-सही कसर बैंकिंग व्यवस्था की खोखली हालत ने पूरी कर दी. आज सारे बैंक घाटे में हैं और जब बैंक घाटे में होते हैं, तो उद्योग-व्यापार के लिए कर्ज नहीं मिलते हैं, जिसका असर अर्थव्यवस्था और लोगों की नौकरियांे पर पड़ता है.
पिछले चार साल से बैंकों ने निजी क्षेत्र को लोन देना बंद कर रखा है, क्योंकि उसके पुराने लोन ही नहीं चुकाये गये हैं, जिनमें से कितना तो एनपीए हो गये हैं.
इस वक्त जो भारत की अर्थव्यवस्था है, वह खुद को उबारने की कोशिश में है. ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड बढ़ रही है और ऑटोमोबाइल बिक्री बढ़ रही है.
उपभोग अर्थव्यवस्था अब जाकर सुधार पर है और कॉरपोरेट क्षेत्र में कुछ सकारात्मक गतिविधियां दिख रही हैं. अगर कहीं इस बार बारिश ने धोखा दिया, तो बहुत मुश्किल होगा कि सरकार अर्थव्यवस्था को बचा पाये. यूपीए की सरकार में करीब नौ प्रतिशत तक जीडीपी चली गयी थी और यह सरकार अभी सात प्रतिशत पर ही हाथ-पांव मार रही है. जाहिर है, इस सरकार ने शुरू में ही बड़े नीतिगत फैसले लिये होते, तो आज उसका असर दिख रहा होता.
देशभर में फैल रहा सड़कों का जाल
45 किमी का लक्ष्य रखा गया है देशभर में रोजाना के हिसाब से सड़क निर्माण का मोदी सरकार द्वारा, जो चार साल पहले इससे नौ किमी रोजाना कम तय किया गया था.
32,000 करोड़ रुपये बजटीय आबंटन किया गया था हाईवे सेक्टर के लिए वित्तीय वर्ष 2014-15 के दौरान.
71,000 करोड़ रुपये बजटीय आबंटन किया गया है हाईवे सेक्टर के लिए वित्तीय वर्ष 2018-19 के दौरान.
6.92 लाख करोड़ आबंटित किये गये केंद्र सरकार द्वारा बीते अक्तूबर में भारतमाला प्रोजेक्ट के तहत. इसमें मौजूदा आर्थिक कॉरिडोर समेत सीमावर्ती और समुद्र तटीय इलाकों में मौजूद राजमार्गों के विकास के लिए भी रकम का प्रावधान किया गया है.
24,800 किमी सड़क निर्माण का लख्य निर्धारित किया गया है देशभर में भारतमाला प्रोजेक्ट के तहत पहले चरण में, जिसकी समयसीमा वर्ष 2022 तय की गयी है.
10,000 किमी सड़क निर्माण कार्य जारी है देशभर में नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया द्वारा.
13 करोड़ रुपये की लागत आती है औसतन एक किमी सड़क निर्माण पर.
200 प्रोजेक्ट की पहचान की गयी है देशभर में राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण से संबंधित, जिन्हें वर्ष 2019 के मध्य तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है, ताकि अगले वर्ष लोकसभा चुनावों से पहले इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में एनडीए सरकार की इस बड़ी उपलब्धि को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके.
5.5 ट्रिलियन रुपये की सड़क परियोजनाओं के पहले चरण पर फिलहाल काम चल रहा है देशभर में.
2.09 ट्रिलियन रुपये बाजार से हासिल किया जायेगा. निजी निवेशकों से इस मद में 1.19 ट्रिलियन रुपये प्राप्त किये जायेंगे, जबकि 2.19 ट्रिलियन रुपये सेंट्रल रोड फंड या टोल की वसूली से आयेगा.
सड़क निर्माण की योजनाओं पर खर्च
राज्य योजनाओं अनुमानित की संख्या खर्च
महाराष्ट्र 52 38,029
उत्तर प्रदेश 45 37,926
राजस्थान 28 21,292
गुजरात 27 24,928
मध्य प्रदेश 26 16,245
(नोट : खर्च करोड़ रुपये में)
जम्मू में बन रही सबसे लंबी सुरंग
राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए वर्ष 2016-17 में स्वीकृत 57,976 करोड़ के बजट को वर्ष 2017-18 के लिए बढ़ाकर 64,900 करोड़ रुपये किया गया.
वर्ष 2014-17 के दौरान कुल 34,103 किमी राजमार्ग और 18,704 किमी सड़क का निर्माण किया गया.
जम्मू में सबसे लंबे रोड टनल का निर्माण पूरा.
असम में ब्रह्मपुत्र पदी पर बने 9.15 किलोमीटर (भारत के सबसे पुल लंबे) धोला सादिया सेतु का निर्माण अंतिम चरण में.
वायु सेवा से जुड़े छोटे शहर
छोटे शहरों को वायु संपर्क से जाेड़ने के लिए उड़ान स्कीम लॉन्च की गयी.
उड़ान स्कीम के तहत 56 एयरपोर्ट और 31 हैलिपेड का निर्माण किया गया.
इस स्कीम के तहत 16 एयरपोर्ट से हवाई सेवा शुरू की जा चुकी है.
पूर्वोत्तर के सभी राज्यों तक ट्रेन पहुंचाने की तैयारी
5,158 किमी रेलमार्ग का विस्तार किया जा रहा है पूर्वोत्तर भारत में, जिसकी लागत करीब 90,000 करोड़ रुपये है.
अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मणिपुर समेत पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में 43 विविध योजनाओं के तहत आगामी कुछ वर्षों में रेल नेटवर्क का व्यापक विस्तार किया जायेगा.
पूर्वोत्तर में असम और अरुणाचल प्रदेश को जोड़ने वाले देश के सबसे लंबे बोगीबिल रेल पुल का निर्माण कार्य अंतिम चरण में है. इस वर्ष इसके चालू होने की उम्मीद है.
मेघालय और त्रिपुरा को रेल संपर्क से जोड़ा गया.
जीरिबाम- इंफाल नये रेलमार्ग पर देश की सबसे लंबी सुरंग का निर्माणकार्य प्रगति पर.
डेडिकेटेड रेल फ्रेट कॉरिडोर
पूर्वी और पश्चिमी गलियारे के रूप में बनाये जा रहे डेडिकेटेड रेल फ्रेट कॉरिडोर के तहत काम तेजी से चल रहा है और इस वर्ष के आखिर तक इस पर मालगाड़ियों का संचालन शुरू किया जा सकता है. पूर्वी कॉरिडोर के लिए अन्य स्रोतों के अलावा विश्व बैंक से मदद ली गयी है. पश्चिमी कॉरिडोर के लिए जापान इंटरनेशनल कॉआपरेशन एजेंसी ने 33,000 करोड़ रुपये लोन मुहैया कराया है.
डिजिटल इंडिया का बढ़ता दायरा
एक करोड़ से अधिक लोगों को डिजिटल रूप से साक्षर किया गया है प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान के तहत.
भीम एप और उमंग एप के जरिये 100 से अधिक नागरिक सेवाएं मुहैया करायी जा रही हैं लोगों को डिजिटल ट्रांजेक्शन के माध्यम से.
आधार को प्रभावी बनाते हुए दलालों की भूमिका को खत्म करने में मदद मिली है.
400 से अधिक स्कीम के लिए डिजिटल भुगतान को प्रभावी बनाया गया, जिससे करीब 57,000 करोड़ रुपयों को गलत हाथों में जाने से रोका गया.
वर्ष 2014 में देश में मोबाइल निर्माण करने वाली कंपनियों की संख्या महज दो थी, जो बढ़ कर अब 113 तक पहुंच गयी है.
2.5 लाख ग्राम पंचायतों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी प्रदान की गयी.
शेयर बाजार की चाल
मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान बाजार कुल 40 फीसदी ही चढ़ा. पूर्ण बहुमत और राजनैतिक स्थिरता के लिहाज से यह तेजी औसत ही माना जाएगी.
इस सरकार के कार्यकाल के चौथे साल में बीएसई सेंसेक्स ने 11.67 फीसदी का रिटर्न दिया है, जो तीसरे साले में 17.67 फीसदी था. पहले साल यह सूचकांक 11.4 फीसदी चढ़ा, दूसरे साल में इसमें 423 फीसदी की गिरावट रही. इस दौरान बीएसई सेंसेक्स ने 40 फीसदी की छलांग लगायी. जबकि बीएसई मिडकैप और स्मॉलकैप इंडेक्स भी 80 से 85 फीसदी तक
मजबूत हुए. इन सूचकांकों के 40 फीसदी शेयरों ने निवेशकों की पूंजी को दोगुना कर दिया.