आर्थिक संतुलन कायम करने का दर्स देता है फितरा और जकात
डॉ मुश्ताक अहमद rm.meezan@gmail.com (उर्दू साहित्यकार एवं एमएलएसएम कॉलेज, दरभंगा के प्रधानाचार्य) रमजान मुसलमानों के लिए एक पाक व मुबारक महीना है, लेकिन सिर्फ मजहबी दृष्टिकोण से ही अहमियत नहीं रखता, बल्कि सामाजिक, आर्थिक संतुलन व स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इस माह-ए-मुबारक का अपना महत्व है. मजहबी दृष्टिकोण से यह महीना इसलिए भी अहम […]
डॉ मुश्ताक अहमद
rm.meezan@gmail.com
(उर्दू साहित्यकार एवं एमएलएसएम कॉलेज, दरभंगा के प्रधानाचार्य)
रमजान मुसलमानों के लिए एक पाक व मुबारक महीना है, लेकिन सिर्फ मजहबी दृष्टिकोण से ही अहमियत नहीं रखता, बल्कि सामाजिक, आर्थिक संतुलन व स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इस माह-ए-मुबारक का अपना महत्व है. मजहबी दृष्टिकोण से यह महीना इसलिए भी अहम दर्जा रखता है कि इसी महीने में इस्लाम धर्म का पाक कुर्आन शरीफ नाजिल हुआ.
साथ ही रोजे जैसी पाक इबादत और नमाज-ए-तरावीह भी इसी माह में पूरे किये जाते हैं. इस पूरे माह को तीन भागों में बांटा गया है- पहला दस दिनों का ‘अशरा रहमत’ का कहलाता है, यानी शुरू के दस दिनों में बंदों पर अल्लाह की रहमतों की बारिश होती है, जबकि दूसरा दस दिनों का ‘अशरा मगफिरत’ (माफी) का होता है.
इसमें नेक बंदा अपने गुनाहों की जो भी माफी मांगता है, उसे अल्लाह कबूल फरमाता है और आखिरी ‘अशरा निजात’ (छुटकारा) यानी जहन्नम से छुटकारे का होता है. इस तरह पूरे रमजान का माह मुसलमानों के लिए अल्लाह की रहमतों से मालामाल होने का महीना है. जब रमजान की तमाम इबादतों को पूरा करने में कोई बंदा कामयाब हो जाता है, तो उसी खुशी में ईद मनायी जाती है. ईद का शाब्दिक अर्थ ही खुशी है.
ईद मनाने से पहले इस्लाम ने मुसलमानों पर जितने मजहबी शर्तें रखी हैं, यदि उस पर संजीदगी से गौर करें, तो पता चलेगा कि यह महीना मुसलमानों को सामाजिक सरोकार से जोड़ने का पैगाम भी देता है. रमजान में रोजे के इफ्तार का दृश्य ही सामाजिक समरसता का प्रमाण है- जब एक ही दस्तरखान पर राजा और रंक सभी एक साथ इफ्तार करते हैं. बगैर किसी भेद-भाव के एक ही सफ में नमाज अदा करते हैं, जैसा कि अल्लामा इकबाल ने कहा है –
एक ही सफ में खड़े हो गये महमूद व अयाज़
न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा नवाज
इस्लाम में रमजान की जो फजीलत है, उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए मुसलमान तत्पर रहते हैं. रमजान के महीने में फितरा और जकात बांटने का जो हुक्म है, वह समाज में आर्थिक संतुलन कायम करने का दर्स देता है.
यानी ईद की नमाज से पहले हर एक साहिबे निसाब (आर्थिक दृष्टि से संपन्न) मुसलमानों पर फर्ज है कि वह फितरा की राशि उन लोगों में बांट दें, जो मुहताज व आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं. फितरा के संबंध में जो हिदायत दी गयी है, उसके पीछे यह पैगाम छुपा है कि जो धनवान हैं, वह न चाहते हुए भी मजहबी फरमान की वजह से फितरा की राशि गरीबों में तकसीम करेंगे. जिस राशि से गरीब और मुहताज तबका भी ईद की खुशियां हासिल कर सकें.
मूलत: दो किलो गेहूं की कीमत का फितरा निकालना फर्ज है. मिसाल के तौर पर एक व्यक्ति पर इस वर्ष 40 रुपये फितरे की राशि तय है और यदि किसी परिवार में 10 व्यक्ति हैं, तो उस परिवार को 400 रुपये फितरे के तौर पर बांटना होगा. यदि समाज में 100 परिवार सुखी-संपन्न हैं और 10-20 परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं, तो उनके पास भी इतनी राशि अवश्य ही पहुंच जायेगी कि वह भी समाज के अन्य लोगों की तरह अपनी ईद खुशी-खुशी मना सकें.
इतना ही नहीं, जो धनवान व्यक्ति हैं, उन पर ढाई प्रतिशत जकात भी फर्ज है और चूंकि रमजान के मुबारक महीने में जकात निकालने का चलन आम है, इसलिए अधिकतर साहिबे निसाब अपने जकात की राशि भी इसी रमजान माह में निकालते हैं, क्योंकि कहा गया है कि रमजान में एक रुपये का 70 गुना अधिक सवाब (पुण्य) मिलता है.
इसलिए लोग बढ़-चढ़ कर इसी महीने में जकात की राशि निर्धनों में तकसीम करते हैं, जिससे ईद की खुशी में गरीब तबका भी बराबर का शरीक होता है, यानी फितरा और जकात की राशि गरीबों में बांटना सामाज में आर्थिक संतुलन कायम करने का एक अनोखा नुसखा है.