बन सकती है भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अवरोध रुपये की कीमत में गिरावट

अंतरराष्ट्रीय और आंतरिक वित्तीय हलचलों के कारण डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरती कीमत अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी चिंता का कारण बनती जा रही है. तेल की कीमतों में बढ़ोतरी, विदेशी निवेशकों द्वारा पूंजी निकालना और अमेरिकी बॉन्ड का मूल्य बढ़ने जैसे कारक रुपये की सेहत पर नकारात्मक असर डाल रहे हैं. कच्चे तेल का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 1, 2018 5:02 AM

अंतरराष्ट्रीय और आंतरिक वित्तीय हलचलों के कारण डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरती कीमत अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी चिंता का कारण बनती जा रही है. तेल की कीमतों में बढ़ोतरी, विदेशी निवेशकों द्वारा पूंजी निकालना और अमेरिकी बॉन्ड का मूल्य बढ़ने जैसे कारक रुपये की सेहत पर नकारात्मक असर डाल रहे हैं.

कच्चे तेल का दाम 75 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है, तो बीते कुछ महीनों में विदेशी संस्थागत निवेशकों ने चार बिलियन डॉलर से अधिक की बिकवाली की है. गिरावट का सीधा असर आयात-निर्यात के भुगतान के साथ महंगाई पर पड़ सकता है. वित्त बाजार के साथ सरकार और रिजर्व बैंक पर विनिमय दर को स्थिर करने का भारी दबाव है. इस मसले के विविध आयामों के विश्लेषण के साथ इन-दिनों की प्रस्तुति…

सरकार के पास ठोस आर्थिक नीति नहीं

डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत का कम होना स्वाभाविक है. यह सिर्फ भारतीय रुपये के साथ नहीं है, बल्कि बाकी इमर्जिंग करेंसियों के साथ भी है, क्योंकि इस वक्त डॉलर मजबूत है. चाहे ब्राजील हो, दक्षिण अफ्रीका हो या भारत हो, इन सबकी मुद्रा के मुकाबले डॉलर मजबूत होता जा रहा है. डॉलर का मजबूत होना ही बाकी करेंसियाें के कमजोर होने की वजह है. वहीं कच्चे तेल की कीमतें भी लगातार बढ़ती चली जा रही हैं. रुपया कमजोर हाेने के कुछ मुख्य कारण हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है. ये कारण हैं- अमेरिकी डॉलर का मजबूत होना, कच्चे तेल के दामों में हो रही लगातार वृद्धि, विदेशी निवेशकों द्वारा भारतीय बाजार से अपना पैसा वापस निकालना और अमेरिका द्वारा शुरू किया गया ट्रेडवार वगैरह.

रुपया कमजोर होने के कारण

अमेरिका की जीडीपी का आकार 20 ट्रिलियन डॉलर है, चीन की जीडीपी का आकार 14 ट्रिलियन डॉलर हैं, वहीं भारत की जीडीपी का आकार 2.85 ट्रिलियन डॉलर है. भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 435 बिलियन डॉलर है, जबकि चीन का विदेशी मुद्रा भंडार 3.1 ट्रिलियन डॉलर है, जो भारत की जीडीपी से भी ज्यादा है. अब अगर अमेरिका और चीन मिलकर ट्रेडवार करेंगे, तो इसका असर उन पर थोड़ा पड़ेगा, लेकिन भारत जैसे देशों पर भी पड़ेगा. क्योंकि ट्रेडवार की वजह से डॉलर बहुत मजबूत हुआ है.

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की एक बहुत ही खास बात है, वह यह कि ट्रंप जो कहते हैं, वह करते भी हैं. वह ऐसा व्यक्ति है, जिसकी कथनी-करनी एक समान है. जो बोलता है, उसे करके दम लेता है. अमेरिका फर्स्ट के लिए ट्रंप ने जितनी भी बातें बोली थीं, वे सब कर रहे हैं. इसलिए सब लोग ट्रंप को ‘पागल’ तक कह देते हैं, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूती उनकी इसी कार्यशैली से मिली है और दूसरे देशों के नेतृत्वकर्ताओं के लिए भी यह एक सीख है. केवल बोलकर निकल जाने की चतुराई से अर्थव्यवस्था की चुनौतियां कम नहीं हो सकतीं.

भारत 80 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करता है. और जब कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर की वृद्धि होती है, तो भारत को साढ़े चार-पांच हजार करोड़ रुपये का घाटा (ऑयल पुल डेफिसिट) होता है. जैसे-जैसे यह घाटा बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे रुपये की कीमत पर इसका असर पड़ता है. यह एक सीधा-सा हिसाब है. वहीं विदेशी निवेशकों द्वारा भारतीय बाजार से अपना पैसा निकालकर ले जाना भी एक बड़ी समस्या है. इस साल पहली जनवरी से लेकर अब तक यानी बीते छह महीने में विदेशी निवेशकों ने 46 हजार करोड़ रुपये भारतीय बाजार से निकाल लिया.

इस वजह से भी रुपया कमजोर हुआ है. भारत के पास इस साल एक जनवरी तक करीब 435 बिलियन डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार था, जिसमें से दस-बारह बिलियन डॉलर घट गया है, क्योंकि विदेशी निवेशक अपना पैसा लेकर वापस जा रहे हैं. इसलिए जरूरी है कि मार्केट को मजबूत करे सरकार.

आरबीआई की पहल

जब भी रुपये की हालत बिगड़ती है, तो भारतीय रिजर्व बैंक वायदा बाजार में उतरता है और दो तरीकों से डॉलर बेचता है. एक, स्पॉट मार्केट के जरिये और दूसरा, फ्यूचर्स मार्केट के जरिये. स्पॉट यानी अभी के मार्केट में और फ्यूचर्स यानी आगामी सप्ताह या महीने के मार्केट में. इस डॉलर को बेचने से पैसा आता है और रुपये की हालत मजबूत होती है. इस बार भी बीते गुरुवार को जब रुपये की हालत बिगड़ी और वह डॉलर के मुकाबले 69 के आंकड़े को पार कर गया,

तो आरबीआई ने स्पॉट मार्केट और फ्यूचर्स मार्केट दोनों में चार-पांच सौ मिलियन डॉलर बेचा, जिससे रुपया 25-26 पैसा मजबूत हुआ. रुपये की खराब हालत की स्थिति में आरबीआई के पास यही उपाय है कि वह इन दो तरीकों के जरिये रुपये को मजबूत करे. इन दो तरीकों में इस्तेमाल किया जानेवाला डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार से आता है. इसलिए जब विदेशी मुद्रा भंडार घटेगा, तब भी रुपये की हालत पर असर पड़ेगा.

भारत की डॉलर पर निर्भरता

अब सवाल यह है कि एशिया में सिर्फ भारतीय रुपये की हालत ही क्यों खस्ता है? तो सबसे पहले तो यह देखना होगा कि किस देश की इकोनॉमी कितनी बड़ी है और उसके आयात-निर्यात का आंकड़ा क्या है? यहां पूरा एशिया नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जापान की इकोनॉमी इतनी बड़ी है कि एशियाई अर्थव्यवस्था की बात करते समय जापान को बाहर रखा जाता है. इसलिए जापान को छोड़कर बाकी देशों के मुकाबले भारतीय रुपये की हालत ज्यादा नाजुक है,

तो इसलिए कि जहां निर्भरता डॉलर पर ज्यादा होगी, वहां ऐसी स्थिति पैदा होगी. जहां कच्चे तेल का निर्यात ज्यादा होगा, वहां की करेंसी पर असर पड़ेगा. चूंकि कच्चे तेल का निर्यात डॉलर पर ही निर्भर है, इसलिए डॉलर के मजबूत होने का सीधा अर्थ है कि रुपया कमजोर होगा. भारत को छोड़कर तमाम एशियाई देश छोटी अर्थव्यवस्था वाले देश हैं और उनका निर्यात भी कम है, इसलिए उन्हें कोई दिक्कत नहीं है. सिंगापुर, फिलीपींस, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड वगैरह बहुत छोटी अर्थव्यवस्थाएं हैं.

आरबीआई के पास उपाय

अब भारत के पास अपने रुपये को मजबूत करने का एक ही उपाय है कि भारतीय रिजर्व बैंक स्पॉट और फ्यूचर्स मार्केट में डॉलर बेचे. अब सवाल यह है कि भारत कितना डॉलर बेच सकता है, तो यह सरकार के ऊपर है कि वह क्या करती है. क्योंकि, हमें इस बात से इनकार नहीं करना चाहिए कि अगले कुछ समय में डॉलर के मुकाबले रुपया 69 के बाद 70 के पार आंकड़े को भी छू सकता है. तीन कारणों का जो दबाव है, मसलन मजबूत डॉलर, कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें और निवेशकों का भारतीय बाजार से वापस भागना, ये तीनों चीजें आगे भी चलती रहेंगी. इतिहास बताता है कि जून में जब जबर्दस्त कारोबार होता है बिक्री होती है, तो जुलाई में भागे हुए निवेशक वापस आ जाते हैं. लेकिन, इस साल का जो ट्रेंड है, उससे यही लग रहा है कि निवेशक वापस नहीं आनेवाले हैं.

आर्थिक नीति की जरूरत

इस वक्त सरकार के पास आर्थिक सुधार के नाम पर कोई बड़ी नीति नहीं है, इसलिए यह मुमकिन नहीं लग रहा है कि रुपये की मजबूती या अर्थव्यवस्था के लिए कुछ फायदा होगा. आर्थिक सुधार के नाम पर ले-देकर उसके पास दो बड़ी उपलब्धियां हैं- नोटबंदी और जीएसटी. इन दोनों ने कारोबार का जो हाल किया है, उससे नहीं लगता कि अभी हाल-फिलहाल कुछ संभलनेवाला है. रुपये की हालत ऐसे ही कमजोर बनी रही, तो इससे महंगाई भी बढ़ने की संभावना है. इसलिए सरकार को कुछ अच्छी मौद्रिक और आर्थिक नीतियों पर काम करना होगा और सोच-समझकर काम करना होगा, तभी मुमकिन है कि निकट भविष्य में कुछ लाभ मिले.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित) महंगी

हो जायेंगी आयातित वस्तुएं

भारतीय मुद्रा में लगातार आती गिरावट से आयातित वस्तुओं की कीमतों के बढ़ जाने की संभावना है. भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक है और रुपये में आयी गिरावट का इसकी कीमतों पर असर पड़ना स्वाभाविक है. तेल की बढ़़ती कीमतें हमें व्यापक रूप से प्रभावित करेंगी. रुपये के अवमूल्यन का प्रभाव मुद्रा स्फीति के रूप में सामने आयेगी. हालांकि, सूचना तकनीक, टेक्सटाइल और दूसरी अन्य चीजें, जिनका हम भारी मात्रा में निर्यात करते हैं, इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर लाभ होने की भी संभावना है.

ये वस्तुएं होंगी सबसे ज्यादा प्रभावित

तेल, उर्वरक, दवाइयां और लौह अयस्क जैसी वस्तुएं, जिनका भारत द्वारा बड़े पैमाने पर आयात किया जाता है, रुपये के कमजोर होने से महंगी हो जायेंगी. भारत 70 प्रतिशत से ज्यादा कच्चे तेल का आयात करता है, रुपये के कमजोर होने का प्रभाव पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर पड़ेगा. ऐसे में पहले से ऊंचे दाम पर मिल रही इन वस्तुओं की कीमत में और इजाफा होगा.

भारत क्रूड पाम ऑयल का भी बड़ा आयातक है. इस तेल की कीमत दूसरे खाद्य तेलों की कीमतें निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. इसलिए क्रूड पाम ऑयल की कीमत बढ़ने से खाद्य तेल के खुदरा मूल्य में वृद्धि हो जायेगी.

साबुन, डिटर्जेंट, डियोड्रंट और शैंपू जैसे फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स, जिनमें पाम ऑयल का इस्तेमाल होता है, वे भी महंगी हो जायेंगी.

चूंकि दाल और तेल का भी बड़े पैमाने पर आयात किया जाता है, रुपये के अवमूल्यन से इनके दाम भी बढ़ जायेंगे.

जो उद्योग बड़ी संख्या में आयातित माल पर निर्भर हैं, उन्हें आयातित वस्तुओं के ज्यादा मूल्य चुकाने होंगे. इस संकट से निबटने के लिए कर्मचारियों को कम वेतन का भुगतान भी किया जा सकता है.

तेल की कीमत में इजाफे का असर हवाई यात्रा शुल्क पर भी पड़ेगा और वे महंगी हो जायेंगी.

रुपये की कमजोरी ऑटोमोबइल क्षेत्र को भी प्रभावित करेगी और लगभग सभी ऑटोमोबाइल कंपनियां अपने उत्पाद महंगे कर देंगी.

आयातित पेपरबैक, पिज्जा के साथ ही इंटरनेशनल फूड चेन के भारतीय आउटलेट में खाना खाना भी अब ज्यादा महंगा हो जायेगा.

नवीनतम लैपटॉप और कंप्यूटर, टीवी, मोबाइल फोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक सामान, जिनमें आयातित कल-पुर्जे लगे होंगे, वे भी महंगे हो जायेंगे.

रुपये पर अमेरिका की नजर

अमेरिकी वित्त विभाग ने भारतीय मुद्रा को निगरानी की सूची में डाल दिया है. ऐसा करने का कारण भारत के बढ़ते विदेशी मुद्रा भंडार को बताया गया है. विभागीय रिपोर्ट का मानना है कि भारत रुपये के बदले अमेरिकी डॉलर खरीद रहा है, ताकि उसकी मुद्रा का उतार-चढ़ाव नुकसान के स्तर तक न पहुंचे. विश्लेषकों का अनुमान है कि इस रिपोर्ट में भारत को चिह्नित करने से रुपये के प्रबंधन से संबंधित भारत के विकल्प सीमित हो सकते हैं. इससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या भारत रुपये के बारे में सचमुच कोई चतुराई कर रहा है. इस तरह का छाप लग जाने से एशिया की इस तीसरी सबसे बड़ी व्यवस्था को परेशानी हो सकती है. अमेरिकी नीति तीन आधारों पर किसी अर्थव्यवस्था को अनुचित मुद्रा व्यवहार का दोषी मानती है-

एक, उस देश के पक्ष में अमेरिका से व्यापार संतुलन कम-से-कम 20 बिलियन डॉलर का हो. दूसरा, उस देश ने एक साल में अपने सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का कम-से-कम दो फीसदी हिस्से के बराबर विदेशी मुद्रा की खरीद की हो. तीसरा, उस देश का चालू खाता अधिशेष जीडीपी का कम-से-कम तीन फीसदी हो. चालू खाते के तहत वस्तुओं, सेवाओं और निवेश के आयात-निर्यात का हिसाब होता है. इन तीन में से दो लक्षण होने पर उस देश को अमेरिका अपनी निगरानी सूची में डाल देता है. भारत के साथ पहला और दूसरा लक्षण लागू होता है. भारत के अलावा इस सूची में चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, जर्मनी और स्विट्जरलैंड हैं.

साल 2017 में भारत का व्यापार अधिशेष 28 बिलियन डॉलर का था, जो कि 2016 के 30.8 बिलियन डॉलर से थोड़ा कम है. उल्लेखनीय है कि 2017 में रुपया डॉलर के मुकाबले मजबूत हुआ था. अमेरिकी वित्त विभाग के साथ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का भी मानना है कि रुपये की कीमत वास्तविकता से अधिक है. भारतीय रिजर्व बैंक के वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (आरइइआर) सूचकांक से भी यह बात इंगित होती है. अमेरिकी कार्रवाई की असली वजह विदेशी मुद्रा भंडार के कारण है.

पिछले कुछ सालों से भारत में विदेशी पूंजी का प्रवाह बढ़ा है, जिसके कारण देश के विदेशी मुद्रा बाजार में उसका हस्तक्षेप भी बढ़ा है. साल 2017 में रिजर्व बैंक ने 56 बिलियन डॉलर मूल्य की विदेशी मुद्रा खरीदी थी. यह जीडीपी का 2.2 फीसदी है. हालांकि, इधर कुछ महीनों से विदेशी पूंजी तेजी से बाहर जा रही है, पर 2017 के पहली तीन तिमाहियों में भारत में 34 बिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा 26 बिलियन डॉलर का विदेशी पोर्टफोलियो निवेश आया था. निगरानी सूची में डालने के पीछे अमेरिका ने ये तथ्य गिनाये हैं. रिजर्व बैंक का कहना है कि वह सिर्फ विदेशी मुद्रा बाजार में तेज उथल-पुथल को रोकने के लिए ही दखल देता है, न कि विनिमय दर को नियंत्रित करने के लिए. अमेरिका का कहना है कि 425 बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार भारत के लिए पर्याप्त है.

मुद्रा भंडार का क्या हो?

पिछले कुछ सप्ताह से भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में कुछ कमी आयी है, पर अब भी यह 400 बिलियन डॉलर से ऊपर है. यह कई कारणों से सकारात्मक है, पर विशेषज्ञों की राय है कि जहां मुद्रा विनिमय दर बाजार के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करते हों, वहां इतना बड़ा कोष रखने की जरूरत नहीं है. यह भी सही है कि इससे कई बार दरों में उथल-पुथल मच जाती है, तब यह भंडार उपयोगी होता है. लेकिन यह तब अधिक सार्थक होता है,

जब रिजर्व बैंक के कई उद्देश्य हों, सिर्फ मुद्रास्फीति नियंत्रित करना नहीं. मुद्रास्फीति का लेना-देना कीमतों को संतुलित करने से है, न कि मुद्रा भंडार से. रिजर्व बैंक 1990 के दशक के शुरू से पहले स्थिर विनिमय दर तय करता था, बाद में बाजार के हिसाब से निर्धारित होने लगा. जून, 2016 से बैंक ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लक्ष्य को प्राथमिकता में रखा है. इन दो बदलावों के बाद बड़ी जमा-पूंजी की जरूरत नहीं रह जाती है.

साल 2004-05 में योजना आयोग ने इस भंडार में कटौती की सलाह दी थी. परिपाटी यह है कि छह माह के आयात के मूल्य के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार रखा जाता है. लेकिन, इस पूंजी की जरूरत चालू खाता घाटे के वित्तपोषण के लिए पड़ती है, न कि आयात की पूरी कीमत चुकाने में. अभी चालू घाटा जीडीपी का करीब 7.5 फीसदी है, जो कि बहुत ज्यादा है, फिर भी इसके लिए महज 85 बिलियन डॉलर के भंडार के जरूरत है. मार्च के अंत तक हमारा भंडार कुल विदेशी कर्ज का 78.4 फीसदी था.

जानकारों का सुझाव है कि वित्त मंत्रालय बड़े और अचानक होनेवाले पूंजी आवागमन पर कर लगा सकता है, ताकि इसे नियंत्रित किया जा सके. इस स्थिति में रुपये की कीमत पर ज्यादा असर नहीं होगा और राजस्व भी बढ़ेगा. पूंजी का उपयोगी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में निवेश किया जा सकता है.

पूंजी के उतार-चढ़ाव से निबटने का एक जरिया यह भी हो सकता है कि भारत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या अन्य वित्तीय संस्थाओं से सस्ते कर्ज लेने की व्यवस्था कर ले. ऐसे में बड़े भंडार की जरूरत नहीं रह जायेगी. भारत अभी 50 बिलियन डॉलर के ऐसे कर्ज की व्यवस्था रखे हुए है. मुद्रा भंडार के मामले में हमारी तुलना चीन से नहीं हो सकती है. उसका 3.1 ट्रिलियन डॉलर का मुद्रा भंडार और 800 बिलियन डॉलर का संप्रभु कोष व्यापक निर्यात का परिणाम है, जिसके पीछे चीनी मुद्रा युआन की कम रही कीमतें हैं.

रिकॉर्ड निम्न स्तर परपहुंचा रुपया

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 28 जून, 2018 का दिन बेहद बुरा रहा. दिन की शुरुआत में ही रुपये का मूल्य गिरकर 69.10 प्रति डॉलर पर पहुंच गया. बाजार के उतार-चढ़ाव भरे माहौल में रुपये में 49 पैसे की गिरावट आयी. बाजार बंद होने तक कुछ सुधार के साथ यह 68.79 प्रति डाॅलर पर बंद हुआ जो रुपये में आयी अब तक की रिकॉर्ड गिरावट है. इस दिन रुपये में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 18 पैसे की गिरावट दर्ज की गयी. इस ऐतिहासिक अवमूल्यन के एक दिन पहले रुपया 68.61 पर बंद हुआ था. आखिरी बार 24 नवंबर, 2016 को रुपया 68.87 प्रति डॉलर के रिकॉर्ड निम्न स्तर पर बंद हुआ था.

एशिया में सबसे कमजोर रही भारतीय मुद्रा : इस वर्ष रुपये में 7.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है, जिस कारण इस वर्ष इसे एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करनेवाली मुद्रा माना गया है.

अन्य देशों की मुद्रा का

भी हुआ अवमूल्यन

डाॅलर का मूल्य बढ़ने से भारत ही नहीं, बल्कि एशिया के कई देशों की मुद्रा भी इस वर्ष कमजोर हुई हैं. इस कारण फिलीपींस के पेसाे, इंडोनेशिया के रुपैया के अलावा दक्षिण अफ्रीका के रैंड के मूल्य में भी गिरावट देखी जा रही है.

क्या हैं भारतीय मुद्रा के अवमूल्यन के कारण

ट्रेड वार से निवेशकों में भय : विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका व चीन के बीच चल रहे ट्रेड वार के कारण निवेशकों में भय व्याप्त हो गया है. इस कारण उभरती अर्थव्यवस्था से पूंजी लगातार बाहर जा रही है. निवेशकों के इस रुख के कारण बाजार अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है.

बढ़ती तेल कीमतें : अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें भी भारतीय मुद्रा के अवमूल्यन की वजह बनी हैं. चूंकि भारत अपनी जरूरत का अधिकांश तेल आयात करता है, ऐसे में तेल खरीदने के लिए उसे ज्यादा डॉलर चुकाना होगा.

एफआइआइ द्वारा राशि की निकासी का पड़ा प्रभाव : इस वर्ष जनवरी से इक्विटी और बॉन्ड मार्केट से विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफआइआइ) द्वारा 9.4 बिलियन डॉलर की राशि निकाली जा चुकी है. बाजार से डॉलर के बाहर चले जाने के कारण पिछले तीन महीने में रुपये का तेजी से अवमूल्यन हुआ है.

डॉलर की मजबूती से कमजोर हुई भारतीय मुद्रा : यूएस फेडरल रिजर्व द्वारा दरों में वृद्धि से निवेशकों को डॉलर के रूप में ज्यादा रिटर्न मिल रहा है, जिस कारण उभरती बाजार मुद्रा (इमर्जिंग मार्केट एसेट) लोगों को कम आकर्षित कर रही है. इस वजह से भारतीय मुद्रा में गिरावट को मजबूती मिल रही है.

पर्याप्त है विदेशी मुद्रा भंडार

विदेशी कारक हैं जिम्मेदार : पीयूष गोयल

डॉलर के मुकाबले रुपये के रिकॉर्ड अवमूल्यन पर वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि इस संकट के लिए तेल की कीमतों में वृद्धि, ट्रेड टेंशन और ब्याज की उच्च दर सहित अनेक विदेशी कारक जिम्मेदार हैं. इन कारकों की वजह से ही उभरती बाजार मुद्रा बुरी तरह प्रभावित हुई है. इस मामले में बिना सोचे-समझे कार्रवाई करने की जरूरत नहीं है. उन्होंने यह भी कहा कि रुपये की गिरावट को थामने के लिए इसके लिए जिम्मेदार वैश्विक कारकों को ध्यान में रखकर सभी हितधारकों से सलाह-मशवरे के बाद उचित कदम उठाया जायेगा.

भारत के पास अपने रुपये को मजबूत करने का एक ही उपाय है कि भारतीय रिजर्व बैंक स्पॉट और फ्यूचर्स मार्केट में डॉलर बेचे. अब सवाल यह है कि भारत कितना डॉलर बेच सकता है, तो यह सरकार के ऊपर है कि वह क्या करती है.

संदीप बामजई

आर्थिक मामलों के जानकार

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