बेहद चिंताजनक है कैदखानों की खस्ताहाली, कैदियों की रिहाई की पहल सराहनीय
वर्तिका नंदा मीडिया शिक्षक एवं जेल सुधार कार्यकर्ता जेलों में अपनी आधी से ज्यादा सजा काट चुके उम्रदराज, बीमार और दिव्यांग कैदियों को रिहा करने का सरकार का फैसला काबिले-तारीफ है. इस बात की जरूरत अरसे से महसूस की जा रही थी. नीति आयोग की एक बैठक में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह […]
वर्तिका नंदा
मीडिया शिक्षक एवं
जेल सुधार कार्यकर्ता
जेलों में अपनी आधी से ज्यादा सजा काट चुके उम्रदराज, बीमार और दिव्यांग कैदियों को रिहा करने का सरकार का फैसला काबिले-तारीफ है. इस बात की जरूरत अरसे से महसूस की जा रही थी. नीति आयोग की एक बैठक में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह मशवरा दिया था कि उम्रदराज कैदियों को रिहा किया जाये, जिस पर सरकार ने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती वर्ष के मौके पर गैर-जघन्य अपराधों में जेल की सजा काट रहे कैदियों की रिहाई पर निर्णय लिया.
मेरी समझ से यह एक शानदार पहल है. जेल सुधार की अरसे से हो रही मांग के मद्देनजर यह एक जरूरी पहल मानी जा सकती है. लेकिन, उनकी रिहाई के बाद की जिंदगी के बारे में भी सरकार को सोचना चाहिए कि आखिर वे अपनी बची जिंदगी को उस समाज में कैसे गुजारेंगे, जो समाज रिहाई पा चुके लोगों के प्रति सहज न हो. इसलिए समाज में भी इसे लेकर जागरूकता की जरूरत है.
जेल के भीतर और जेल के बाहर
एक कैदी की जिंदगी को सिर्फ इस नजरिये से नहीं देखना चाहिए कि वह जेल में अपने किसी अपराध की सजा काट रहा है या फिर उस पर सुनवाई चल रही है और अभी सजा तय हाेना बाकी है. जेल के अंदर का पहलू ही काफी नहीं है एक कैदी की जिंदगी को समझने के लिए, बल्कि जेल के बाहर के तथ्यों को भी समझने की जरूरत होती है. यह भी समझना जरूरी है कि अगर किसी को सजा होनी है, तो इसमें कानून की गति क्या है, मसलन अपराध के मुताबिक उसे सजा दी जा रही है या नहीं, या फिर सजा की मियाद सही तरीके से तय की जा रही है या नहीं. किसी बेगुनाह को तो बिल्कुल भी सजा न मिलने पाये, क्योंकि उसका जितना समय जेल में गुजरेगा, उसकी भरपाई न तो कोर्ट कर सकता है, न कानून, न समाज और न ही सरकार कर सकती है.
यह भी तय होना चाहिए कि किसी की सजा की मियाद पूरी होने के बाद समय पर उसकी रिहाई हो रही है या नहीं. एक कैदी की जिंदगी के बारे में सिर्फ जेल के अंदर के तमाम जरूरी पहलू ही नहीं, बल्कि जेल के बाहर तमाम कानूनी पहलुओं को भी देखा जाना चाहिए. अंजाने में गलती करके जेल की सजा काट चुके व्यक्ति को समाज स्वीकार नहीं करता और इस तरह से उसकी बाकी जिंदगी खुद में एक सजा बन जाती है.
अदालतों की जिम्मेदारी
हमारी अदालतों में एक बड़ी संख्या में जजों की सीटें खाली हैं, जिसकी वजह से कानूनी प्रक्रिया बहुत लंबी खिंच जाती है, और लोगों को न्याय मिलने में देरी होती रहती है. इसका नुकसान यह होता है कि किसी आरोपी को जेल के अंदर तब तक रहना पड़ता है, जब तक कि उस पर कोई फैसला न आ जाये. इसलिए पहली जरूरी चीज तो यही है कि सरकार जजों की संख्या को पूरा करे, ताकि अदालतों के फैसले आने में देरी न हो.
वहीं सरकारों को यह नहीं सोचना चाहिए कि एक अपराधी जेल भेज दिया गया, तो उसका काम अब खत्म हो गया. यह सोचना उचित नहीं है, बल्कि जेल के अंदर कैदियों को किस तरह से रखा जा रहा है, उनके अपराध के मुताबिक उनके साथ व्यवहार हो रहा है या नहीं, कैदियों के मानवाधिकारों का पालन किया जा रहा है या नहीं, इन सब बातों को सरकार को समझना चाहिए. अंजाने में की गयी किसी गलती की सजा भुगतने के लिए जब उसे जेल में एक दुर्दांत अपराधी के साथ रख दिया जाता है, तो ऐसा देखा गया है कि जब वह सजा पूरी करके निकलता है, तब वह भी एक बड़ा अपराधी बनकर ही निकलता है.
जेल सुधार की कोशिशें नाकाफी
जेल सुधार को लेकर हमारी कोशिशें और योजनाएं अभी नाकाफी हैं. जेल के अंदर की दुनिया एक अलग तरह की ही दुनिया है, जिसे समझे बिना न हम जेल सुधार की कोई अच्छी पहल कर सकते हैं, न ही कोई योजना बना सकते हैं. जेलों में कैदियों की भीड़ जेलों की क्षमता से ज्यादा है. एनसीआरबी के मुताबिक जेलों में 114 प्रतिशत की भीड़ है कैदियों की, जबकि कई राज्यों के कुछ जेलों में तो यह आंकड़ा 400 प्रतिशत तक का भी है. इसलिए यह बहुत ही गंभीर और चिंतनीय मामला है.
दरअसल, बहुत से बुजुर्ग कैदी हैं, जिनके बारे में सोचा जाता है कि रिहा होकर वे कहां जायेंगे, इसलिए उन्हें अंदर ही रहने दिया जाये. वहीं संगीन अपराधों में सजा काट रहे बहुत से युवा कैदी हैं, जिनकी सजा पूरी होने के बाद भी रिहाई नहीं मिलती कि वे समाज में जाकर फिर से किसी संगीन जुर्म को अंजाम देंगे. ऐसे तर्क नहीं दिये जाने चाहिए, बल्कि इसका हल निकाला जाना चाहिए.
इन तर्कों के साथ किसी इंसान को जरूरत से ज्यादा दिनों तक कैद में रखना उसके मानवाधिकारों का हनन है. इनके पुनर्वास के बारे में अच्छी नीतियां बननी चाहिए, क्योंकि ये भी हमारे ही समाज का हिस्सा हैं और इन्हें भी हम जैसे ही अधिकार प्राप्त हैं. बेहतर तो यह होगा कि सरकार इस बात की व्यवस्था करे कि बुजुर्ग कैदियों को रिहाई के बाद उनकी बाकी जिंदगी को समाज में सुकून से जीने का इंतजाम हो और युवा कैदियों की रिहाई के बाद वे फिर से अपराध न करें, इसके लिए उन्हें जागरूक बनाया जाये.
‘तिनका तिनका’ के तहत हमारी यही कोशिश रहती है कि जेलों में जिनकी उम्रकैद की मियाद पूरी हो गयी या जिनकी छोटी सजा पूरी हो गयी, तो राज्य सरकारें और समाज इनकी बाकी की जिंदगी के लिए सोचें, ताकि वे अपनी बाकी जिंदगी अच्छे से गुजार सकें.
रिहाई के बाद उन्हें अपनाया जाये
तिनका तिनका के काम के दौरान मैंने देखा है कि महिलाओं की रिहाई के बाद खुद उनके घर के दरवाजे ही उनके लिए बंद हो जाते हैं. मैंने देखा है कि बहुत से मामलों में महिलाओं को किसी और के अपराध की सजाएं दी गयी होती हैं. जेल के अंदर भी कई कैदी हैं, जिन्हें सजाएं तो मिली हैं, पर वे अपराधी नहीं हैं. इसलिए यह कहना कि जिस पर सजा तय हो गयी, वह अपराधी ही है, अनुचित और अतार्किक बात है.
समाज में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिन पर कोई सजा नहीं हुई, लेकिन वे बड़े-बड़े अपराधी हैं. विडंबना है कि हमारा समाज जेल के बाहर के अपराधियों को स्वीकार तो करता है, लेकिन रिहा हो चुके निर्दोषों को स्वीकार नहीं करता. इस रिहाई के साथ उन्हें स्वीकार करने के लिए भी समाज में जागरूकता लानी होगी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
लंबित मामले और कैदियों की बढ़ती संख्या
कारागारों में बढ़ती कैदियों की संख्या के पीछे प्राथमिक कारण अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या है. मार्च, 2016 तक के आंकड़ों के अनुसार देशभर की विभिन्न अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित थे. जेलों में बंद दो तिहाई कैदियों के मामले विचाराधीन हैं. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 2015 में 4,17,623 बंद कैदियों में 2,82,076 कैदियों (67 प्रतिशत) के मामले अंडरट्रायल थे.
विचाराधीन महिला कैदियों की हो सकती है रिहाई
देश की विभिन्न जेलों में बंद महिला कैदियों की रिहाई के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों में बदलाव की चर्चा चल रही है. कैद की एक तिहाई अवधि काट चुकी विचाराधीन महिला कैदियों की रिहाई के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने छूट की मांग की है. ‘वुमेन इन प्रिजन’ नाम से जारी रिपोर्ट में जमानत मिलने के बाद महिला कैदियों की रिहाई की अधिकतम समय तय करने की बात कही गयी है.
आधे से अधिक महिला कैदियों की उम्र 30 से 50 वर्ष के बीच
जेलों में बंद कुल महिला कैदियों में 50.5 प्रतिशत महिला कैदियों की आयु 30 से 50 के वर्ष के बीच है, जबकि 31.3 प्रतिशत की आयु 18 से 30 वर्ष की बीच है. जेलों में यौन उत्पीड़न, हिंसा और दुर्व्यवहार जैसे मामलों के लिए शीघ्र शिकायत निस्तारण प्रणाली विकसित करने की बात कही गयी है.
गोवा में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा हैं महिला कैदी
छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, दिल्ली, गोवा और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं, जहां की जेलों में क्षमता से अधिक महिला कैदी बंद हैं. गोवा की जेल में महिला कैदियों की संख्या पुरुष कैदियों से अधिक है. यहां की जेल में क्षमता से 20 प्रतिशत अधिक महिला कैदी और क्षमता से 36 प्रतिशत कम पुरुष कैदी हैं, वर्ष 2016 के आंकड़ों के अनुसार.
महिला कैदियों की संतानों का मसला
बीते महीने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने गृह मंत्रालय को एक अध्ययन के साथ महिला कैदियों के लिए अपने छोटे बच्चों मुलाकात के अधिकार को बढ़ाने का सुझाव रखा है. अभी नियम है कि छह साल की उम्र तक ही बच्चे अपनी कैदी मां के साथ रह सकते हैं. कुछ विशेषज्ञों की राय है कि इस सीमा को बढ़ाया जाना चाहिए.
क्षमता से 14 प्रतिशत अधिक कैदी
14 प्रतिशत अधिक कैदी रखे गये थे भारतीय जेलों में उनकी क्षमता से, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूराे की रिपोर्ट ‘प्रिजन स्टेटिस्टिक्स इंडिया 2015’ के अनुसार.
1,401 भारतीय जेलों में से, 149 जेलों में उनकी क्षमता से 200 प्रतिशत से अधिक कैदी थे, 31 दिसंबर, 2015 तक. तमिलनाडु के इरोड जिले के उप जेल सत्यमंगलम में क्षमता से 1,250 प्रतिशत अधिक कैदी थे. हालत यह थी कि यहां 16 कैदियों की क्षमता वालेे स्थान पर 200 कैदियों को रखा गया था. वहीं महाराष्ट्र के रोहा उप जेल में तीन के स्थान पर 35 कैदी रखे गये थे, जो अपनी क्षमता से 1,166.7 प्रतिशत अधिक थे वर्ष 2015 में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूराे के मुताबिक.
ज्यादातर विचाराधीन कैदी अवसादग्रस्त
कैदखाने में जाने के बाद शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्याओं से जूझना स्वाभाविक है. जेलों में व्यवस्थागत समस्याएं, मामलों की सुनवाई की सुस्त प्रक्रिया, कैदियों के बीच संघर्ष, स्वच्छता की कमी जैसे तमाम मामले अवसाद, अपराधबोध और निराशा का कारण बन रहे हैं. गुजरात फॉरेंसिक साइंसेस यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों द्वारा साबरमती सेंट्रल जेल और वाराणसी जेल में किये गये सर्वे में पाया गया कि ज्यादातर कैदी भयावह अवसादग्रस्त हैं, उनमें से कई आत्महत्या की प्रवृत्ति के चपेट में आ चुके हैं.
दोषी ठहराये जा चुके कैदियों के मुकाबले विचाराधीन कैदियों में अवसाद के लक्षण कहीं अधिक भयावह स्थिति में हैं.
दोनों ही प्रकार के कैदियों में निराशा के लक्षण पाये गये.
निराशा और आत्महत्या की प्रवृत्ति का स्तर कैदी को मिली सजा के स्तर और सजा के समय पर काफी निर्भर करता है.जमानत प्रक्रिया पर सवाल उठा चुका है विधि आयोगजेलों में विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए पिछले वर्ष विधि आयोग ने अदालत द्वारा जमानत प्रक्रिया पर सवाल उठाया था. उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश व विधि आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष बी एस चौहान द्वारा पेश रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत की वर्तमान बेल प्रक्रिया ठीक नहीं है.
धनी व शक्तिशाली व्यक्तियों को यहां अासानी से जमानत मिल जाती है, जबकि गरीब व अशिक्षित लोग जेलों में पड़े रहते हैं. इस स्थिति से बचने के लिए रिपोर्ट में सरकार से कानून में सुधार की सिफारिश की गयी है. एक सिफारिश यह भी है कि जिस व्यक्ति को सात साल से कम की सजा हुई है और वह अगर सात में से एक तिहाई साल जेल में गुजार चुका है, तो वह स्वत: जमानत के योग्य माना जायेगा.
20 प्रतिशत बढ़ा कारागार बजट 2015-16 मेंदेशभर के कारागार के लिए वित्त वर्ष 2015-16 के लिए बजट में 20.5 प्रतिशत का इजाफा किया गया था. वर्ष 2014-15 के 4,27,881.2 लाख के मुकाबले 2015-16 के लिए 5,15,763.1 लाख रुपये मंजूर किये गये थे, एनसीआरबी के ताजा उपलब्ध आंकड़ाें के अनुसार.कैदियों के वित्तीय मदद के लिए महाराष्ट्र सरकार की पहल छोटे-मोटे अपराधों के लिए जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों को वित्तीय मदद उपलब्ध कराने के उद्देश्य से महाराष्ट्र सरकार ने अजीम प्रेमजी फिलानट्रॉफिक इनिशिएटिव (एपीपीआई), टाटा ट्रस्ट व इस्सर मोटर्स की लाल फैमिली फाउंडेशन के साथ समझौता ज्ञापन पर पिछले महीने हस्ताक्षर किया.
इस योजना के जरिये किशोर आरोपी, मानसिक रूप से बीमार आरोपी और सजा की आधी अवधि काट चुके छोटे अपराधों के अभियुक्तों को कानूनी सहायता भी प्रदान की जायेगी. इससे पहले 2017 में, अतिरिक्त मुख्य सचिव (जेल) श्रीकांत सिंह ने जेल में कैदियों की भीड़ को कम करने के लिए छोटे अपराधों के लिए जेल में बंद विचाराधीन कैदियों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराने की एक पहल की थी.