सुरक्षा और मुक्त आवागमन की हिमायत के साथ हिंद-प्रशांत में अमेरिकी पहल

ट्रंप प्रशासन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वाणिज्यिक अवसंरचना और सुरक्षा के लिए बड़े निवेश की घोषणा की है. करीब एक साल से अमेरिका समेत कुछ देश इस क्षेत्र में आपसी सहयोग को बढ़ाने की कोशिशें कर रहे हैं. चीन के साथ अमेरिका के तनाव तथा जापान और भारत के साथ चीन के असहज संबंधों की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 1, 2018 11:43 PM
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ट्रंप प्रशासन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वाणिज्यिक अवसंरचना और सुरक्षा के लिए बड़े निवेश की घोषणा की है. करीब एक साल से अमेरिका समेत
कुछ देश इस क्षेत्र में आपसी सहयोग को बढ़ाने की कोशिशें कर रहे हैं. चीन के साथ अमेरिका के तनाव तथा जापान और भारत के साथ चीन के असहज संबंधों की पृष्ठभूमि में इन पहलों को चीन की वाणिज्यिक और सामरिक आक्रामकता की काट के रूप में देखा जा सकता है, हालांकि अमेरिका और भारत इससे इनकार करते रहे हैं.
वैश्विक अर्थव्यवस्था और स्थायित्व के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र बेहद अहम है तथा इन गतिविधियों का प्रभाव आर्थिकी के साथ राजनीति और कूटनीति पर पड़ना स्वाभाविक है. अमेरिकी पहल और उसके खास पहलुओं के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-डेप्थ…
भारत अहम भागीदारः अमेरिका
अमेरिका ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के विकास और आर्थिक सहयोग के लिए विभिन्न पहलों की घोषणा करते हुए इस प्रक्रिया में भारत को महत्वपूर्ण भागीदार बताया है.
अमेरिकी विदेश सचिव के वरिष्ठ नीति सलाहकार ब्रायन हूक ने कहा है कि अमेरिका और भारत न सिर्फ द्विपक्षीय स्तर पर मिलकर काम कर रहे हैं, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में साझे इरादों के साथ अन्य देशों, विशेषकर जापान, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया के साथ भी सहयोग कर रहे हैं. ताजा अमेरिकी पहल नौ महीने पुराने ट्रंप प्रशासन के उस बयान का अगला चरण है, जिसमें उसने चीन को परोक्ष रूप से आक्रामक आर्थिक नीतियां अपनाने का आरोप लगाया था.
हूक ने हिंद-प्रशांत में भारत की भूमिका को रेखांकित करते हुए यह भी कहा है कि ट्रंप प्रशासन के डेढ़ साल के कार्यकाल में दोनों देशों के आर्थिक, सुरक्षा और कूटनीतिक संबंध बहुत मजबूत हुए हैं. इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि ट्रंप प्रशासन ने बीते कुछ समय से इस क्षेत्र को ‘एशिया-प्रशांत’ की जगह ‘हिंद-प्रशांत’ कहना शुरू कर दिया है. अमेरिका का कहना है कि यह भारत के उदय के महत्व को इंगित करता है, जिसके साथ अमेरिका के संबंध अच्छे हैं और लगातार मजबूत होते जा रहे हैं. हालांकि, अमेरिका ने अनेक अवसरों पर यह भी कहा है कि इस क्षेत्र में उसका इरादा चीन को रोकना नहीं है, बल्कि सभी के लिए बराबर और साझेदारी के अवसरों को सुनिश्चित करना है.
अमेरिका अपने को हिंद-प्रशांत क्षेत्र की एक शक्ति मानता है और उसका कहना है कि अमेरिकी सुरक्षा और समृद्धि इस क्षेत्र में वाणिज्य के मुक्त आवागमन पर निर्भर है. इस इलाके के अनेक देशों के साथ उसके पुराने राजनीतिक और आर्थिक संबंध हैं तथा पांच देशों के साथ सुरक्षा से जुड़े समझौते भी हैं. हालांकि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया या जापान के साथ भारत के सुरक्षा समझौते नहीं हैं, पर अमेरिका हिंद महासागर के पश्चिमी बिंदु को भारत के साथ संबद्ध मानता है और खुद को उसके पूर्वी बिंदु के साथ.
पूरे हिंद-प्रशांत इलाके में दुनिया की आधी आबादी बसती है. वैश्विक अर्थव्यवस्था का एक-तिहाई से अधिक हिस्सा इसी क्षेत्र में है, जो कि निकट भविष्य में बढ़कर आधा हिस्सा हो जायेगा. इस क्षेत्र में भारत के अलावा चीन, जापान, कोरियाई प्रायद्वीप, उत्तर-पूर्व एशिया, ओशिनिया, न्यूजीलैंड और प्रशांत द्वीप, ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं. भारत को हिंद-प्रशांत में महत्व देने की अमेरिकी सोच इस लिहाज से भी खास है कि इसके साथ ही ट्रंप प्रशासन ने भारत को अधिकृत सामरिक वाणिज्य की पहली सूची के देशों में शामिल किया है.
अमेरिकी रणनीति में एक महत्वपूर्ण कड़ी है भारत
अमित सिंह, प्राध्यापक, दिल्ली विवि
पिछले कुछ सालों में अमेरिका ने चीन के हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ते हुए प्रभाव के मद्देनजर कई प्रकार की घोषणाएं की है. ओबामा प्रशासन ने एशियाई रणनीति में संतुलन की नीति और ट्रांसपैसेफिक पार्टनरशिप समझौते के साथ कई सुरक्षा समझौते भी किये थे. ट्रंप प्रशासन ने इनमें से कई समझौतों को वापस ले लिया और अब भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ अमेरिका चीन पर लगाम लगाने की कोशिश में है.
हालिया घोषणा में निवेश की राशि काफी कम है, क्योंकि हिंद-प्रशांत का दायरा काफी बड़ा है. यह चीनी निवेश के मुकाबले कुछ भी नहीं है. अमेरिकी रणनीति में भारत भी एक महत्वपूर्ण कारक है. अमेरिका अपनी एशियाई संतुलन की रणनीति में भारत को एक महत्वपूर्ण कड़ी मानता है, और इसी वजह से जापान के साथ भी हमारी नजदीकियां बढ़ी हैं. इस पृष्ठभूमि में भारत को विशेष भूमिका निभानी होगी, जिसमें उसे अपने राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखना होगा, न कि किसी बड़ी शक्ति का पिछलग्गू बनना.
चीन की नाराजगी
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और उनके प्रशासन द्वारा ‘हिंद-प्रशांत’ संज्ञा के प्रयोग के बाद से चीन ने कई बार अपनी नाराजगी जाहिर की है. भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की साझेदारी के महत्व को खारिज करते हुए चीन सरकार इसे ‘ध्यान खींचने की कवायद’ बता चुकी है.
इस इलाके में भारत के बढ़ते महत्व पर चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने चेतावनी देते हुए लिखा था कि इससे भारत के हितों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. लेख में भारत से चीन की ओर रुख करने का सुझाव दिया गया था. इससे पता चलता है कि हिंद-प्रशांत की गतिविधियों को चीन गंभीरता से लेने लगा है.
सिंगापुर में हुए शांगरी-ला डायलॉग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन की आशंकाओं को दूर करने का प्रयास करते हुए कहा था कि भारत की दृष्टि में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सभी को अवसर मिलना चाहिए और वह किसी एक देश या देशों के एक समूह तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए. लेकिन चीन इससे आश्वस्त नहीं है.
हालांकि, चीन और भारत के बीच सहयोग के अवसर भी बढ़ रहे हैं तथा दोनों देशों के नेता बीते चार महीने में तीन बार मुलाकात कर चुके हैं, परंतु अपनी वाणिज्यिक और सामरिक आक्रामकता के कारण चीन भारत की सक्रियता और अमेरिका के साथ बढ़ती निकटता को लेकर सहज नहीं हो पा रहा है.
ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति की है चिंताएं
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तेजी से लागू की जा रही ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के लिए बड़ी चिंता का कारण है. अमेरिका के ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप ट्रेड डील से हटने और चीन के साथ व्यापार विवाद इस क्षेत्र में स्थानीय आपूर्ति शृंखला को प्रभावित कर सकता है. बीते वर्ष एशिया-प्रशांत सम्मेलन में अमेरिका ने हिंद-प्रशांत की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए नया खाका तैयार करने की घोषणा की थी.
यूएस टेक्नोलॉजी एक्सपोर्ट के विस्तार पर जोर
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी तकनीकी निर्यात को विस्तार देने के लिए इस क्षेत्र में अमेरिका ने 2.5 करोड़ डॉलर के निवेश की घोषणा की है. ढांचागत विकास और ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अमेरिका की 5 करोड़ डॉलर के अतिरिक्त निवेश करने योजना है. पॉम्पियो के मुताबिक मंगोलिया में जलापूर्ति के नये स्रोतों के विकास के लिए अमेरिका ने 35 करोड़ डॉलर के साझा निवेश के लिए समझौता किया है.
अमेरिकी योजना का पता तो चले
अलीसा आइरेस, सीनियर फेलो, काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन
प्र शासन को यह स्पष्ट करना चाहिए कि कैसे अमेरिका अन्य देशों के साथ मिलकर पहल को प्रभावी बना सकता है. क्या 113 मिलियन डॉलर का एक हिस्सा निजी कंपनियों या दूसरे देशों की विकास एजेंसियों को किये गये वादों को पूरा करने में लगाया जायेगा?
क्या जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और अन्य देशों के साथ साझा निवेश का पैकेज तैयार करने में अमेरिका मददगार होगा, ताकि पॉम्पियो द्वारा रेखांकित किये गये क्षेत्रों- डिजिटल, ऊर्जा या इंफ्रास्ट्रक्चर आदि- में नजदीकी सहयोग बढ़ सके? सरकार के पास आसियान, एपेक जैसे क्षेत्रीय समूहों को भागीदार बनाने की क्या योजना है?
हालांकि पॉम्पियो ने कहा है कि इस बारे में इसी सप्ताह वे विस्तार से बतायेंगे, पर यदि इसी घोषणा में कुछ संकेत होते, तो बेहतर था. विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग करने, किसी पहल के लिए देशों को तैयार करने और सरकारी एवं निजी क्षेत्र में साझेदारी बढ़ाने जैसी कूटनीतिक रणनीतियां बनाने और लागू करने में अमेरिकी विदेश विभाग को महारत हासिल है. अभी जरूरत इस बात की है कि घोषणाओं को लागू करने की अपनी योजना पॉम्पियो हमारे सामने जाहिर करें.
(सीएनएन में छपे लेख का अंश)
हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए 11.3 करोड़ डॉलर की घोषणा
ऐसे वक्त में जब चीन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अरबों डॉलर का निवेश झोंक रहा है, अमेरिका ने 11.3 करोड़ डॉलर के निवेश की घोषणा कर इस क्षेत्र में अपनी बदलती सामरिक नीतियों का संकेत दिया है. यूएस सेक्रेटरी ऑफ स्टेट माइक पॉम्पियो ने इस क्षेत्र में नयी तकनीकों, ऊर्जा और ढांचागत परियोजनाओं को शुरू करने की बात कही है. डोनाल्ड ट्रंप की ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र’ नीति की दिशा में आगे बढ़ते हुए अमेरिका इस क्षेत्र में एक विश्वसनीय सहयोगी के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर रहा है.
किसी का वर्चस्व स्वीकार नहीं
दक्षिणी चीन सागर में लगातार बढ़ते तनाव और इस क्षेत्र में चीन की तेजी से बढ़ती आर्थिक गतिविधियों के मद्देनजर अमेरिका इस क्षेत्र के मुक्त और खुलेपन का हिमायती है. पॉम्पियो ने यूएस चैंबर्स ऑफ कॉमर्स बिजनेस ग्रुप में बताया कि अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में किसी भी देश के प्रभुत्व को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा. अमेरिका इस क्षेत्र में एशियाई देशों और सहयोगी देशों के साथ ऐसे किसी भी वर्चस्व का विरोध करेगा.
प्रशांत द्वीपीय देशों पर चीन का 130 करोड़ डॉलर का कर्ज
प्रशांत द्वीप के कई देश अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए चीन की मदद लेने की वजह से भारी कर्ज के बोझ तले दब चुके हैं. एक समाचार एजेंसी ने 11 दक्षिण प्रशांत द्वीपीय राष्ट्रों के वित्तीय दस्तावेजों का विश्लेषण कर कुछ आंकड़े जुटाये हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान में इन द्वीपीय देशों पर चीन का लगभग 130 करोड़ डॉलर से अधिक का कर्ज है, जो पिछले एक दशक में दिया गया है. इस प्रकार चीन अब क्षेत्र का सबसे बड़ा द्विपक्षीय ऋणदाता बन चुका है.
पापुआ न्यू गिनी पर सबसे ज्यादा चीनी कर्ज
दक्षिण प्रशांत महासागर के स्वायत्त देश टोंगा ने राजधानी नुकु अलोफा में हुए दंगे के बाद इस शहर के पुनर्निर्माण के लिए शुरुआत में चीन से लगभग 6.5 करोड़ डॉलर का कर्ज लिया था. इस कर्ज की राशि को चुकाये बिना ही इस देश ने सड़क निर्माण के लिए एक बार फिर चीन से कर्ज लिया. इस प्रकार मूल धन और ब्याज मिलाकर वर्तमान में टोंगा पर चीनी कर्ज की राशि 11.5 करोड़ डॉलर से अधिक की हो गयी है, जो उसके वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक तिहाई है.
टोंगा पर जितने भी विदेशी कर्जे हैं, उसका 60 प्रतिशत से अधिक उसने चीन से ले रखा है. पापुआ न्यू गिनी चीन का सबसे बड़ा कर्जदार है. इस देश ने चीन से लगभग 59.0 करोड़ डॉलर का कर्ज ले रखा है, जो इसके कुल विदेशी कर्ज का लगभग एक चौथाई हिस्सा है.
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